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गीता और श्रमण संस्कृति : एक तुलनात्मक अध्ययन १७१ निष्कामता को श्रेष्ठ बताया है 133 जो निष्काम होता है, वह न मृत्यु से ग्रस्त होता है और न शाश्वत सुख से दूर । ३४ जिस प्रकार अग्नि पुराने सूखे काठ को शीघ्र ही भस्म कर डालती है, उसी प्रकार आत्म-समाहित निस्पृह साधक कर्मों को कुछ ही काल में नष्ट कर डालता है । ३५ जो इस लोक से निरपेक्ष है, अर्थात इस लोक की यशप्रतिष्ठा आदि के लिए कर्म नहीं करता; परलोक में भी अप्रतिबद्धअनासक्त है अर्थात परलोश में सूखादि की कामना से अभिभूत होकर कर्म नहीं करता, वही सच्चा श्रमण है।३६ जिस साधक की अन्तरात्मा भावनायोग (निष्काम-साधना) से शुद्ध है, वह जल में नौका के समान है, अर्थात् वह संसार-सागर को तैर जाता है, उसमें डूबता नहीं है ।३७ साथ ही वह अन्य मनुष्यों के लिए भी चक्षु के समान पथ-प्रदर्शक बन जाता है।३८
जिस प्रकार कीचड़ में पड़ा हुआ सोना कीचड़ से लिप्त नहीं होता, उसे जंग नहीं लगता है, उसी प्रकार ज्ञानी संसार के पदार्थ समूह में विरक्त होने के कारण कर्म करता हुआ भी कर्म से लिप्त नहीं होता ।३९
किन्तु जिस प्रकार लोहा कीचड़ में पड़कर विकृत हो जाता है, उसे जंग लग जाता है, उसी प्रकार अज्ञानी पदार्थों में रागभाव रखने के कारण कर्म करते हुए विकृत हो जाता है, कर्म से लिप्त
३३. सव्वत्थ भगवया अनियाणया पसत्था ॥ -स्थानांग ६३१ ३४. नेव से अन्तो नेव दूरे।
-आचारांग ११५१ ३५. जहा जुन्नाई कट्ठाई हव्ववाहो पमत्थइ. एवं अत्तसमाहिए अणिहे ।
-आचारांग १।४।३ ३६. इहलोगणिरावेक्खो, अप्पडिबद्धो परम्मि लोयम्हि ।-प्रवचन० ३।२६ ३७. भावणाजोगसुद्धप्पा, जले णावा व आहिया । —सूत्रकृतांग १।१५।५ ३८. से हु चक्खू मणुस्साणं, जे कंखाए य अन्तए। -सूत्र० १।१५।१४ ३९. णाणी रागप्पजहो, सव्वदव्वेसु कम्म मझगदो।। थो लिप्पइ रजएण दु, कद्दममझे जहा कणय ॥
-समयसार २१८
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