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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना होकर सदा करने योग्य कर्मों को करता रहे, क्योंकि अनासक्त रहकर कर्म करता हुआ मनुष्य परम-पद को प्राप्त करता है । २९
इस प्रकार गीता का आदर्श संसार में फँसे बिना भी संसार को सब सम्भावनाओं में मेल बिठाने वाला है। गीता का साधक कर्मों को करता है किंतु फिर भी कर्मों का करने वाला नहीं है। अनासक्ति : जैन धारा
साधना के लिए आसक्ति जहरीला कीड़ा है। कितनी ही ऊँची साधना हो, यदि आसक्ति है तो वह उसे अन्दर ही अन्दर खोखला कर देती है। इसलिए साधक को हर प्रकार की आसक्ति से रहित होकर समभावपूर्वक विचरण करना चाहिए। - उत्तराध्ययन सूत्र में वीतराग भगवान् की वाणी गूंज रही है :
"जो लाभ-अलाभ, सुख-दुख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा और मान-अपमान में समभाव रखता है, वही वस्तुतः मुनि है।"30 ___ 'आत्म-साधक ममत्व के बन्धन को तोड़ फेंके जैसे कि सर्प शरीर पर आई हई केंचली को उतार फेंकता है।३१ यह ममकार ही मोह है और यही कर्म उत्पन्न करने का मूल कारण है। कर्म ही जन्ममरण का मूल है। यदि जन्म-मरण से छुटकारा पाना हो तो आसक्ति को दूर करो।'
जब हम सीमित अहंकार के प्रति अपने राग को त्याग देते हैं और अपने कर्मों को शाश्वतता के प्रति समर्पित कर देते हैं, तब हम उस आत्मा के लिए कार्य करते हैं, जो हम सबमें विद्यमान है। जब तक निरपेक्ष त्याग नहीं होता है, तब तक साधक की चित्तशुद्धि नहीं होती है और जब तक चित्तशुद्धि नहीं होती है, तब तक कक्षय कैसे हो सकता है ? ३२ चित्तशुद्धि के लिए ही भगवान ने सर्वत्र
२६. असक्तोह्याचरन् कर्म परमाप्नोति पूरुषः ।।
-३।१६ ३०. लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा ।
समो निन्दापसंसासु, तहा माणवमाणओ॥ -उत्तरा० १९९१ ३१. ममत्त छिन्दए ताए, महानोगोव्व कंचुयं । -उत्तरा० १९८७ ३२. णहि णिखेक्खो चागो, ण हवदि भिक्खुस्स आसयविशुद्धी।
भविसुद्धस्स हि चित्ते, कहं णु कम्मक्खओ होदि ।।-प्रवचन ३२०
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