Book Title: Shraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Author(s): Kalakumar
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 209
________________ श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना व्यक्ति हो तो साहित्य है । दर्शन जब लहरों पर लहराने लगता है, उसे साहित्य कह लीजिए और जब साहित्य अंतसिन्धु में गहन गोते लगाकर, उसकी गहराई, किंवा अस्तित्व का अंकन करने लग जाता है, वहीं यह दर्शन बन जाता है। साहित्य के माध्यम से जीवन का धर्म, अध्यात्म अथवा कठोर यथार्थ-सभी कुछ सदा से अभिव्यक्ति पाता रहा है। साहित्य ही किसी भी धर्म, अध्यात्म, दर्शन किंवा सम्पूर्णतः सभ्यता एवं संस्कृति की प्राण-प्रतिष्ठा करता आया है. अपनी सत्यता की कैंची से कुशल माली की तरह काट-छाँट कर साज-संवार करता आया है, सबसे प्रिय साथी, अपने मित्र की तरह अंतः-बाह्य साज-शृगार कर सौम्य-सुषुमित करता आया है, और ममतामयी जननी की भाँति अपनी संतान की उन्नति-अभिवृद्धि हेतु कल्याण-कामना को आंचल की छोर में बाँधे, हौले-हौले जोवन के पालने पर श्रद्धा और स्नेह की डोर खींच झुलाता आया है। दूसरे शब्दों में कहें, तो साहित्य ही वह महान शक्ति है. जिसके बल पर कोई भी राष्ट्र जीवित है, कोई भी धर्म जीवित है तथा किसी भी देश की सभ्यता और संस्कृति जीवित है। हम जो रोते हैं. हमारा वही क्रन्दन साहित्य बन जाता है; हम जो गाते हैं, हमारा वही संगीत साहित्य बन जाता है; हम जो आत्मा की सत्ता और परमात्मा तक बनने की जीव में क्षमता का जो अहसास करते हैं, हमारा वही अंतरदर्शन अमर साहित्य बन जाता है । खैर, यहाँ साहित्य का दर्शन और दर्शन के साहित्य का विवेचन हम नहीं करने जा रहे, बल्कि यहाँ साहित्य में संस्कृति की आत्मा, उसके स्वर एबं संदेशों का विहंगावलोकन मात्र करने जा रहे हैं, अतः इतना जान लेना आवश्यक था कि कोई भी संस्कृति साहित्य के बिना जीवित नहीं रह सकती, और न वैसा कोई भी साहित्य है, जो संस्कृति की कल्याणी वाणी से विरत होकर अमरता प्राप्त कर सके। भाषा एवं मातृभाषा : हम जो बोलते हैं, अथवा प्राणिमात्र की जो आवाजें हैं, वही भाषा है। मनुष्यों की भाषा के समान ही, पशुओं की भाषा, पक्षियों की भाषा आदि प्रत्येक प्राणि की अपनी-अपनी भाषाएँ हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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