________________
श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना
"माया जहा निय पुत्तं एकमत्तणु रक्खे । भावय अपरिमाणं ।"
अर्थात जिस प्रकार माता अपने इकलौते पुत्र को स्नेह करती है, उसी प्रकारे तुम अपने स्नेह को संसार के समस्त प्राणियों में फैला दो। श्रमण संस्कृति की उदारता :
भारत की सांस्कृतिक शाखाओं में श्रमण संस्कृति ही केवल ऐसी है, जो केवल विचार में ही उदार नहीं, अपितु आचार में भी काफी उदात्त एवं दृढ़ रही है। श्रमण परम्परा में चाण्डालों को भी संघ में वही स्थान प्राप्त था जो राजकुमारों को था । किसी भी संस्कृति की उदारता का परिचय उसके साहित्य की अपेक्षा आचार से अधिक मिलता है। श्रमण संस्कृति में व्यक्ति की अपेक्षा गुणों को प्रधानता दी गई है। जैनियों के दैनिक मंत्र णमो लोए सव्व साहणं"--संसार के समस्त. साधुओं को नमस्कार हो-से ज्ञात होती है कि इस मंत्र के प्रणेताओं का हृदय कितना विशाल और मध्यस्थ भावों से ओत-प्रोत था।
श्रमण संस्कृति ज्ञान की अपेक्षा चारित्रिक निर्माण पर अधिक बल देती है। क्योंकि मानव संस्कृति का विकास चारित्रिक बल पर ही अवलम्बित है। गीता का 'आत्मवत् सवभूतेषु य पश्यति स पश्यति'-यह स्वर्ण वाक्य श्रमण संस्कृति में सर्वांशतः साकार हुआ है ।
यह संस्कृति प्राणियों में जन्मकृत कोई अन्तर नहीं मानती। आत्मविकास के पथ में जो प्राणी जितना आगे है, वह उतना ही उच्च है, फिर चाहे वह शूद्र हो या ब्राह्मण, राजा हो या रंक, स्त्री हो या पुरुष । यहाँ प्राणियों का सुख-दुःख किसी के वरदान अथवा अभिशाप पर निर्भर नहीं है। इसलिए न तो किसी को प्रसन्न करने के लिए साधना की आवश्यकता है, और न किसी के प्रकोप को दूर करने के लिए अनुष्ठान की। सुख और दुःख का कर्ता तथा विकर्ता स्वयं आत्मा ही है। आत्मा ही मित्र है, आत्मा ही शत्रु है। आत्मा वैतरणी नदी है, आत्मा कट शाल्मली वृक्ष है। आत्मा ही कामधेनु है और आत्मा ही नन्दन वन है।
"अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहा घेणू अप्पा मे नदणं वणं ॥" ।
-उत्तराध्ययन सूत्र उपर्युक्त वर्णन से यह निष्कर्ष निकलता है कि श्रमण संस्कृति भारत की प्राचीन तथा लोक मंगलकारी संस्कृति है। अत: भारतीय संस्कृति के विकास एवं विस्तार में श्रमण संस्कृति का अपूर्व योगदान रहा है।
डा० पुष्यमित्र जैन, ___ एम०ए०, पी-एच०डी०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org