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श्रमण संस्कृति की दार्शनिक पृष्ठभूमि
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उसके भीतर का अध्ययन करना और उसे समझना । केवल बाहरी संयोग से उत्पन्न रूप को ही नहीं, बल्कि प्रकृति के भीतर जो अनादि समन्वय व्यवस्था है, उसका भी अध्ययन करना । अतः दर्शन का लक्ष्य यह दिखाना है, कि कैसे एक परिणाम दूसरे परिणाम को जन्म देता है । और कैसे उसका दूसरे से प्रकट होना अवश्यंभावी है ।” बर्गील ने कहा था - " वही मनुष्य सुखी है, जो वस्तुओं का कारण जान चुका है, और जिससे सारे भय, निर्दयी भाग्य और तृष्णा के नरक के हलचलपूर्ण संघर्षों को अपने पैरों के नीचे दबा चुका है ।" बर्गील ने दर्शन की परिभाषा करते हुए कहा -- '' दर्शन सदैव वास्तविक प्रत्यक्ष दर्शन एवं आत्मानुभूति रहा है, और रहेगा ।" सापेन हॉवर ने दर्शन के सम्बन्ध में अपनी व्याख्या इस प्रकार प्रस्तुत की थी " उसी व्यक्ति में दर्शन की क्षमता नहीं होती, जो मनुष्य तथा सभी वस्तुओं को यथार्थ रूप में जानने का प्रयत्न नहीं करता ।" एक मात्र दर्शन ही ऐसा है, जो कष्ट तथा दुःखों से भरे जीवन में शान्ति दे सकता है । इन परिभाषाओं के अनुसार दर्शन का जीवन से निकटतम सम्बन्ध रहा है । अध्यात्मवादी दर्शन :
था--'
श्रमण संस्कृति का दर्शन एक आध्यात्मवादी दर्शन है । मानव को भोग से योग की ओर ले जाना ही उसका लक्ष्य रहा है । यही कारण है कि श्रमण परम्परा के दर्शन की साधना अध्यात्म-भाव की साधना है, मानव-मन के विकार और विकल्पों पर विजय पाने की माधना है । मनोगत विकारों को पराजित कर आत्म-विजय की प्रतिष्ठा करना ही उसका जय घोष रहा है । आत्मा के एक अशुद्धभाव को जीत लेने पर चार क्रोधादि कषाय और मन जीत लिया जाता है, और पाँच को जीत लेने पर दश -- मन, कषाय और पाँच इन्द्रियाँ जीत ली जाती हैं । इस प्रकार दश शत्रुओं को जीत कर जीवन के समस्त शत्रुओं को सग के लिए जीत लिया जाता है । मनोविकारों को जीतना ही सच्ची विजय है । जिसने अपने आपको नहीं जीता, वह समस्त जगत् को जीतकर भी विजेता नहीं कहा जा सकता । श्रमण-दर्शन का यह केन्द्रीय विचार रहा है ।
१. उत्तराध्यमन सूत्र, २३, ३६
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