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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना
या स्याद्वाद हुआ। कितने बड़े थे वे लोग - जिन्हें यह दिखलाई पड़ा कि केवल रक्तपात करना, कटुवचन कहना अथवा दूसरों का अनिष्ट सोचना ही हिंसा नहीं, प्रत्युत जब हम यह आग्रह कर बैठते हैं कि जो कुछ हम कर रहे हैं, वही सत्य है, तब भी हम हिंसा ही करते हैं । इसलिए अनेकान्तवादियों ने यह धर्म निकाला कि सत्य के पहलू अनेक हैं । जिसे जो पहलू दिखाई देता है, वह उस पहलू की बात कहता है और जो पहलू दूसरों को दिखाई देते हैं, उनकी बातें दूसरे लोग कहते हैं । इसलिए यह कहना हिंसा है कि "केवल यही ठीक है ।" सच्चा अहिंसक मनुष्य इतना ही कह सकता है कि " शायद यह ठीक हो ।" क्योंकि सत्य के सभी पक्ष सभी मनुष्यों को एकसाथ दिखाई नहीं देते ।
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'अनेकान्तवाद' नाम यद्यपि जैनों का दिया हुआ है, किन्तु जिस दृष्टिकोण की ओर यह सिद्धान्त इंगित करता है, वह दृष्टिकोण भारत में आरम्भ से ही विद्यमान था । यदि यह विद्यमान नहीं रहता, तो भारत में इतनी विभिन्न जातियाँ एक मानवता के अंग बनकर एकता की छाया में शान्ति से नहीं जीतीं । तब शायद भारत का भी वही हाल होता जो यूरोप का रहा है। भारत और यूरोप ( रूस को छोड़कर) आकार में बहुत कुछ समान हैं और दोनों ही महादेशों में भाषा एवं जातिगत भिन्नताएँ भी बहुत हैं, फिर भी भारत में ये भिन्नताएँ एक समाधान पर आ गयी हैं, मानो अनेक नदियों ने एक ही समुद्र में अपना विलय खोज लिया हो । किन्तु यूरोप के बित्ते भर-भर के देश परस्पर मारकाट और भयानक रक्तपात मचाते रहते हैं । क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है ? और तो और, राष्ट्रीयता का जो भाव भारत को एकता में दृढ़ता लाने का कारण हुआ, ठीक उसी के कारण यूरोप के देश परस्पर और भी दूर हो गये । अहिंसाप्रियता के कारण जो तत्त्व भारत में अमृत बरसाता है, हिंसाप्रियता के कारण यूरोप में वही जहर बन गया है ।
वर्तमान विश्व की कठिनाई यह नहीं है कि उसके कई देशों ने अणु और उद्जन बम निकाल रखे हैं, बल्कि यह कि वे देश जब आपस में विचारविनिमय करने के लिए बैठते हैं, तब उनकी बाणी में तर्क हो
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