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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना था। वे किसी की पीड़ा को देखकर सहसा द्रवित हो उठते थे। उनके जीवन में ऐसे अनेक प्रसंग आए होंगे जब किसी पीड़ित एव दरिद्र को देखकर अपनी उपभोग सामग्री खुले हाथों लुटा दो होगी। जैन ग्रन्थों का यह प्रसंग तो सर्वसम्मत है कि वे प्रवजित होने से पूर्व एक वर्ष तक निरंतर गरीबों को दान देते रहे। भोगसामग्रियों के प्रति विरक्ति ने उन्हें गरीब, असहाय जनता के लिए अपना सर्वस्व समर्पण कर देने की ओर सर्वाधिक प्रेरित किया।
तीस वर्ष की युवावस्था में वर्धमान ने जीवन का नया मार्ग चना । संसार के भोग-विलास और वैभव को ठकरा कर वे साधना के कठोर मार्ग पर चल पड़े। उनकी साधना अपने आपके प्रति जितनी कठोर थी, जगत के प्रति उतनी ही कोमल करुणामयी थी!
शिशिर ऋतू के प्रारंभ में वे प्रवजित हए थे। क्षत्रिय कुण्ड के निकट ही एक सघन वन में वृक्ष के नीचे समाधि लगाए ध्यानमुद्रा में खड़े थे। तभी एक दीन ब्राह्मण पता लगाता-लगाता श्रमण महावीर के चरणों में पहुंच गया । वह पीढ़ियों का दरिद्र था। घर में खाने को दो जून आटा भी ठीक तरह नहीं जुटा पाता था। वह रोटीरोजी की तलाश में बहुत दूर-दूर भटकता रहा। पर भाग्य का मारा वैसे ही भूखा नंगा घर लौटा। घर आने पर उसने जैसे ही सुना कि कुमार वर्धमान ने वर्ष भर तक दान देकर प्रव्रज्या ग्रहण की है कि बस वह अपने भाग्य को कोसता, पछताता महावीर के चरण चिह्नों का पता लेता हुआ वन में पहुँच गया। महाश्रमण के चरणों में गिरकर वह गिड़गिड़ाया, रोया, इतनी दीनता दिखाने लगा कि समाधिस्थ महावीर का हृदय द्रवित हो उठा। __ब्राह्मण की दीन-हीन दशा देखकर महाश्रमण का मन पिघल गया, पर अब उनके पास था क्या जो उसे दें! वे स्वयं अकिंचन तपस्वी थे। अकिंचन के समक्ष याचना ! बड़ी विषम स्थिति थी ! पर वह दीन यदि खाली हाथ लौटा तो उसका कलेजा टक-टक हो जाएगा ! अस्तु महाश्रमण महावीर ने प्रव्रज्या काल में गहीत अपने देवदूष्य के दो खण्ड करते हुए कहा-"विप्र ! निराश न लौटो। यह देवदूष्य का अर्ध खण्ड तुम ले जाओ-"गिण्हसु इमस्स देवदूसस्स अद्धति।"
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