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श्रमण संस्कृति के चार आदर्श उपासक
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नाग के हृदय पर सुलसा की स्थितप्रज्ञता का गहरा असर हुआ। उसकी उद्विग्नता दूर हो गई।
सुलसा की तितिक्षा, समता एवं विवेकशीलता अद्भुत थी। उस जैसी धैर्य एवं स्थितप्रज्ञता विशिष्ट पुरुषों में भी दुर्लभ थी। मनुष्य ही नहीं, देवता भी उसके इन गुणों के प्रशंसक थे।
एकबार एक मुनि सुलसा के घर आये । किसी रुग्ण साधु के लिए लक्षपाक तैल की याचना की। सुलसा मुनि को लक्षपाक तैल देने के लिए तत्पर हुई, उसने तैल का बर्तन ज्यों ही हाथ में उठाया, हाथ से छूट कर गिर पड़ा, बहुमूल्य तैल भूमि पर फैल गया। दूसरा बर्तन उठाकर लाने लगी तो वह भी उसी प्रकार गिरकर फूट गया। तीसरी बार भी ऐसा ही हुआ। दुर्लभ और बहुमूल्य तैल यों नष्ट हो जाने पर भी उसका धीरज नहीं टूटा। वह उसी प्रकार शांत थी, प्रसन्न थी। खिन्नता थी तो इसी बात की कि मुनि को याचित वस्तु दे नहीं सकी। मुनि ने यह सब घटना देखी, उसके भावों को देखा, उसकी वाणी उसी प्रकार संयत थी, आँखें भी उसी प्रकार स्नेहाड़ ! पहले और अब में सूलसा में कोई अन्तर नहीं आया। यह अद्भुत क्षमाशीलता एवं धीरज देखकर मुनि तुरन्त देव रूप में प्रकट हुआ और उसके गुणों की प्रशंसा करते हुए कहा-''देवानुप्रिये ! देवसभा में शक्रेन्द्र ने तुम्हारी क्षमा की प्रशंसा की थी। मैं तुम्हारी परीक्षा लेने यहाँ आया था। तुम अपने धर्म में, विनय एवं विवेक में अद्वितीय हो, शक्रेन्द्र द्वारा तुम्हारी प्रशंसा यथार्थ थी ! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हुआ हूँ। तुम मुझसे कोई वर माँगो।" ___ सुलसा ने उसी शान्ति और प्रसन्नता के साथ कहा- "देवानुप्रिय ! मुझे किसी वस्तु को कमी नहीं है । और जिस वस्तु की कमी है, वह मेरे कृत-कर्म का ही फल है। समय आने पर मेरा वह मनोरथ भी पूर्ण होगा।"
देवता द्वारा वरदान देने पर भी सुलसा की निःस्पृहता गजब की थी। स्वयं देव भो चकित था -- "यह कैसी नारो है जो सहज देवानुग्रह पर भी अपने अभाव की पूर्ति के लिए कुछ माँगती नहीं। अपने भाग्य और पुरुषार्थ पर कितना दृढ़ विश्वास है इसका !"
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