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जैन संस्कृति का मूलाधार : त्यागधर्म
TTत्मा अनन्त ज्ञान, दर्शन, चारित्र और शक्ति से सम्पन्न होते हुए भी अनादिकाल से चतुर्गतिरूप संसार में परिभ्रमण कर रही । इसका प्रधान कारण है-आत्मविस्मृति, आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप, गुण या स्वभाव को भूल कर पर भावों में रची- पची रहती है, इसी से कर्मबन्ध होता है, और उसके परिणाम स्वरूप संसार में भटकती है, इसलिए आवश्यकता है - आत्माभिमुखता की । परमुखता, पराश्रयिता, पराधीनता ही दुःख है, स्वाश्रयिता, स्वाधीनता एवं स्वभाव में रमणता ही सुख है ।
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पौद्गलिक पदार्थों या वस्तुओं को अपना मानकर, या उनमें सुख की कल्पना करके यह आत्मा निरंतर उनके संग्रह, संरक्षण की अभिवृद्धि में लगी हुई है। उनके विनाश या अनुपस्थिति में दुःख का अनुभव करती है । अर्थात् पर-पदार्थों को अपना मान लिया है और उनके प्रति ममत्वभाव ही दुःखों का मूल कारण है । और समत्व ही शान्ति और आनन्द का मार्ग है । महापुरुषों ने अपने अंतर्-विवेक और साधना से इस परम कल्याणकारी तत्त्व को जाना, अनुभव किया और आत्मबन्धु रूप समस्त प्राणियों को इस कल्याण - मार्ग को बतला कर इस ओर अग्रसर किया। जिन-जिन प्राणियों ने महापुरुषों के उपदेशों से लाभ उठाया, उनका कल्याण हुआ, शांति और आनंद प्राप्त हुआ और अंत में मोक्ष भी ।
तीर्थंकरों ने कहा है कि संग्रह, भोग, और ममत्व ही दुःख के कारण हैं, और त्याग तथा आत्म-रमणता ही सुख का कारण है। परपदार्थों के ममत्व के कारण ही जीव अपना स्वरूप भूलकर निरंतर संग्रह एवं भोग में प्रवृत्तमान है । उसे त्याग का नाम ही नहीं सुहाता ।
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