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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना वृत्तियाँ जीवन-विकास में कोई बाधक हैं ? क्यों नहीं मांस भक्षण की जगह अन्न से क्षधा तृप्ति को जाए ! क्यों नहीं पशुओं की खाल की जगह कपास की कृषि के द्वारा वस्त्र तैयार करके, सर्दी-गर्मी एवं लज्जा से अपने शरीर की रक्षा की जाए।" ____ मानव-जीवन के विकास का इतिहास आज भी इस बात को दुहरा रहा है कि श्रमण संस्कृति ने इस प्रकार मानवमात्र को परिबोध देकर मानव को मानव का जीवन प्रदान किया। श्री दिनकर जो जैसे साहित्यकारों को दृष्टि में मानव को पशु-जीवन से ऊपर उठाकर अहिंसा, दया, प्रम एवं सहानुभूति के मार्ग पर लाकर मानवता का निर्मल जीवन प्रदान करने का प्रथम श्रेय भगवान् ऋषभदेव को ही मिलता है। अहिंसा और विश्वधर्म समन्वय : ___ अहिंसा श्रमण संस्कृति-जन संस्कृति--की विश्व संस्कृति को महान् देन है, ऐसा कहें तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। श्रमणसंस्कृति में अहिंसा, जीवन एवं धर्म की सबसे पहली कसौटी है, यानि अहिंसा के केन्द्र से ही श्रमण संस्कृति का पहला चरण बढ़ता है। जैनधर्म की उत्पत्ति का प्रथम सिद्धान्त ही अहिंसा-भावना है । पश्चात्, इस अहिंसा को भारत के अन्य धर्म एवं संस्कृतियों ने भी एकभाव से हृदयंग कर लिया। आगे चलकर तो यह अहिंसा करुणा, प्रेम एवं सहिष्णुता के रूप में भारतीय संस्कृति का प्राण ही बन गई;जैनदर्शन का तो यह हृदय ही है। इसको विशद व्याप्ति में सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य आदि समस्त व्रतों का स्वत: समावेश हो जाता है।' श्रमण संस्कृति का मूलस्वरूप अहिंसा है और सत्य आदि उसका विस्तार है। ब्रह्मचर्य उसकी साधना है, अस्तेय और अपरिग्रह उसका तप है।
१. अहिंसा-गहणे महब्वयाणि गहियाणि भवंति ।
संजमो पुण तीसे चेव अहिंसाए उदग्गहे वट्टइ, सपुण्णाय अहिंसाय संजमो वि तस्स वट्टइ ।
-दशवकालिक, चूणि १ अध्ययन ।
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