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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना
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कथनों का सार है, जो कि एक तरह से सभी धर्मों का सार है 3 किसी के प्राणों की हत्या करना धर्म नहीं हो सकता । अहिंसा, संयम और तप यही वास्तविक धर्म है १४ । इस लोक में जितने भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं" उनकी हिंसा न जानकर करो, न अनजान में करो और न दूसरों से ही किसी की हिंसा कराओ। क्योंकि सबके भीतर एकसी आत्मा है । हमारी तरह सबको अपने प्राण प्यारे हैं । ऐसा मानकर भय और वैर से मुक्त होकर किसी भी प्राणो की हिंसा न करो। जो व्यक्ति खुद हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है और दूसरों की हिंसा का अनुमोदन करता है, वह अपने लिए वैर ही बढ़ाता है' ६ । अतः प्राणियों के प्रति वैसा ही भाव रखो जैसा कि अपनी आत्मा के प्रति रखते हो १७ । सभी जीवों के प्रति अहिंसक होकर रहना चाहिए । सच्चा संयमी वही है, जो मन, वचन और शरीर से किसी की हिंसा नहीं करता । यह है -भगवान् महावीर की आत्मौपम्य दृष्टि, जो अहिंसा में ओत-प्रोत होकर विराट् विश्व के सम्मुख एकात्मानुभूति का एक महान् गौरव प्रस्तुत कर रही है ।
जैन दर्शन में अहिंसा के दो पक्ष हैं । 'नहीं मारना' - यह अहिंसा का एक पहलू है, उसका दूसरा पहलू है - मैत्री, करुणा और सेवा | यदि हम सिर्फ अहिंसा के नकारात्मक पहलू पर अहिंसा की अधूरी समझ होगी । सम्पूर्ण अहिंसा की साधना के लिए प्राणिमात्र के साथ मैत्री सम्बन्ध रखना, उसकी सेवा करना, उसे
ही सोचें तो यह
१३. जं इच्छसि अप्पणतो, जं च न इच्छसि अप्पणतो । तं इच्छ परस्स वि, एत्तियग्गं जिणसासणयं ॥ १४. धम्मो मंगल मुक्किट्ठे, अहिंसा संजमो तवो । १५. जावन्ति लोए पाणा सा अदुव थावरा ।
ते जारणमजाणे वा न हणे नोविधायए ।। १६. अज्झत्थं सव्वओ सव्वं दिस्स पाणे पियाउए । न हणे पाणिणो पाणे भयवेराओ उवरए ||
१७. समंऽतिवायए पाणे, अदुवान्न हि घायए । हरणन्तं वाऽणुजाणाइ वेरं बढई अप्पणो ।।
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- बृहत्कल्प भाष्य ४५८४ - दशकालिक १|१
- दशव कालिक
-उत्तराध्ययन ८।१०
- सूत्र कृताङ्ग १।१।११३
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