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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना मानवता से आप्लावित मानव जीवन का अंतर्ह दय अहिंसा है। अहिंसा इसलिए उसका अंतर्ह दय है, क्योंकि यही वह स्थल है, जहाँ से वह स्व-आत्मा के समान पर-आत्मा को समझता है, समान भाव से सबके लिए सभी प्राणियों के लिए सुख-दुःख को समान रूप से अनुभूति करता है। इसका सीधा-सा अर्थ है कि वह विश्व की समस्त आत्माओं को समदृष्टि से देखता है। चैतन्यमात्र के प्रति अपनेपराये का भेद न रखते हुए, समतापूर्ण व्यवहार करता है। इसी भावना को लक्ष्य करके श्रमण संस्कृति के उन्नायक भगवान महावीर ने कहा था-''सभी प्राणों को, सभो भूतों को, सभी जीवों को तथा सभी सत्वों को न तो मारना चाहिए, न पीड़ित करना चाहिए और न ही उनको घात करने की बुद्धि से स्पर्श करना चाहिए। यही धर्म शुद्ध, शाश्वत और नियत है।" इसी भावना को विस्तृत करते हुए दशवकालिक सूत्र में कहा है- “सब आत्माओं को अपनी आत्मा को तरह समझो। विश्व के सभी प्राणियों की आत्माओं में अपने आपको देखो और विश्व की समस्त आत्माओं को अपने भीतर देखो"।" वस्तुतः यह साधना समत्वयोग को साधना है, जिसका मूल आधार विश्व को समग्र आत्माओं के साथ अपने जैसा व्यवहार करना है । हम अपने लिए जिस प्रकार का व्यवहार दूसरों से चाहते हैं, हम अपने लिए जिस प्रकार की स्थिति की अपेक्षा दूसरों से करते हैं, अन्य समस्त प्राणियों के लिए भी हम वैसा हो व्यवहार करें वैसो हो स्थिति निर्मित करें-यही अहिंसा का अन्तर्ह दय है। आत्मौपम्य दृष्टि :
भगवान् महावीर ने विश्वप्राणियों के मध्य समता की संस्थापना करते हुए कहा था कि 'विश्व को सभी आत्माएँ एक हैं।' अर्थात
४. सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता
न हंतव्वा. न अज्जायेयव्वा, न परिघेतव्वा , न उवद्दयेयव्वा-एस धम्मे सुद्ध नियए सासए ।
-आचारांग सूत्र ५. सव्वभूयप्पभूयस्स, सम्म भूयाइं पासओ। —दशवैकालिक, ४९ ६. एगे आया।
-ठाणांग, सूत्र १-१
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