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पन साहापना
श्रमण संस्कृति का अहिंसा दर्शन एवं विश्व धर्म समन्वय'
दण्ड और अहिंसा :
अन्याय के प्रतिकार की जब बात सामने आती है, तब यह प्रश्न सामने खड़ा हो जाता है कि अपराधी व्यक्ति को जब दण्ड दिया जाता है, तब उसे शारीरिक, मानसिक पीड़ाएँ होती हैं । उसे कष्ट होता है और कष्ट देना हिंसा है । और यदि दण्ड नहीं दिया जाता है, तो अन्याय को बढ़ावा मिलता है, समाज में अनैतिक कार्यों में और भी वृद्धि होती है और जन-जीवन असुरक्षित एवं अशांतिपूर्ण होकर और भी पीड़ित हो उठता है । अहिंसा का दर्शन इस सम्बन्ध में क्या समाधान देता है ?
वस्तुत: अहिंसा - दर्शन हृदय परिवर्तन का दर्शन है । वह मारने का नहीं, सुधारने का दर्शन है। वह संहार का नहीं, उद्धार एवं निर्माण का दर्शन है । अहिंसा - दर्शन का दण्ड के सम्बन्ध में कुछ ऐसा विचार है कि अपराधी के अन्दर स्नेह एवं सहानुभूति की भावता भरकर मनोवैज्ञानिक प्रणाली से उसमें सुधार किया जाए, अपराधी को मिटाने की अपेक्षा अपराध के कारणों को मिटाना, कहीं ज्यादा श्रेयस्कर है । भारत सरकार ने भी अहिंसा के इस मनोवैज्ञानिक धरातल को आज के युग में युक्तियुक्त समझकर अपनी राजनीति एवं दण्डनीति में इसे महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है । बाल सुधार केन्द्र, वनिताविकास मण्डल आदि के रूप में सरकार की ओर से किए गए इस दिशा में कुछ ऐसे ही प्रयत्न हैं ।
भगवान् महावीर का अहिंसा के सम्बन्ध में यह अमृतमय संदेश है कि- पापी से पापी व्यक्ति से भी घृणा मत करो । बुरे आदमी और बुराई के बीच अन्तर करना चाहिए । बुराई सदा बुराई है, वह कभी भलाई नहीं हो सकती । परंतु बुरा आदमी प्रसंग एवं वातावरण के अनुसार भला आदमी बन सकता है। मूल में कोई आत्मा बुरी है ही नहीं । असत्य के बीच में भी सत्य, अन्धकार के बीच में भी प्रकाश छिपा हुआ है । विष भी अपने अन्दर में अमृत को सुरक्षित रखे हुए है । अच्छे-बुरे- - सब में ईश्वरीय ज्योति जल रही है । अपराधी व्यक्ति में भो यह ज्योति है, किन्तु दबी हुई है । हमारा प्रयत्न ऐसा होना चाहिए कि वह ज्योति बाहर आए, समाज में अपराध की मनोवृत्ति का अन्धकार दूर हो ।
ताकि
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