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श्रमण संस्कृति का अहिंसा दर्शन
एवं विश्वधर्म-समन्वय आदिमयुग का मानव और जीवन में अहिंसा का उदय :
मानव-विकास के क्रमों पर आज की वैज्ञानिक दृष्टि सर्वप्रथम आदिम युग पर जा टिकती है। आदिम युग का मानव जंगलों में भटका करता था । जंगली जानवरों का शिकार करना, उनके कच्चेअधपके मांस से क्षुधा तृप्ति करना, तथा उनकी खालों को वस्त्र की जगह पहनना, यही प्रायः उसका नित्य का जीवन था। आदिम मानव का यह जीवनक्रम बताता है कि अपने से इतर किसी भी प्राणी का मूल्य उसके लिए कुछ भी न था। बस, कुछ मूल्य था तो इतना ही कि उन्हें मारकर अपनी क्षुधापूर्ति करना एवं उनको खाल को पहन लेना भर । तब के मानव को कहाँ यह पता था कि सभी प्राणी एक समान हैं, सभी हमारी तरह ही सुख-दुःखों का अनुभव करते हैं, हमारी तरह ही दुःखों से मुक्ति चाहते हैं और सुखों की कामना करते हैं।
इतिहास इसका प्रमाण है कि ऋषि-परम्परा से पूर्व श्रमण परम्परा ने मानवमात्र को यह ज्ञान प्रदान किया कि --- "मानव ! जिस प्रकार तूने सुख एवं शांतिपूर्ण पथ से यात्रा करने के लिए मानवतन पाया है, उसी प्रकार विश्व के समस्त प्राणी भी सूख एवं शांति का जोवन चाहते हैं। अतः जिस प्रकार तुम अपना अहित नहीं कर सकते, अपना अहित नहीं देख सकते, अपने लिए कतई पीड़ा एवं दुःख नहीं चाह सकते—विश्व के अन्य सभी जीव भी अपने लिए ऐसा कुछ नहीं चाहते हैं। जीवन जीना है, तो क्या तामसिक वृत्तियों से ही जिया जा सकता है ? क्या सात्विक
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