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श्रमण संस्कृति को दार्शनिक पृष्ठभूमि
जो श्रमण शब्द का है। सांख्य दर्शन का संन्यामी, योग-दर्शन का योगी और श्रमण-संस्कृति का श्रमण - तीनो का उद्देश्य एक ही है, कि अध्यात्म- जीवन का विकास करके अनन्त सुख, अनन्त शान्ति और अनन्त आनन्द को प्राप्त किया जाए। इस दृष्टि से सांख्य दर्शन और योग-दर्शन भी श्रमण-दर्शन से भिन्न नहीं है। कुछ शब्दों के हेर-फेर के कारण, अथवा कुछ परिभाषाओं की भिन्नता के कारण, सांख्य और योग को श्रमण-धर्म, श्रमण-संस्कृति और भ्रमण-दर्शन से अलग नहीं रखा जा सकता। इसी प्रकार आजीवक-पंथ भी श्रमणपरम्परा का एक अंग था। भले ही आज उसकी परम्पराएँ विलुप्त अथवा विस्मृत हो चुकी हों। इस प्रकार श्रमण संस्कृति की सीमा बहुत विस्तृत एवं व्यापक रही है ।
दर्शन की परिभाषा :
दर्शन शब्द अत्यन्त व्यापक रहा है । इसकी व्याख्या और परिभाषा को बाँधने का जितना प्रयत्न किया गया है, वह उतना ही विराट् और व्यापक होता रहा है । दर्शन- - शास्त्र की विभिन्न शाखाओं में आस्था की भिन्नता होने पर भी उसके मूलस्वरूप के सम्बन्ध में किसी प्रकार की भिन्नता नहीं देखी जाती । दर्शन शब्द की परिभाषा अथवा लक्षण एक ही है कि सत्य एवं तथ्य का साक्षात्कार करना । जिसने सत्य का साक्षात्कार कर लिया, उसे प्राचीन युग में ऋषि तथा वर्तमान युग में दार्शनिक कहा जाता है | दर्शन और दार्शनिक की यह परिभाषा भारत के सभी दर्शन सम्प्रदायों को मान्य रही है । तत्त्व का साक्षात्कार करना ही, सत्य का साक्षात्कार करना माना जाता है । इस अर्थ में उच्छेदवादी चार्वाकदर्शन को भी दर्शन कहा गया है। भारत के नव दर्शनों में उसकी भी परिगणना की गई है । यह बात अलग है कि तत्त्व, सत्य और तथ्य किसे कहा जाए ? जैन- परम्परा जोव और अजीव को तत्त्व स्वीकार करती है। सांख्य दर्शन ने प्रकृति और पुरुष को तत्त्व कहा है । बौद्ध परम्परा में चार आर्य सत्य प्रसिद्ध हैं । वैशेषिकदर्शन ने सप्त पदार्थ स्वीकार किए हैं, तो न्याय दर्शन ने सोलह पदार्थ माने हैं । वेदान्त ने इन सब को मिटाकर एक मात्र ब्रह्म को ही तत्त्व माना है । तत्त्व की व्याख्या भिन्न होने पर भी तत्त्व की
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