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श्रमण संस्कृति की दार्शनिक पृष्ठभूमि
धर्म, संस्कृति और दर्शन-ये तीनों मानव-जीवन के विकास की सीमारेखाएँ हैं। इन तीनों को विभक्त नहीं किया जा सकता। तीनों का समन्वित रूप ही मानव-जीवन के लिए वरदान सिद्ध हो सकता है। संस्कृति जब आचारोन्मुख होती है, तब उसे धर्म कहा जाता है, और जब वह विचारोन्मुख होती है. तब उसे दर्शन कहा जाता है । संस्कृति का बाह्यरूप एवं क्रिया-काण्ड धर्म है, और संस्कृति की आन्तरिक रेखा अथवा चिन्तन दर्शन की संज्ञा को प्राप्त करता है । संस्कृति का अर्थ है-संस्कार । संस्कार चेतन का हो हो सकता है, जड़ का नहीं। इस संदर्भ में संस्कृति का सम्बन्ध चेतन से ही है, अचेतन से नहीं। जब प्रकृति में विकार आ जाता है, तब उसके सुधार के लिए जो प्रयत्न किया जाता है, वही संस्कार अथवा संस्कृति है। श्रमण-संस्कृति : ___ संस्कृति अपने आप में एक अखण्ड तत्त्व है। उसका खण्ड अथवा विभाजन नहीं किया जा सकता। संस्कृति के पूर्व जब कोई विशेषण जोड़ दिया जाता है, तब वह विभाजित हो जाती है । संस्कृति अपने आप में एक होकर भी अपने पूर्व विशेषणों के कारण अनेक विभागों में विभाजित हो जाती है। जैसे कि-श्रमण-संस्कृति और ब्राह्मण-संस्कृति । सम-संस्कृति अथवा ब्रह्म-संस्कृति । श्रमण और ब्राह्मण---ये दोनों भारतीय धर्म-परम्पराओं में गुरु पद भोगते रहे हैं। एक ही राष्ट्र में रहते हुए भी और एक ही राष्ट्र का अन्न एवं जल खाते-पोते हए भी दोनों के चिन्तन को पद्धति अलग-अलग रही है। श्रमण ने योग को अपनाया, तो ब्राह्मण ने भोग को।
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