Book Title: Shatrunjay Kalp
Author(s): Amrendrasagar, Mahabhadrasagar
Publisher: Jain Agam Mandir Samstha
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शत्रुञ्जय कल्पवृ० ॥४६१॥
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यतः-बहुदुक्खजालपुण्णं कसायगाहाउलं भयावत्तं । संजमजाणारूढो संसारमहोयही तिण्णो ॥१६२३ ॥ झाणाणिलाहएणं विविह तविंधणमहंतजलिएणं । णाणाणलेण राहव ! तुमए जम्माडवी दइढा ॥ १६२४ ।। * "वैरग्गमुग्गरेणं विचुण्णि कम्मपंजरं सिग्छ । हणिओ अ मोहसत्त उवसमसूलेण धीरेणं ॥१॥ । अथ सीतेन्द्र आकर्ण्य चतुर्थे नरके स्थितम् । लक्ष्मणं नरके तत्र गत्वा ददर्श नारकान् ॥ १६२५ ॥
यतः-" नरएसु जाइ अइकक्खदुक्खाइ परतिक्खाई। को वष्णेइ ताई जीवंतो वासकोडीवि ॥१॥ कक्खडदाहं सामलि असिवणवेअरणिपहरणसएहिं । जा जा अण्णाओ पावंति नारया तं अहम्मफलं ॥२॥" क्रियमाणां भृशं पीडां देवेः परमधार्मिकैः । लक्ष्मणस्य दशास्यस्य सीतेन्द्रो दृष्टवान् स्वयम् ॥ १६२६ ॥ ततो मिथो वितन्वानी युद्धं लक्ष्मणरावणौ । सीतेन्द्रोऽवग् महाकाष्टं सर्व पापविजम्भितम् ॥१६२७॥ यतः-“के इत्थ सामलीए कंटयपउराए विलइया संता । ओयरणारुहणाई कारिज्जंतेऽत्थ बहुआई ॥१॥ जंतेसु केवि छुडा पीलिज्जते पुरा अकयपुन्ना । कंडूसु डद्धपाया उज्झंति अहोमुहा अन्ने ॥२॥ असिचक्कमोग्गरहता लोलंता कक्खडे धरणिवढे । खजंति आरसंता चित्तयवयवग्यसीहेहिं ॥३॥ पाइज्जंति रडंता सुतत्ततवुतंबसण्णिहं कललं । असिपत्तवणगया विअ अन्ने छिज्जति सत्थेहिं ॥ ४॥" ततः सीताऽच्युताधीशो दध्यौ स्वयं कृताघतः । किं किं न लभते दुःखं जीवश्चतुर्गतौ गतः१ ॥१६२८ ॥
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H॥४६॥
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