Book Title: Shantilal Vanmali Sheth Amrut Mahotsav Smarika
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Sohanlal Jain Vidya Prasarak Samiti

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Page 29
________________ विश्व-समन्वय केंद्र तथा गांधी विचारधारा में विश्वास रखने गतवर्ष जैनमिलन इन्टरनेशनल-दिल्ली की आंतवाली अनेक सर्वोदय-संस्थाओं में रचनात्मक कार्य करने का राष्ट्रीय सामाजिक संस्था ने श्री शान्तिभाई की सामाजिक अवसर मिला । पू० गांधीजी, पू० विनोबाजी, पू० रविशंकर सेवाओं के उपलक्ष्य में उन्हें 'सन्निष्ठ समाजसेवी' के मानार्ह महाराज, जापान के पू. फूजी गुरुजी,श्री जयप्रकाश नारायण, पद से सम्मानित किया-यह भी जैन समाज के लिये गौरव बाबा राघवदासजी, श्री श्रीमन्नारायण आदि अनेक सर्वोदयी का विषय है। नेताओं के संपर्क में आना हुआ। खुदाई खिदमतगार सरहद श्री शान्तिभाई की सहचारिणी श्रीमती दयाबहिन भी के गांधी अब्दुल गफ्फारखान से भी निकट परिचय हुआ। समाज-सेवा में प्रेरणामूर्ति बन रही है यह भी सद्भाग्य की यह सब पू० काकासाहब की असीम कृपा का परिणाम है ऐसा बात है। शान्तिभाई का मंतव्य है। श्री शान्तिभाई ने अपना समग्र जीवन ज्ञानोपासना एवं श्री शान्तिभाई ने १९६६ में झेगोरस्क-मास्को में साहित्य-साधना को समर्पित कर दिया है और अपना शेष विश्व-शान्ति-परिषद में जैनधर्म के प्रतिनिधि के रूप में जीवन भी साहित्य-सेवा में समर्पित करने की अन्तर्भावना सक्रिय भाग लिया और भगवान महावीर के 'साम्यभाव' का प्रकट की है। जीवन-संदेश सुनाया। वहाँ से ताशकन्द, समरकन्द आदि अन्त में, श्री शान्तिभाई ने अपने यशस्वी ७५ वर्ष पूरे प्रदेशों में पर्यटन करने का भी मौका मिला। कर लिये हैं और ७६ वर्ष में मंगल प्रवेश किया है-इस सन् १९७२ में भगवान महावीर के २५वीं निर्वाण- अमृत-महोत्सव के शुभ प्रसंग पर उनको हम हार्दिक अभिशताब्दी महोत्सव की राष्ट्रीय समिति के एक मन्त्री के रूप में नन्दन के साथ वे स्वास्थ्यपूर्ण शताब्दी पूर्ण करें और रहकर महोत्सव को सफल बनाने में सक्रिय और महत्वपूर्ण साहित्योपसना की उनकी मनोभावना सफल और सार्थक हो योगदान दिया। यही शुभ भावना है। जीवन-दृष्टि : अनेकान्त की शिक्षा जैन परिभाषा में एकांत से अनेकांत की ओर अग्रसर धर्म और अनेकान्त होना का अर्थ है अपने व्यवहार तथा विचार में दूसरों का भी ध्यान रखना। इसको 'सापेक्ष दष्टि' भी कहा जाता है। धर्म का लक्ष्य मनुष्य को वैयक्तिक भूमिका से ऊपर उठाअर्थात व्यवहार करते समय केवल अपनी सुख-सुविधा के का ध्यान न रखकर दूसरे का भी ध्यान रखना। इसी समानता या एकता का अनुभव कर सके। कुछ धर्मों ने प्रकार निर्णय करते समय दूसरी दष्टियों को भी ध्यान में व्यक्ति को अपना लक्ष्य बनाया और कुछ ने समाज को। रखना। अपने व्यवहार में जो व्यक्ति दूसरों का जितना व्यक्तिवादी धर्मों ने उस तत्व की ओर ध्यान आकृष्ट किया, अधिक ध्यान रखता है, वह उतना ही 'सभ्य' कहा जाएगा। जहाँ प्रत्येक प्राणी दूसरे प्राणी के समान है। समाजलक्ष्यी इसी प्रकार निर्णय करते समय जितने अधिक दष्टिकोणों पर धर्मों ने ऐसे अतीन्द्रिय तत्त्व को प्रस्तुत किया जिसे प्राप्त कर विचार किया जाएगा, हम उतना ही सत्य के समीप होंगे। लेने पर वैयक्तिक भेद मिट जाता है। समतावादी धर्मों ने दु:ख धर्म, दर्शन, इतिहास, कला, विज्ञान आदि सभी विद्याओं का तथा बंधन का कारण वैषम्य बुद्धि को बताया। एकतावादी लक्ष्य है मनुष्य को स्वकेंद्रता से ऊपर उठाकर सर्वकेन्द्रित धर्मों ने भेदबुद्धि को । वैषम्य से साम्य की ओर तथा भेद से बनाना । धार्मिक जगत में इसे 'समता' कहा जाता है। अभेद की ओर अग्रसर होने को दूसरे शब्दों में एकांत से अनेदर्शनशास्त्र में 'सापेक्षवाद' और राजनीति में 'लोकतंत्र'। कांत की ओर बढ़ना कहा जा सकता है। कला के क्षेत्र में इसका अर्थ होगा वैयक्तिक अनुभूति और एकांतवादी दूसरे के साथ व्यवहार करते समय 'स्व' को सार्वजनिक अनुभूति में 'समरसता'। सच्चा कलाकार वही मुख्यता देता है और 'पर' को भूल जाता है। उसे 'स्व' के है जो प्राणीमात्र की अनुभूति को अपनी अनुभात बना लेता समान 'पर' को भी महत्व देने का पाठ सिखाना ही 'अनेकान्त है। सच्चा वैज्ञानिक वैयक्तिक धारणाओं को अलग रखकर को शिक्षा है।' वस्तु की गहराई में उतरता है। यही जीवन-दृष्टि है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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