Book Title: Shantilal Vanmali Sheth Amrut Mahotsav Smarika
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Sohanlal Jain Vidya Prasarak Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 82
________________ LATERNITER सर्वोदयतीर्थ-जैनधर्म श्री जयसुखलाल वनमाली शेठ कलकत्ता ज्येष्ठ भ्राता श्री जयसुखभाई और श्री शान्तिभाई सर्वोदयी-तीर्थ जैनधर्म-जीवनधर्म सर्वापदामन्तकरं निरन्तं, सर्वोदयंतीर्थमिदं तवैव। धर्म, राष्ट्रधर्म, व्रतधर्म, कुलधर्म, गणधर्म, संघधर्म, सूत्रधर्म, अर्थात्-हे भगवन् ! सबका कल्याण करनेवाला, चारित्रधर्म एवं अस्तिकाय धर्म का निरूपण करके जनसाधासबको सुख देनेवाला आपका धर्म वास्तव में सर्वोदय-तीर्थ है। रण को जैनधर्म क्रमशः कैसे 'जीवन धर्म' बन सकता है यह भगवान महावीर के तीर्थ को 'सर्वोदय-तीर्थ' कहा गया स्पष्ट बताया है । जो धर्म जीवन में मूर्त नहीं होता है वह है । जहाँ सर्वोदय-अर्थात् सबका भला करने की भावना धर्म नामशेष हो जाता है। इसीलिए जैनधर्म, जीवन में अंतर में हो वहाँ भगवान महावीर का शासन-तीर्थ है ही। उतारने से ही 'जीवनधर्म' हो सकता है। अहिंसा,संयम और तपोमय धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है। मंगलमय इसी प्रकार भगवान महावीर ने जीवनधर्मरूप जैनधर्म भगवान महावीर का यही एकमात्र मंगलधर्म है। भगवान को बिना सोचे-समझे, आँखें मूंदकर, अंगीकार करने की बात महावीर ने धर्म के तत्व को रहस्यपूर्ण बताया नहीं है। उन्होंने कही नहीं है। उन्होंने स्पष्ट उद्घोषणा की है कि- हे भव्य तो 'एहि पस्सकं धम्म'-अर्थात् आओ, धर्म-तत्व को देखो और जीवो,तुम धर्म को अपनी प्रज्ञा-विवेक बुद्धि से बराबर परखकर पहिचानो। जैसा कि दूसरों ने कहा है कि-'धर्मस्य तत्त्वं अंगीकार करो और तत्त्व को भी अपनी बुद्धि की कसौटी पर निहितं गुहायाम्' अर्थात् धर्म का तत्त्व गूफा में छुपा हुआ कस करके ही स्वीकार करो । अंधश्रद्धा या गतानुगतिक वृत्ति है। इस प्रकार धर्म को रहस्यपूर्ण भगवान महावीर ने नहीं से किसी बात को स्वीकार न करो। बताया। विश्व-ज्योति भगवान महावीर ने सभी जीवों के प्रति दूसरे महत्व की बात भगवान महावीर ने यह बताई समभावना, मानवजाति की समानता, ऊँच-नीच भावना का कि जो इस त्रिविध मंगल-धर्म का ठीक पालन करता है उस प्रतिकार, हिंसा के स्थान पर अहिंसा की प्रतिष्ठा, जातिवाद धर्मपुरुष को देव भी नमस्कार करते हैं। यहाँ पर देवों द्वारा के स्थान पर गुणवाद की प्रतिष्ठा, स्त्री और शूद्रों के प्रति भी धर्माराधक को 'पूज्य' बताकर भगवान महावीर ने मानव- सम्मान-भावना, भाषामोह का परित्याग और सभी जीवों धर्म की प्रतिष्ठा स्थापित की है। रूढ़ि या परम्परा से चले की कल्याण-भावना प्रगट कर समानता, सार्वजनिकता और आये सांप्रदायिक धर्म-जो धर्मभ्रमके रूप में मानवता का सार्वभौमता का आदर्श बताया है। जैनधर्म कोई संप्रदाय, हास करता है, ऐसे अधर्म का प्रतिकार किया है। वास्तव जाति या वर्ग विशेष का स्वायत्त धर्म नहीं है। यह तो समग्र में जैनधर्म वस्तुधर्म होने से विश्वधर्म है। मानव-समाज क्या, जीवमान का अपना धर्म है। इसी कारण श्री स्थानांग सूत्र में भगवान महावीर ने 'ग्रामधर्म नगर- जैनधर्म को वीतराग-धर्म या विश्व-धर्म कहा गया है। । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148