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काम की चीज कहीं से भी खोज लेना आसान है। किन्तु रूप आज हमारे पास नहीं। उसकी भाषा में वह प्राकृत होने अविवेकी और अयोग्य के लिए यही मार्ग खतरे से खाली के कारण परिवर्तन होना स्वाभाविक ही है अतः ब्राह्मणों की नहीं। इसलिए जैन ऋषियों ने विश्व-साहित्य में से चुने हुए तरह जैनाचार्य और उपाध्याय-अंग ग्रंथों की अक्षरशः सुरक्षा अंश को ही जैनों के लिए व्यवहार में उपादेय बताया है और नहीं कर सके हैं। इतना ही नहीं किन्तु कई संपूर्ण गंथों को . उसी को जैनागम में स्थान प्राप्त है।
भूल चुके हैं और कई ग्रंथों की अवस्था विकृत कर दी है। चुनाव का मूल सिद्धान्त यह है कि उसी विषय का उप- फिर भी इतना अवश्य कहा जा सवता है कि अंगों का अधिदेश उपादेय हो सकता है जिसे वक्ता ने यथार्थ रूप में देखा कांश जो आज उपलब्ध है वह भगवान् के उपदेश से अधिक हो, इतना ही नहीं किन्तु यथार्थ रूप में कहा भी हो। ऐसी निकट है। उसमें परिवर्तन और परिवर्धन हुआ है किन्तु कोई भी बात प्रमाण नहीं मानी जा सकती जिसका मूल समूची नया ही मन-गढन्त है, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता। उपर्यक्त उपदेश में न हो या जो उससे विसंगत हो।
क्योंकि जैन संघ ने उस संपूर्ण श्रत को बचाने का बार-बार जो यथार्थदर्शी नहीं है किन्तु यथार्थ श्रोता (श्रुतकेवली- जो प्रयत्न किया है उसका साक्षी जो इतिहास है उसे मिटाया दशपूर्वी) हैं उनकी भी यही बात प्रमाण मानी जाती है जो नहीं जा सकता। उन्होंने यथार्थदर्शी से साक्षात् या परंपरा से सुनी है, अश्रत भूतकाल में जो बाधाएँ जैनश्रुत के नाश में कारण हुई, कहने का उनका अधिकार नहीं । तात्यर्य इतना ही है कि क्या वे वेद का नाश नहीं कर सकती थीं? क्या कारण है कि कोई भी बात तभी प्रमाण मानी जाती है, यदि उसका यथार्थ जैनश्रुत से भी प्राचीन वेद तो सुरक्षित रह सका और जैनअनुभव-यथार्थ दर्शन किसी न किसी को हुआ हो। आगम श्रुत संपूर्ण नहीं तो अधिकांश नष्ट हो गया? इन प्रश्नों का वही प्रमाण जो प्रत्यक्षमूलक है। आगमप्रामाण्य के इस सिद्धांत उत्तर सहज ही है। के अनुसार पूर्वोक्त आदेश आगमान्तर्गत नहीं हो सकते।
वेद की सुरक्षा में दोनों प्रकार की वंशपरंपराओं ने सहदिगंबरों ने तो अमुक समय के बाद तीर्थंकरप्रणीत आगम कार दिया है। जन्मवंश की अपेक्षा पिता को और उसने अपने का सर्वथा लोप ही माना इसलिए आदेशों को आगमान्तर्गत पुत्र को तथा विद्यावंश की अपेक्षा गुरु ने शिष्य को और उसने करने की उनकी आवश्यकता ही नहीं हुई किन्तु श्वेताम्बरों अपने शिष्य को वेद सिखाकर वेदपाठ की परंपरा अव्यवहित ने आगमों का संकलन करके यथाशक्य सुरक्षित रखने का गति से चाल रखी है किन्तु जैनागम की रक्षा में जन्मवंश को प्रयत्न किया तब प्रतीत होता है कि ऐसी बहुत-सी बातें उन्हें कोई स्थान नहीं। पिता अपने पुत्र को नहीं किन्तु अपने शिष्य मालूम हुई जो पूर्वाचार्यों से श्रुतिपरम्परा से आई हई तो थीं को ही पढ़ाता है । अतएव केवल विद्यावंश की अपेक्षा से ही किन्तु जिनका मूलाधार तीर्थंकरों के उपदेशों में नहीं था, जैनश्रुत की परम्परा को जीवित रखने का प्रयत्न किया गया ऐसी बातों को भी सुरक्षा की दृष्टि से आगम में स्थान दिया है। जैनश्रुत कीयही कमी अव्यवस्था में कारण हुई है। ब्राह्मणों गया और उन्हें आदेश और मुक्तक कह करके उनका अन्य को अपना सुशिक्षित पुत्र और वैसा ही सुशिक्षित ब्राह्मण प्रकार के आगम से पार्थक्य भी सूचित किया।
शिष्य प्राप्त होने में कोई कठिनाई नहीं किन्तु जैनथमण के
लिए अपना सुशिक्षित पुत्र जैनथ्रतका अधिकारी नहीं यदि वह (२) सुरक्षा में बाधाएँ
श्रमण नहीं, और अशिक्षितभी श्रमण, पुत्र न होने पर भी यदि __ ऋग्वेदादि वेदों की सुरक्षा भारतीयों का अद्भुत परा- शिष्य हो तो वही श्रुत का अधिकारी हो जाता है । वेद की क्रम है। आज भी भारतवर्ष में ऐसे सैकड़ों ब्राह्मण वेदपाठी सुरक्षा एक वर्ण-विशेष से हुई है जिसका स्वार्थ उसकी सुरक्षा मिलेंगे जो आदि से अंत तक वेदों का शुद्ध उच्चारण कर में ही था। जैनश्रुत की रक्षा वैसे किसी वर्ण-विशेष के अधीन सकते हैं। उनको वेद-पुस्तक की आवश्यकता नहीं। वेद के नहीं किन्तु चतुर्वर्ण में से कोई भी मनुष्य यदि जैनश्रमण हो अर्थ की परंपरा उनके पास नहीं किन्तु वेदपाठ की परंपरा जाता है तो वही जैनश्रुत का अधिकारी हो जाता है । वेद का तो अवश्य है।
अधिकारी ब्राह्मण अधिकार पाकर उससे बरी नहीं हो सकता जैनों ने भी अपने आगम-ग्रंथों को सुरक्षित रखने का अर्थात् उसके लिए जीवन की प्रथमावस्था में नियमतः वेदावैसा ही प्रबल प्रयत्न भूतकाल में किया है किन्तु जिस रूप ध्ययन आवश्यक था अन्यथा ब्राह्मण-समाज में उसका कोई में भगवान् के उपदेश को गणधरों ने ग्रथित किया था वह स्थान नहीं था। इसके विपरीत जैन-श्रमण को जैनश्रुत का
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