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किन्तु जैनतत्त्व को भी दार्शनिक ज्ञान के बल से सुनिश्चित है कि फिर उस विषय में दूसरा कुछ देखने की अपेक्षा नहीं रूप में स्थिर करने का प्रयत्न भी देखते हैं।
रहती। जैसे वाचस्पति मिश्र ने जो भी दर्शन लिया तन्मय हरिभद्र के बाद शीलांकसरि ने दशवीं शताब्दी में संस्कृत
होकर उसे लिखा, उसी प्रकार मलयगिरिने भी किया है। वे टीकाओं की रचना की। शीलांक के बाद प्रसिद्ध टीकाकार
आचार्य हेमचन्द्र के समकालीन थे । अतएव उन्हें बारहवीं शान्त्याचार्य हुए। उन्होंने उत्तराध्ययन की बृहत् टीका लिखी
लिनी शताब्दी का विद्वान् मानना चाहिए। है। इसके बाद प्रसिद्ध टीकाकार अभयदेव हुए, जिन्होंने नव संस्कृत-प्राकृत टीकाओं का परिमाण इतना बड़ा था अंगों पर संस्कृत में टीकाएँ रची। उनका जन्म वि०१०७२ और विषयों की चर्चा इतनी गहन-गहनतर हो गई थी कि में और स्वर्गवास विक्रम ११३४ में हुआ है। इन दोनों टीका- बाद में यह आवश्यक समझा गया कि आगमों की शब्दार्थ कारों ने पूर्व टीकाओं का पूरा उपयोग किया ही है और अपनी बतानेवाली संक्षिप्त टीकाएँ की जायं। समय की गति ने ओर से नई दार्शनिक चर्चा भी की है।
संस्कृत और प्राकृत भाषाओं को बोलचाल की भाषा से हटायहाँ पर ऐसे ही टीकाकार मलधारी हेमचन्द्र का भी कर मात्र साहित्यिक भाषा बना दिया था। तब तत्कालीन नाम उल्लेखनीय है। वे बारहवीं शताब्दी के विद्वान थे। अपभ्रश अर्थात् प्राचीन गुजराती भाषा में वालावबोधों की किन्तु आगमों की संस्कृत टीका करने वालों में सर्व श्रेष्ठ रचना हुई । इन्हें 'टबा' कहते हैं । ऐसे बालावबोधों की रचना स्थान तो मलयगिरि का ही है। प्रांजल भाषा में दार्शनिक करने वाले कई हुए हैं किन्तु १८वीं सदी में हुए लोंकागच्छ के चर्चा से प्रचर टीकाएँ यदि देखना हो तो मलयगिरि की धर्मसिंह मुनि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं क्योंकि इनकी टीकाएं देखनी चाहिए। उनकी टीका पढ़ने में शुद्ध दार्शनिक दृष्टि प्राचीन टीकाओं के अर्थ को छोड़ कर कहीं-कहीं स्वग्रंथ पढ़ने का आनंद आता है। जैनशास्त्र के कर्म, आचार, संप्रदाय संमत अर्थ करने की रही है। उनका संप्रदाय मूर्तिपूजा भूगोल, खगोल आदि सभी विषयों में उनकी कलम धारा- के विरोध में उत्थित हुआ था। प्रवाह से चलती है और विषय को इतना स्पष्ट करके रखती
पाद-टिप्पण
१. देखो समवायांग गत द्वादशांग-परिचय । नन्दी सूत्र-५७ २. बृहत्कल्पभाष्य २०२-२०३ ३. आचारांग-अ०४ सू० १२६ । सूत्रकृतांग २-१-१५ । २-२-४१ ४. "तवनियमनाणरुक्खं आरूढो केवली अभियनाणी। तो मुयइ नाणवुठ्ठि भवियजणविबोहणट्ठाए ॥७६।। तं बुद्धिमएण पडेण गणहरा गिहिउं निरवसेसं । तित्थयरभ सियाई गंथं ति तओ पवणयट्ठा 100"-आवश्यकनियुक्ति ५. अन्ययोगव्यवच्छेदिका-५। ६. देखो नंदीसूत्र, ४०, ४१ । बृहत० गा०८८ । ७. आप्तोपदेश: शब्द:-न्यायसूत्र १.१,७। तत्वार्थभाष्य १, २० । ८. नंदीसूत्र ४०। ६. अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गन्थन्ति गणहरा निउणं ।
सासणस्स हियठाए तो सुत्तं पवत्तेइ ॥१६२॥ आव०नि०।
१०. नन्दीसूत्र-४० ११. "सुत्तं गणहरकथिदं तहेव पत्तेयबुद्धकथिदं च ।
सुदकेवलिणा कथिदं अभिण्णदसपूव्वकथिदं च॥"-मूलाचार-५-८०।
जयधवला पृ०१५३ । ओघनियुक्तिटीका पृ० ३। १२ विशेषावश्यकभाष्य गा०५५० । बृहत्कल्पभाष्य गा०१४४ ।
तत्त्वार्थभा०१-२० । सर्वार्थसिद्वि १-२०॥ १३. जैनागम के पाठ्यक्रम में वारहवें अंग के अंशभूत चतुर्दश पूर्व को
उसकी गहनताके कारण अन्तिम स्थान प्राप्त है अतएव चतुर्दशपूर्वी का मतलब है संपूर्णश्रुतधर जैनानुश्रुति के अनुसार यह कि भद्रबाहु अन्तिम चतुर्दशधर थे। उनके पास स्थूलभद्र ने चौदहों पूर्वो का पठन किया किन्तु भद्र वाहु की आज्ञा के अनुसार वे दशपर्व ही अन्य को पढ़ा सकते थे। अतएव उनके बाद दशपूर्वी हुए। तित्थोगालीय ७४२ । आवश्यक चूणि भा० २ पृ० १८७।
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