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उपदेश दिया गया है जैसे ज्ञातृधर्म-कथा आदि । विपाक में (E) आगमों की टीकाएँ५२ शुभ और अशुभ कर्म का विपाक कथाओं द्वारा बताया गया है। भगवती सूत्र में भगवान महावीर के साथ हुए संवादों का इन आगमों की टीकाएँ प्राकृत और संस्कृत में हई हैं। संग्रह है । बौद्ध सुत्तपिटक की तरह नाना विषय के प्रश्नोत्तर प्राकृत टीकाएँ नियुक्ति, भाष्य और चूर्णिके नाम से लिखी भगवती में संग्रहीत हैं।
गई हैं। नियुक्ति और भाष्य पद्यमय हैं और चूणि गद्य में । दर्शन के साथ सम्बन्ध रखने वालों में खासकर सूत्रकृत, उपलब्ध निर्यक्तियाँ भद्रबाहु द्वितीय की रचना हैं । उनका प्रज्ञापना, राजप्रश्नीय, भगवती, नन्दी, स्थानांग, समवाय । समय विक्रम पाँचवी या छठी शताब्दी है। नियुक्तियोंमें और अनुयोग सूत्र मुख्य हैं।
भद्रबाहुने कई प्रसंगमें दार्शनिक चर्चाएँ बड़े ढंगसे की हैं। सूत्रकृत में तत्कालीन मन्तव्यों का निराकरण करके खासकर बौद्धों तथा चार्वाकों के विषय में नियुक्ति में जहाँ स्वमत की प्ररूपणा की गई है। भूतवादियों का निराकरण कहीं भी अवसर मिला, उन्होंने अवश्य लिखा है। आत्मा का करके आत्मा का पृथक् अस्तित्व बतलाया है । ब्रह्मवाद के लस्तित्व उन्होंने सिद्ध किया है। ज्ञान का सूक्ष्म निरूपण स्थान में नानात्मवाद स्थिर किया है। जीव और शरीर को तथा अहिंसा का तात्त्विक विवेचन किया है । शब्द के अर्थ पृथक बताया है। कर्म है और उसके फल की सत्ता स्थिर की करने की पद्धति के तो वे निष्णात थे ही। प्रमाण, नय और है। जगदुत्पत्ति के विषय में नाना वादों का निराकरण करके निक्षेप के विषय में लिखकर भद्रबाहु ने जैन दर्शन की भूमिका विश्व को किसी ईश्वर या ऐसी ही किसी व्यक्ति ने नहीं पक्की की है। बनाया, वह तो अनादि अनन्त है, इस बात की स्थापना की किसी भी विषय की चर्चा का अपने समय तक का पूर्णगई है। तत्कालीन क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और रूप देखना हो तो भाष्य देखना चाहिए । भाष्यकारों में अज्ञानवाद का निराकरण करके सुसंस्कृत क्रियावाद की प्रसिद्ध संघदास गणि और जिनभद्र हैं। इनका समय सातवीं स्थापना की गई है।
शताब्दी है। जिनभद्र ने विशेषावश्यक भाष्य में आगमिक प्रज्ञापना में जीव के विविध भावों को लेकर विस्तार से पदार्थों का तर्कसंगत विवेचन किया है। प्रमाण, नय और विचार किया गया है।
निक्षेप की संपूर्ण चर्चा तो उन्होंने की ही है। इसके अलावा राजप्रश्नीय में पार्श्वनाथ की परम्परा में हए केशीश्रमण तत्त्वों का भी तात्त्विक युक्तिसंगत विवेचन उन्होंने किया है। ने श्राबस्ती के राजा पएसी (प्रदेशी) के प्रश्नों के उत्तर में ऐसा कहा जा सकता है कि दार्शनिक चर्चा का कोई ऐसा विषय नास्तिकवाद का निराकरण करके आत्मा और तत्सम्बन्धी नहीं कि जिस पर जिनभद्र ने अपनी कलम न चलाई हो। अनेक बातों को दृष्टान्त और युक्तिपूर्वक समझाया है। बृहत्कल्प भाष्य में संघदासगणि ने साधुओं के आहार-विहारादि
भगवती सूत्र के अनेक प्रश्नोंत्तरों में नय, प्रमाण आदि नियमों के उत्सर्ग-अपवाद मार्ग की चर्चा दार्शनिक ढंग से की अनेक दार्शनिक विचार बिखरे पड़े हैं।
है। इन्होंने भी प्रसंग से ज्ञान, प्रमाण, नय और निक्षेप के नन्दीसूत्र जैन दृष्टिसे ज्ञान के स्वरूप और भेदों का विषय में लिखा है। विश्लेषण करनेवाली एक सुन्दर कृति है।
करीब सातवीं-आठवीं शताब्दी की चूर्णियाँ मिलती हैं। स्थानांग और समवायांग की रचना बौद्धों के अंगुत्तर- चणिकारों में जिनदास महत्तर प्रसिद्ध हैं। इन्होंने नंदी की निकाय के ढंग की है। इन दोनों में भी आत्मा, पुदगल, ज्ञान, चणि के अलावा और भी चूर्णियाँ लिखीं हैं । चूणियों में भाष्य नय और प्रमाण आदि विषयों की चर्चा की गई है। भगवान के ही विषय को संक्षेप में गद्य में लिखा गया है। जातक के महावोर के शासन में हुए निह्नवों का वर्णन स्थानांग में है। ढंग की प्राकृत-कथाएँ इनकी विशेषता है। ऐसे सात व्यक्ति बताये गये हैं जिन्होंने कालचक्र से भगवान जैन आगमों की सबसे प्राचीन संस्कृत टीका आचार्य महावीर के सिद्धांतों की भिन्न-भिन्न बात को लेकर अपना हरिभद्र ने की है। उनका समय वि०७५७ से ८५७ के बीच मतभेद प्रकट किया है । वे ही निह्नव कहे गये हैं।
का है। हरिभद्र ने प्राकृत चूर्णियों का प्रायः संस्कृत में अनुवाद अनुयोग में शब्दार्थ करने की प्रक्रिया का वर्णन मुख्य है ही किया है। यत्र-तत्र अपने दार्शनिक ज्ञानका उपयोग करना किंतु प्रसंग से उसमें प्रमाण और नय का तथा तत्त्वों का भी उन्होंने उचित समझा है । इसलिए हम उनकी टीकाओं में निरूपण भी अच्छे ढंग से हुआ है।
सभी दर्शनों की पूर्वपक्ष रूप से चर्चा पाते हैं । इतना ही नहीं
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