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स्थविर माने जाते हैं। ये सभी किसी एक काल की रचना में कोई बाधक नहीं। आवश्यक सूत्र अंगबाह्य होने से गणधर नहीं है।
कृत नहीं हो सकता किन्तु वह समकालीन किसी स्थविर की चंद्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति और जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति इन तीन रचना होना चाहिए । साधुओं के आचार में नित्योपयोग में उपांगों का समावेश दिगम्बरों ने दृष्टिवाद के प्रथम भेद परि- आनेवाला यह सूत्र है अतएव इसकी रचना दशवकालिक से कर्म में किया है। नन्दी-सूत्र में भी उनका नामोल्लेख है भी पहले मानना चाहिए। अंगों में जहाँ पठन का जिक्र अतएव ये ग्रंथ श्वेताम्बर-दिगम्बर के भेद से प्राचीन होने आता है वहाँ 'सामाइयाणि एकादसंगाणि' पढ़ने का जिक्र चाहिए। अतएव इनका समय विक्रम संवत् के प्रारम्भ से आता है। इससे प्रतीत होता है कि साधुओं को सर्वप्रथम इधर नहीं आ सकता। शेष उपांगों के विषय में भी।
आवश्यक सूत्र पढ़ाया जाता था, इससे भी यही मानना पड़ता सामान्यतः यही कहा जा सकता है। उपलब्ध चंद्रप्रज्ञप्ति में है कि इसकी रचना अंगकालीन ही होना चाहिए । अर्थात् और सूर्यप्रज्ञप्ति में कोई खास भेद नहीं है । अतएव संभव है यही मानना उचित है कि इसकी रचना विक्रमपूर्व ४७० के कि मूल चन्द्रप्रज्ञप्ति विच्छिन्न हो गया हो।
पहले हो चुकी थी । पिण्डनियुक्ति यह दशवैकालिक की प्रकीर्णकों की रचना के विषय में यही कहा जा सकता है नियुक्ति का अंश है अतएव वह भद्रबाहु द्वितीय की रचना कि उसकी रचना समय-समय पर हुई है । और अंतिम मर्यादा होने के कारण विक्रम पांचवी छठी शताब्दी की कृति होना वालभी वाचना तक खींची जा सकती है।
चाहिए। छेदसूत्र में दशाश्रुत, बृहत्कल्प और व्यवहार सूत्रों की चूलिका सूत्रों में नन्दी सूत्र की रचना तो देबधि गणि की रचना भद्रबाह ने की है अतएव उनका समय वीरनिर्वाण है अतएव उसका समय विक्रम की छठी शताब्दी का प्रारम्भ संवत १७० से इधर नहीं हो सकता अर्थात् विक्रम संवत् होना चाहिए। और अनुयोग द्वार सूत्र के कर्ता कौन थे यह ३०० के पहले वे बने थे। इनके ऊपर नियुक्ति भाष्यादि __ कहना कठिन है। किंतु वह आवश्यक सूत्र के बाद बना होगा टीकाएँ बनी हैं अतएव इन ग्रंथों में परिवर्तन की संभावना क्योंकि उसमें उसी सूत्र का अनुयोग किया गया है। संभव है नहीं है। निशीथसूत्र तो आचारांग की चूलिका है अतएव वह आर्यरक्षित के बाद बना हो या उन्हीं ने बनाया हो। वह भी प्राचीन है। किन्तु जीतकल्प तो आचार्य जिनभद्र की उसकी रचना का काल विक्रमपूर्व तो अवश्य है। उसमें यह रचना है। जब पञ्चकल्प नष्ट हो गया तब जीतकल्प को छेद संभव है कि परिवर्धन यत्र तत हआ हो।। में स्थान मिला होगा ऐसा कहने की अपेक्षा यही कहना ठीक आगमों के समय के विषय में यहाँ जो चर्चा की है वह होगा कि क्योंकि वह कल्प-व्यवहार और निशीथ के सारसंग्रह- अन्तिम नहीं है। जब प्रत्येक आगम का अन्तर्बाह्य निरीक्षण रूप है अतएव उसे छेद में स्थान मिला है। महानिशीथ सूत्र जो करके इस चर्चा को परिपूर्ण किया जायेगा तब उनका समयउपलब्ध है वह आचार्य हरिभद्र ने उस सूत्र को नष्ट होते जो निर्णय ठीक हो सकेगा। यहाँ तो सामान्य निरूपण करने का बचाया वही है । उसकी वर्तमान संकलना का श्रेय आचार्य प्रयत्न है। हरिभद्र को है । अतएव उसका समय भी वही मानना चाहिए
(७) आगमों का विषय जो हरिभद्र का है । वस्तु तो पुरानी है ही।
मलसूत्रों में दशवकालिक सूत्र आचार्य शय्यम्भव की जैनागमों में से कुछ तो ऐसे हैं जो जैन-आचार से संबंध कृति है। उनको युगप्रधान-पद वीर निर्वाण सं०७५ में मिला रखते हैं जैसे आचारांग, दशवैकालिक आदि । कुछ उपऔर वे उस पद पर मृत्यु तक अर्थात् वीर निर्वाण १८ तक देशात्मक हैं जैसे उत्तराध्ययन, प्रकीर्णक आदि । कुछ बने रहें । अर्थात् दशवकालिक की रचना विक्रम पूर्व ३६५ तत्कालीन भूगोल और खगोल आदि सम्बन्धी मान्यताओं का और ३७२ के बीच हुई है। दशवकालिक सूत्र के विषय में वर्णन करते हैं जैसे जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति आदि । हम इतना कह सकते हैं कि तद्गत चूलिकाएँ सम्भव है बाद छेदसूत्रों का प्रधान विषय जैनसाधुओं के आचार सम्बन्धी में जोड़ी गई हों। इसके अलावा कोई परिवर्तन या परि- औत्सर्गिक और आपवादिक नियमों का वर्णन व प्रायश्चित्तों वर्धन हआ हो ऐसा सम्भव नहीं। उत्तराध्ययन किसी एक का विधान करना है। कुछ ग्रंथ ऐसे हैं जिनमें जिन-मार्ग के आचार्य की कृति नहीं और न वह एक काल की कृति है। अनुयायियों का चरित्र दिया गया है जैसे उपासकदशांग, फिर भी उसे विक्रम पूर्व दूसरी या तीसरी शताब्दी का मानने अनुत्तरोपपातिक दशा आदि । कुछ में कल्पित कथाएँ देकर
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