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चाहिए। स्वयं भगवान महावीर का जीवन इस बात का साक्षी है कि वे वीतरागता और कैवल्य की प्राप्ति के पश्चात् जीवन पर्यन्त लोकमंगल के लिए कार्य करते रहे हैं। प्रश्नव्याकरण सूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि तीर्थकरों का यह सुकथित प्रवचन संसार के सभी प्राणियों की करुणा के लिए ही है'। जैन धर्म में जो सामाजिक जीवन या संघ जीवन के संदर्भ उपस्थित हैं वे यद्यपि बाहरसे देखने पर निषेधात्मक लगते हैं इसी आधार पर कभी-कभी यह मान लिया जाता है कि जैन धर्म एक सामाजिक निरपेक्ष धर्म है। जैनों ने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की व्याख्या मुख्यरूप से निषेधात्मक दृष्टि के आधार पर की है, किंतु उनको निषेधात्मक और समाज-निरपेक्ष समझ लेना भ्रांति पूर्ण ही है। प्रश्नव्याकरण सूत्र में ही स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि ये पांच महाव्रत सर्वथा लोकहित के लिए ही हैं । जैन धर्म में जो व्रत व्यवस्था है सामाजिक संबंधों की शुद्धि का प्रयास है। हिंसा, असत्यवचन, चौर्यकर्म, व्यभिचार और संग्रह (परिग्रह) हमारे सामाजिक जीवन को दूषित बनाने वाले तत्व है। हिंसा सामाजिक अस्तित्व की योतक है, तो असत्य पारस्परिक विश्वास को भंग करता है। चोरी का तात्पर्य तो दूसरों के हितों और आवश्यकताओं का अपहरण और शोषण ही है। व्यभिचार जहाँ एक और पारिवारिक जीवन को भंग करता है वही दूसरी ओर वह दूसरे को अपनी वासनापूर्ति का साधन मानता है और इस प्रकार से वह भी एक प्रकार का शोषण ही है। इसी प्रकार परिग्रह भी दूसरों को उनके जीवन की आवश्यकताओं और उपभोगों से वंचित करता है, समाज में वर्ग बनाता है और सामाजिक शान्ति को भंग करता है । संग्रह के आधार पर जहाँ एक वर्ग सुख, सुविधा और ऐश्वर्य की गोद में पलता है वहीं दूसरा जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी तरसता है । फलतः सामाजिक जीवन में वर्ग-विद्वेष और आकोण उत्पन्न होते हैं और इस प्रकार सामाजिक शान्ति और सामाजिक समत्व भंग हो जाते हैं । सूत्रकृतांग में कहा गया है कि यह संग्रह की वृत्ति ही हिंसा, असत्य, चोरी कर्म और व्यभिचार को जन्म देती है और इस प्रकार से वह सम्पूर्ण सामाजिक जीवन को विषाक्त बनाती है। यदि हम इस संदर्भ में सोचें तो यह स्पष्ट लगेगा कि जैन धर्म में अहिंसा, सत्य, आचार्य,
१. सब्बच जगजीव- रक्खण दयट्ठाए पावयणं भगवया सुकहियं प्रश्न व्याकरण २/१/२१
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ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की जो अवधारणायें हैं, वे मूलतः सामाजिक जीवन के लिए ही है।
जैन साधना पद्धति की मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ की भावनाओं के आधार पर भी उसके सामाजिकसंदर्भ को स्पष्ट किया जा सकता है। आचार्य अमितगति कहते हैं—
सवेषु मैत्री गुणीषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा-परत्वं मध्यस्थभावं विपरीत वृत्तो सदा ममात्मा विदधातु देव ।
-सामयिक पाठ
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"हे प्रभु । हमारे जीवन में प्राणियों के प्रति मित्रता, गुणजीनों के प्रति प्रमोद दुखियों के प्रति करुणा तथा दुष्ट जनों के प्रति माध्यस्य भाव विद्यमान रहे।" इस प्रकार इन चारों भावनाओं के माध्यम से समाज के विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों से हमारे सम्बन्ध किस प्रकार के हों इसे स्पष्ट किया गया है। समाज में दूसरे लोगों के साथ हम किस प्रकार जीवन जिये यह हमारी सामाजिकता के लिए अति आवश्यक है। उसने संघीय जीवन पर बल दिया है, वह संधीय या | सामूहिक साधना को श्रेष्ठ माना है । जो व्यक्ति संघ में विघटन करता है उसे हत्यारे और व्यभिचारी से भी अधिक पापी माना गया है और उसके लिए छेदमूत्रों में कठोरतम दण्ड की व्यवस्था की गई है। स्वानांग सूत्र में कुल धर्म, ग्रामधर्म, नगर धर्म राष्ट्रीय धर्म, गणधर्म आदि का निर्देश किया गया है, जो उसकी सामाजिक दृष्टि को स्पष्ट करते हैं । जैन धर्म ने सदैव ही व्यक्ति को समाज जीवन से जोड़ने का ही प्रयास किया है। जैन धर्म का हृदय रिक्त नहीं है । तीर्थकर की वाणी का प्रस्फुटन ही लोक की करुणा के लिए हुआ है। आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं "सर्वापदामन्तकर" निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवेव" -- हे प्रभु! आपका तीर्थ ( अनुशासन) सभी दुखों का अन्त करने वाला और सभी का कल्याण या सर्वोदय करने वाला है । उसमें प्रेम और करुणा की अटूट धारा बह रही है। स्थानांग में प्रस्तुत कुल धर्म, ग्रामधर्म, नगर धर्म, एवं राष्ट्र धर्म भी जैन धर्म की समाज सापेक्षता को स्पष्ट कर देते हैं। पारिवारिक और सामाजिक जीवन में हमारे पारस्परिक सम्बन्धों को सुमधुर एवं समायोजन पूर्ण बनाने तथा सामाजिक टकराव के कारणों का
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२. इमाणि सुव्वय महव्वयाई - सव्वयाई - प्रश्नव्याकरण २।१२।१ ३. स्थानांग, स्थान १०.७६०
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