Book Title: Shantilal Vanmali Sheth Amrut Mahotsav Smarika
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Sohanlal Jain Vidya Prasarak Samiti

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Page 101
________________ निःस्वार्थ और निष्काम रूप से लोकमंगल का साधक होता है। संन्यास शब्द सम पूर्वक व्यास शब्द से बना है, न्यासशब्द का अर्थ देखरेख करना भी है। संन्यासी वह व्यक्ति है जो सम्प रूप से एक न्यासी (ट्रस्टी) की भूमिका अदा करता है और न्यासी वह है जो ममत्व भाव और स्वामित्व का त्याग करके किसी ट्रस्ट ( सम्प्रदा) का रक्षण एवं विकास करता है । संन्यासी सच्चे अर्थों में एक ट्रस्टी है । जो ट्रस्टी या ट्रस्ट का उपयोग अपने हित में करता है, अपने को उसका स्वामी समझता है तो वह सम्यक् ट्रस्टी नहीं हो सकता है। इस प्रकार वह यदि ट्रस्ट के रक्षण एवं विकास का प्रयत्न न करे तो भी सच्चे अर्थ में ट्रस्टी नहीं है। इसी प्रकार यदि संन्यासी लोकेषणा से युक्त है, ममत्व-बुद्धि या स्वार्थ- बुद्धि से काम करता है तो वह संन्यासी नहीं है और यदि लोक की उपेक्षा करता है, लोक मंगल के लिए प्रयास नहीं करता है तो भी वह संन्यासी नहीं है । उसके जीवन का मिशन तो "सर्वभूतहिते रतः " का है । संन्यास में राम से ऊपर उठना आवश्यक है। किन्तु इसका तात्पर्य समाज की उपेक्षा नहीं है । संन्यास की भूमिका में स्वत्व एवं ममत्व के लिए निश्चय ही कोई स्थान नहीं है। फिर भी वह पलायन नहीं, समर्पण है। ममत्व का परित्याग कर्तव्य की उपेक्षा नहीं है, अपितु कर्तव्य का सही बोध है । संन्यासी उस भूमिका पर खड़ा होता है, जहां व्यक्ति अपने में समष्टि को और समष्टि में अपने को देखता है उसकी चेतना अपने और पराये के भेद से ऊपर उठ जाती है । यह अपने और पराये के विचार से ऊपर हो जाना समाज विमु खता नहीं है, अपितु यह तो उसके हृदय की व्यापकता है, महानता है। इसीलिए भारतीय चिन्तकों ने कहा है अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।। संन्यास की भूमिका न तो आसक्ति की भूमिका है और न उपेक्षा की । उसकी वास्तविक स्थिति 'धाय' (नर्स) के समान ममत्वरहित कर्तव्य भाव की होती है । जैन धर्म में कहा भी गया है। :– समदृष्टि जीवड़ा करे कुटुम्ब प्रतिपाल । अन्तर सूं न्यारा रहे जूँ धाय खिलावे बाल || वस्तुतः निर्ममत्व एवं निस्वार्थ भाव से तथा वैयक्तिकता और स्वार्थ से ऊपर उठकर कर्तव्य का पालन ही संन्यास की सच्ची भूमिका है। संन्यासी वह व्यक्ति है जो लोकमंगल के लिए अपने व्यक्तित्व एवं शरीर को समर्पित कर देता है। Jain Education International वह जो कुछ भी त्याग करता है वह समाज के लिए एक आदर्श बनता है। समाज में नैतिक चेतना को जागृत करना तथा सामाजिक जीवन में आने वाली दुःप्रवृत्तियों से व्यक्ति को बचाकर लोक मंगल के लिए उसे दिशा-निर्देश देना संन्यासी का सर्वोपरि कर्तव्य माना जाता है। अतः हम कह सकते हैं कि भारतीय दर्शन में संन्यास की जो भूमिका प्रस्तुत की गई है वह सामाजिकता की विरोधी नहीं है। संन्यासी क्षुद्र स्वार्थ से ऊपर उठकर खड़ा हुआ व्यक्ति होता है, जो आदर्श समाजरचना के लिए प्रयत्नशील रहता है । अतः संन्यासी को न तो निष्क्रिय होना चाहिए और न हि समाज विमुख । वस्तुतः निष्काम भाव से संघ की या समाज की सेवा को ही उसे अपनी साधना का अंग बनाना चाहिए। गृहस्थ धर्म और सेवा न केवल संन्यासी अपितु गृहस्थ की साधना में भी सेवा " को अनिवार्य रूप से जुड़ना चाहिए। दान और सेवा गृहस्थ के आवश्यक कर्तव्य है। उसका अतिथि संविभागवत सेवा संबंधी उसके दायित्व को स्पष्ट करता है । इसमें भी दान के स्थान पर 'संविभाग' शब्द का प्रयोग अत्यन्त महत्वपूर्ण है, वह यह बताता है कि दूसरे के लिए हम जो कुछ करते हैं, वह हमारा उसके प्रति एहसान नहीं है, अपितु उसका ही अधिकार है, जो हम उसे देते हैं। समाज से जो हमें मिला है, वही हम सेवा के माध्यम से उसे लौटाते हैं। व्यक्ति को शरीर, सम्पत्ति, ज्ञान और संस्कार जो भी मिले हैं, वे सब समाज और सामाजिक व्यवस्था के परिणाम स्वरूप मिले हैं। अतः समाज की सेवा उसका कर्तव्य है। धर्म साधना का अर्थ है निष्काम भाव से कर्त्तव्यों का निर्वाह करना । इस प्रकार साधना और सेवा न तो विरोधी हैं और न भिन्न ही । वस्तुतः सेवा ही साधना है । अहिंसा का हृदय रिक्त नहीं है कुछ लोग अहिंसा को मात्र निषेधात्मक आदेश मान लेते हैं। उनके लिए अहिंसा का अर्थ होता है 'किसी को नहीं मारना' किन्तु अहिंसा चाहे शाब्दिक रूप में निषेधात्मक हो किन्तु उसकी आत्मा निषेधमूलक नहीं है, उसका हृदय रिक्त नहीं है । उसमें करुणा और मैत्री की सहस्रधारा प्रवाहित हो रही है। वह व्यक्ति जो दूसरों की पीड़ा का मूक दर्शक बना रहता है वह सच्चे अर्थ में अहिंसक है ही नहीं। जब हृदय में मंत्री और करुणा के भाव उमड़ रहे हों, जब संसार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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