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विश्लेषण कर उन्हें दूर करने के लिए जैनधर्म का योगदान करना, यही धर्म की मूल आत्मा हो सकती है। सन्त तुलसी महत्वपूर्ण है।
दास ने भी कहा हैवस्तुतः जैन धर्म ने आचार शुद्धि पर बल देखकर व्यक्ति पर हित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई। सुधार के माध्यम से समाज सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। अहिंसा, जिसे जैन परंपरा में धर्म सर्वस्व कहा गया है उसने व्यक्ति को समाज की इकाई माना और इसलिए प्रथमतः कि चेतना का विकास तभी संभव है, जब मनुष्य में 'आत्मवत् व्यक्ति चरित्र के निर्माण पर बल दिया। वस्तुतः महावीर के सर्वभूतेषु' की भावना का विकास होगा। जब हम दूसरों युगों पूर्व समाज रचना का कार्य ऋषभके द्वारा पूरा हो चुका के दर्द और पीड़ा को अपना दर्द समझेंगे तभी हम लोक-मंगल था अतः महावीर ने मुख्य रूप से सामाजिक जीवन की की दिशा में अथवा परपीड़ा के निवारण की दिशा में आगे बराइयों को समाप्त करने का प्रयास किया और सामाजिक बढ़ सकेंगे । पर पीड़ा की तरह आत्मानुभूति भी वस्तुनिष्ठ न सम्बन्धों की शुद्धि पर बल दिया ।
होकर आत्मनिष्ठ होनी चाहिए। हम दूसरों की पीड़ा के मूकसामाजिकता मनुष्य का एक बिशिष्ट गुण है। वैसे तो दर्शक न रहें। ऐसा धर्म और ऐसी अहिंसा, जो दूसरों की समह-जीवन पशुओं में भी पाया जाता है किन्तु मनुष्य की पीड़ा की मूक-दर्शक बनी रहती है वस्तुतः वह न धर्म है और यह समूह जीवन शैली उनसे कुछ विशिष्ट है। पशुओं में न अहिंसा । अहिंसा केवल दूसरों को पीड़ा न देने तक पारस्परिक सम्बन्ध तो होते हैं किन्तु उन सम्बन्धों की चेतना सीमित नहीं है, उसमें लोक-मंगल और लोक-कल्याण का नहीं होती है। मनुष्य जीवन की विशेषता यह है कि उसे उन अजस्त्र स्रोत भी प्रवाहित है। जब लोक पीड़ा अपनी पोड़ा बन पारस्परिक संबंधों की चेतना होती है और उसी चेतना के जाती है तभी धार्मिकता का स्रोत अन्दर से बाहर प्रवाहित कारण उसमें एक दूसरे से प्रति दायित्व-बोध और कर्तव्य- होता है। तीर्थंकरों, अर्हतों और बुद्धों ने जब लोकपीडा की बोध होता है। पशुओं में भी पारस्परिक हित साधना की यह अनुभूति आत्मनिष्ठ रूप में की, तो वे लोककल्याण के प्रवत्ति तो होती है किन्तु वह एक अन्धमूल प्रवृत्ति है। पशु लिए सक्रिय बन गये। जब दूसरों की पीड़ा और वेदना हमें विवश होता है, उस अन्ध प्रवृत्ति के अनुसार ही आचरण अपनी लगती है, तब लोक कल्याण भी दूसरों के लिए न करने में । उसके सामने यह विकल्प नहीं होता है कि वह कैसा होकर अपने ही लिए हो जाता है। उर्दूशायर अमीर ने कहा आचरण करे या नहीं करे । किन्तु इस सम्बन्ध में मानवीय हैचेतना स्वतंत्र होती है उसमें अपने दायित्व-बोध की चेतना खंजर चले किसी पै, तड़फते हैं हम अमीर । होती है। किसी उर्दू शायर ने कहा भी है
सारे जहां का दर्द, हमारे जिगर में हैं। वह आदमी ही क्या है, जो दर्द आशना न हो।
अब सारे जहां का दर्द किसी के हृदय में समा जाता है पत्थर से कम है, दिल शरर गर निहा नहीं ।।
तो वह लोक कल्याण के मंगलमय मार्ग पर चल पड़ता है और
तीर्थंकर बन जाता है। उसका यह चलना मात्र बाहरी नहीं जैसाकि हम पूर्व में ही संकेत कर चके हैं कि जैनाचार्य
होता है। उसके सारे व्यवहार में अन्तश्चेतना काम करती है उमास्वाति ने भी केवल मनुष्यका अपितु समस्त जीवन का
और यही अन्तश्चेतना धार्मिकता का मूल उत्स (Essence) लक्षण 'पारस्परिक हित साधन' को माना है। दूसरे प्राणियों का
है। इसे ही दायित्व-बोध की सामाजिक चेतना कहा जाता हित साधन व्यक्ति का धर्म है। धार्मिक होने का एक अर्थ यह
है। जब यह जागृत होती है तो मनुष्य में धार्मिकता प्रकट है कि हम एक दूसरे के कितने सहयोगी बने हैं, दूसरे के दुख
होती है। आपको यह ज्ञात होना चाहिए कि तीर्थकर नामऔर पीड़ा को अपनी पीड़ा समझें और उसके निराकरण का
कर्म का उपार्जन वही साधक करता है जो धर्म-संघ की सेवा प्रयत्न करें। यही धर्म है। धर्म की लोक कल्याणकारी चेतना
में अपने को समर्पित कर देता है। तीर्थंकर नाम-कर्म उपाजित का प्रस्फुटन लोक की पीड़ा निवारण के लिए ही हआ है
करने के लिए जिन बीस बोलों की साधना करनी होती है, और यही धर्म का सार तत्व है। कहा भी है
उनके विश्लेषण से यह लक्ष्य स्पष्ट हो जाता है। यही है इबादत, यही है दीनों इमां
दूसरों के प्रति आत्मीयता के भाव का जागृत होना ही कि काम आये दुनिया में, इंसां के इंसां।
धार्मिक बनने का सबसे पहला उपक्रम है। दूसरों की पीड़ा को समझकर उसके निवारण का प्रयत्न यदि हमारे जीवन में दूसरों की पीड़ा, दूसरों का दर्द
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