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स्मारिका
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सन्निष्ठ समाजसेवी शान्तिलाल वनमाली शेठ अमृत महोत्सव
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सन्निष्ठ समाजसेवी
श्री शान्तिलाल वनमाली शेठ अमृत महोत्सव
समारोह सफलता एवं भव्यतापूर्वक संपन्न
राजधानी स्थित श्री दिल्ली गुजराती समाज के शाह सभागार में प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक, समाजसेवी एवं साहित्यकार श्री शान्तिलाल वनमाली शेठ का ७६ वाँ जन्मदिन अमृत महोत्सव के रूप में देश भर के पचास से अधिक साँस्कृतिक एवं सामाजिक संगठनों की ओर से आयोजित किया गया जिसमें उन्हें एक लाख रुपये की 'अमृत-निधि' समर्पित की गई जिसे उन्होंने पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान को 'सर्वोपयोगी सन्मति साहित्य के प्रकाशन' के लिये प्रत्यर्पित कर दी । प्रख्यात जैन विद्वान् प्रोफेसर दलसुखभाई मालवणिया एवं डा. सागरमल जैन द्वारा सम्पादित ' स्मारिका ग्रन्थ' भी इस अवसर पर साहित्यप्रेमी सेठ श्री प्रेमचन्द जैन द्वारा उन्हें भेंट किया गया जिसमें श्री शेठ के व्यक्तित्व, कृतित्व, संस्मरण एवं मित्रों, प्रशंसकों के उद्गार के अतिरिक्त जैन संस्कृति, धर्म, दर्शन एवं साहित्य पर यथेष्ट सामग्री समाहित है । श्री शान्तिलाल वनमाली शेठ अमृत महोत्सव समिति' के महामंत्री श्री भूपेन्द्र नाथ जैन एवं संयोजक श्री सतीश कुमार जैन एवं श्री इन्द्रचन्द्र जैन कर्णावट थे। सभी संगठनों के प्रतिनिधियों न माल्यार्पण द्वारा श्री शेठ का हार्दिक अभिनन्दन किया ।
समारोह के अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलाधिपति डाक्टर दौलतसिंह कोठारी ने मानव सेवा को शिक्षापद्धति में सम्मिलित करने की आवश्यकता पर बल देते हुए आशा व्यक्त की कि 'आने वाला युग विज्ञान और अहिंसा का युग होगा तथा श्री शान्तिभाई जैसे निःस्पृह मानवसेवी उस युग के पुरोधा और उनके अनुयायी पुरस्कर्ता होंगे ।' डा. कोठारी ने विशेष रूप से अनुरोध किया कि अभिनन्दन अथवा अन्य जन आयोजनों में सबकी ओर से केवल एक माला पहनाने की शुरूआत की जाय क्योंकि बड़ी संख्या में माला पहनाने में बहुसंख्यक फूलों की हिंसा होती है जो अहिंसक जैन समाज की गरिमा के अनुकूल नहीं है ।
अपनी अस्वस्थता के बावजूद हिन्दी के वरिष्ठतम साहित्यकार श्री जैनेन्द्रकुमारजी श्री शान्तिभाई को आर्शीर्वाद देने समारोह में आये जिसके लिये सबकी ओर से डॉ० कोठारी ने आभार व्यक्त किया ।
अमृत महोत्सव का उद्घाटन दिल्ली गुजराती समाज की अध्यक्षा श्रीमती विद्याबहिन शाह ने किया । श्रीमती शाह ने अपने उद्घाटन भाषण में कहा कि 'किसी देश की महानता उसके संसाधनों पर नहीं बल्कि उसकी मिट्टी में जन्मे निष्ठावान् महापुरुषों के कृतित्व पर निर्भर करती है और इसमें सन्देह नहीं कि शान्तिभाई न केवल गुजरात के, वरन् भारत के अनमोल रत्न हैं ।'
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान के निदेशक डॉ. सागरमल जैन ने श्री शेठ के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए उन्हें 'युगान्तरकारी प्रेरणास्तम्भ और अपने भाग्य के स्वयं निर्माता' की संज्ञा दी ।
सुप्रसिद्ध तत्वचितक प्रो० दलसुखभाई ने श्री शान्तिभाई को अपने अभिन्न- हृदय सन्मित्र बतलाकर आत्म-प्रशसा के भय से सिर्फ इतना ही कहा कि - 'सौजन्यमूर्ति मेरे सन्मित्र श्री शान्तिभाई सरस्वती, समन्वय और सेवा के संगमतीर्थ हैं।' मैं उनका हार्दिक अभिनंदन करता हूं ।
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सन्निष्ठ समाजसेवी श्री शान्तिलाल वनमाली शेठ अमृत महोत्सव
ता० २४-५-८७ रविवार प्रातः १० बजे स्थान : शाह सभागार, गुजराती-समाज, दिल्ली-६
स्मारिका
संपादक प्रो० दलसुख मालवणिया
डॉ० सागरमल जैन
प्रायोजक और प्रकाशक श्री सोहनलाल जैन विद्या प्रसारक समिति, फरीदाबाद श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी-५
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निवेदन
श्री शान्तिलाल वनमाली शेठ के अमृत महोत्सव की स्मारिका का प्रकाशन करते हुए हमें अत्यंत आनंद हो रहा है।
श्री शान्तिभाई का यह आग्रह था कि 'अमृत महोत्सव के निमित्त से सत्साहित्य के प्रकाशन को वेग मिले ऐसा कुछ करना चाहिए।'
हमें संतोष है कि अमृत-महोत्सव समिति ने निधि एकत्र कर ली है जो श्री शान्तिभाई को दिल्ली गुजराती समाज के शाह ओडिटोरियम में ता० २४ मई ८७ को समर्पित की जायगी। उस निधि में अपनी ओर से कुछ जोड़कर श्री शान्तिभाई उस निधि को श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम को प्रत्यर्पण कर देंगे। जिसका उपयोग असाम्प्रदायिक
और समन्वयात्मक साहित्य के प्रकाशन में श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम करेगा। इस स्मारिका में श्री शान्तिभाई के जीवन को उजागर करने का संक्षेप में प्रयत्न किया है साथ ही समिति के सदस्य बनने की स्वीकृति के उपरान्त कुछ सदस्यों ने श्री शान्तिभाई के विषय में अपने प्रतिभाव लिखे थे उनमें से कुछ का संग्रह भी कर दिया है।
सभी सदस्यों की तथा दाता और विज्ञापनदाताओं की सूची दी गई है।
श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम, जो श्री शान्तिभाई द्वारा समर्पित निधि का सत्साहित्य के निर्माण में उपयोग करनेवाला है, उसका भी संक्षेप से परिचय स्मारिका में दे दिया गया है।
समिति के निर्माण से लेकर आजकल हमें जिन्होंने पूरा सहकार दिया है, उनकी संख्या तो बड़ी है किन्तु कुछ एक नाम देना है, जिन्होंने विशेष परिश्रम करके समिति के कार्य को सफल बनाने में सहयोग दिया है। सर्वश्री भूपेन्द्रनाथ जैन, हर्षद शेठ, नृपराज जैन, राजकुमार जैन, अजितराज सुराणा, दौलतसिंहजी कोठारी, श्रीमती विद्याबहन, श्री विपीनभाई वडोदरिया, श्री महासुखभाई, श्री व्रजलालभाई, श्री चंदूभाई, श्री गुलाबचंद जैन और श्री शोरीलाल जैन आदि अनेक हैं जिनके सहयोग के बिना हमारी सफलता हो नहीं सकती थी। इनके और अन्य सभी जिन्होंने निधि में दान दिया है और स्मारिका में विज्ञापन दिया है, हम अत्यंत आभारी हैं।
-दलसुख मालवणिया
-सागरमल जैन
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मेरे जीवनादर्श
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अहिंसा-त्रिमूर्ति को कोटिशःवंदन !
श्रद्धा-सुमन समर्पण
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'धम्मो मंगलमक्किट्ठे, अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमस्सन्ति, जस्स धम्मे सयामणो।' ____ अहिंसा, संयम और तप, यही उत्कृष्ट धर्ममंगल है। ऐसे मंगल-धर्म में जो अनुरक्त हैं, उन्हें देव भी नमस्कार करते हैं।
–मंगलमय भगवान महावीर सव्वपावस्सअकरणं, कुसलस्सव उवसंपदा । चित्तस्स परियोदपनं, एतं बुद्धानं सासनं ।।
किसी भी पाप-प्रवृत्ति नहीं करना, कुशलता की उपसंपदा प्राप्त करना और चित्त का परिशोधन : यही बुद्धों का अनुशासन है।
-महात्मा गौतम बुद्ध 'कामये दुःख-तप्तानाम्
प्राणिनाम् आति-नाशनम् ।' दुःख से तपे हुए प्राणियों की पीड़ा का नाश करूं-यही एकमात्र मेरी कामना है।
-राष्ट्रपिता महात्मा गांधी समर्पक-शान्तिलाल वनमाली शेठ
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By Courtsey :PRINTPACK ENGINEERS 40, LAKSHMI COMPLEX. K. R. ROAD, FORT OPP. VANI VILAS HOSPITAL BANGALORE-2
PHONE No:258072
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सहयोगी-संस्थाएँ
गाँधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा, नई दिल्ली आचार्य काकासाहेब स्मारक निधि, नई दिल्ली अखिल भारत जैन महामण्डल, बंबई और दिल्ली श्री अ० भारतीय श्वे० स्था० जैन कॉन्फरन्स, दिल्ली श्री अखिल भा० दिगम्बर जैन महासमिति, दिल्ली अहिंसा इन्टरनेशनल, विश्व जैन कांग्रेस, नई दिल्ली श्री अ०भा० श्वेताम्बर जैन कॉन्फरस, बंबई श्री अखिल भारतीय अणुव्रत जैन समिति दिल्ली श्री दिल्ली गुजराती स्थानकवासी जैन संघ, दिल्ली श्री दिल्ली स्थानकवासी जैन महासंघ दिल्ली श्री अ० भा० स्वे० जैन खरतरगच्छ महासंघ, दिल्ली श्री आत्मवल्लभ जैन स्मारक शिक्षण निधि, दिल्ली श्री बी० एल० इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलोजी, दिल्ली श्री प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर श्री आत्मानंद जैन सभा, दिल्ली श्री महत्तरा साध्वी मृगावती फाउण्डेशन, दिल्ली श्री दिल्ली गुजराती समाज, दिल्ली श्री दिल्ली गुजराती महिला समाज, दिल्ली श्री दिल्ली गुजराती यंगमेन्स एसोशिएशन, दिल्ली श्री दिल्ली गुजरात को आ० हाऊसिंग सोसायटी गांधी स्मारक निधि (केन्द्रीय), नई दिल्ली आचार्य काकासाहेब विश्व समन्वय केन्द्र, नई दिल्ली जैन मिलन इन्टरनेशनल दिल्ली; श्री महावीर अहिंसा-केन्द्र श्री एस० एस० जैन सभा, जैन सभा नई दिल्ली श्री जैनेन्द्र गुरुकुल शिक्षण समिति, पचकूला श्री जैन सुमति शिक्षा समिति, बेंगलोर
विपिनभाई वडोदरिय, संयोजका १६, गुजरात विहार, विकास मार्ग दिल्ली-६२ तार : 'COATPRINT', DELHI-६२
इन्द्रचन्द्र जैन, संयोजक १२, शहीद भगतसिंह मार्ग, जैन भवन, नई दिल्ली-१
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मंगलसूत्र
१. णमो अरहताणं । णमो सिद्वाणं । णमो आयरियाणं । णमो उवज्झायाणं। णमो लोए सव्वसाहणं ।। १ ।।
१. अर्हतों को नमस्कार। सिद्धों को नमस्कार।
आचार्यों को नमस्कार। उपाध्यायों को नमस्कार । लोकवर्ती सर्वसाधुओं को नमस्कार ।। २. यह पंच नमस्कार-मन्त्र सब पापों का विनाश करनेवाला है और समस्त मंगलों में श्रेष्ठ मंगल है।
२. एसो पंचणमोकारो, सव्वपावप्पणासणो ।
मंगलाणं-च सव्वेसि, पढम हवइ मंगलं ॥२॥
३. अरहंता मंगलं । सिद्धा मंगलं । साहू मंगलं । केवलि-पण्णत्तो धम्मो मंगलं ॥३॥
३. अर्हत् मंगल हैं । सिद्ध मंगल हैं । साधु मंगल हैं। केवलि-प्रणीत धर्म मंगल है।
४. अरहंता लोगुत्तमा । सिद्धा लोगुत्तमा । साहू लोगुत्तमा।
केवलि-पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो ॥४॥
४. अर्हत् लोकोत्तम हैं । सिद्ध लोकोत्तम हैं । साधु लोकोत्तम हैं। केवलि-प्रणीत धर्म लोकोत्तम है।
५. अरहते सरणं पव्वज्जामि । सिद्ध सरणं पव्वज्जामि ।
साहू सरणं पव्वज्जामि । केवलि-पण्णत्तं धम्म सरणं पव्वज्जामि ।।५।।
५. अर्हतों की शरण लेता हूँ। सिद्धों की शरण लेता है।
साधुओं की शरण लेता हूँ । केवलि-प्रणीत धर्म की शरण लेता हूँ।
६. झाहि पंच वि गुरवे, मंगलच उसरणलोयपरियरिए।
णर-सुर-खेयर-महिए, आराहणणायगे वीरे ।।६।।
६. मंगलस्वरूप, चतुःशरणरूप तथा लोकोत्तम, परम आराध्य,
नर-सुर-विद्याधरों द्वारा पूजित, कर्मशत्र के विजेता ऐसे पंचगुरुओं (परमेष्ठी) का ध्यान करना चाहिए।
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विवेकहष्टि को वंदना
मैं कृतज्ञ हूँ, नतमस्तक हूँ
जेतपुर में पैदा हुआ और जैन-संस्था और जैन-समाज में काम करते रहने से मेरे में जैन संस्कारों का सिंचन ज्यादा हुआ। इसके लिए समाजमाता-स्थानकवासी जैन कॉन्फरन्स-द्वारा स्थापित और संचालित जैन ट्रेनिंग कॉलेज का आजन्म कृतज्ञ रहूँगा। इन्हीं जैन-संस्कारों के कारण मैं नास्तिक में से आस्तिक बन सका । यद्यपि प्रारंभिक जैन-संस्कारों में साम्प्रदायिकता का आधिक्य ज्यादा था और सामाजिकता का कम । इसी कारण प्रारंभ में मैं कट्टर संप्रदायवादी था लेकिन जैसे-जैसे धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन, चितन और मनन बढ़ता गया त्यों-त्यों साम्प्रदायिकता के स्थान पर सामाजिकता बढ़ती गई और फिर समन्वय की वृत्ति और प्रवृत्तियों से मानवता का मूल्यांकन भी बढ़ता गया। मंगलमूर्ति भ० महावीर के मानवतामूलक-आचार में अहिंसा और विचार में अनेकान्तवादमंगलधर्म के-सन्देश को समझता गया और जीवन में उतारता गया कि 'जन-धर्म कोई मत, सम्प्रदाय या बाडाबंदी से आबद्ध नहीं है लेकिन वह तो वस्तुधर्म होने से विश्वधर्म है।' अहिंसा द्वारा विश्वशान्ति और अनेकान्त द्वारा विश्वमैत्री स्थापित करने में वह समर्थ है। ऐसा मेरा विश्वास दृढ़ होता गया। भ. महावीर की तेजस्वी अहिंसा, म. बुद्ध की प्रज्ञामूलक करुणा और महात्मा गांधी की सत्यमूलक सर्वधर्मसमभाववृत्ति-यह अहिंसा-त्रिमूर्ति मेरे जीवनादर्श बन गये । भगवान महावीर की समतामूलक समन्वय दृष्टि को 'वसुधैव कुटुम्बकम्' अथवा विश्वास्मैक्य' को पर्यायवाची समझने लगा। इस प्रकार मैं साम्प्रदायिक वृत्ति में से निकलकर सामाजिकता और समन्वयदष्टिका परमोपासक बन गया और 'जनत्व की साधना' को जीवन-साधना समझने लगा।
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इस विश्व विजयी जैनत्व' के विकास में अनेक धर्माचायों, राष्ट्रनेताओं और समाजनायकों ने मुझे मार्गदर्शन दिया है, उन सभी का मैं कृतज्ञ हूँ जिन्होंने मुझे प्रेरणा पियूष का रसपान कराया है उनमें पू० जवाहिराचार्य, पू० चौथमलजी, आचार्य प्रवर आत्मारामजी, शतावधानी रत्नचंद्रजी, मानवता के उद्बोधक नानचंद्रजी अहिंसक समाज रचना के प्रेरक संतवालजी, स्पष्टवक्ता पू. काशीरामजी, श्री प्रेमचंद्रजी, आत्मार्थी मोहन ऋषिजी, सेवाव्रती चैतन्यजी शास्रोद्धारक अमोलऋषिजी प्रखर वक्ता प्राणलालजी सरलात्मा भावनाशील ज्ञानतपस्वी, आचार्य श्री आनंदऋषिजी शास्त्रज्ञ और समयज्ञ उपा० कवि अमरचंद्र जी विश्वधर्म के सत्प्रेरक सुशील मुनिजीयुवाचार्य श्री मधुकरजी, स्वाध्याय प्रेरक आचार्य हस्तिमलजी, धर्मपालोद्धारक आचार्य श्री नानालालजी आदि अनेक स्था० मुनिवयों के उपरांत तेरापंथी धर्म के अनुशास्ता आ० श्री तुलसीजी, बहुश्रुत प्रज्ञामूर्ति नथमलजी, विद्याव्यासंगी एलाचार्य विद्यानंदजी, साम्प्रदायिक एकता के पक्षपाती विद्याविजयजी, सर्वोदयी पू० जनकविजयजी, पुरातत्वविद् पुण्यश्लोक पुण्यविजय ती आदि अनेक नामी अनामी संतों का जीवन परिचय और प्रभाव पड़ा है लेकिन आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी का जो आध्यात्मिकता का प्रभाव पड़ा वह तो आजतक जीवन को उजागर कर रहा है ।
धर्मपिता श्री दुर्लभजी भाई, निर्भीक साहित्यकार वा० मो० शाह, धर्म और समाज में समन्वय करने वाले श्री चीमनलाल चकूभाई शाह, प्रामाणिक व्यापारी सूरजमल लल्लूभाई, समाजनिष्ठ राष्ट्रसेवक श्री दुर्लभ जीभाई, प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजी, आ० जिनविजयजी, पं० बेचरदासजी - की असाम्प्रदायिक पारगामी विद्वत्ता, सन्मित्र पं०दलसुखभाई की मित्रता को मैं कभी भूल ही नहीं सकता। पू० काकासाहेब, पू. विनोबाजी, श्री जयप्रकाशजी, श्री जैनेन्द्रजी, डॉ० श्री कोठारी जी, श्री सिद्धराजजी आदि महानुभावों की सर्वोदय दृष्टिने मुझे मानवता का सही मार्ग बताया । जिन्होंने मुझे साम्प्रदायिक के बंधनों से मुक्त किया, सामाजिकता और राष्ट्रीयता से बढ़कर मानवता का मूल्यांकन करने का शिक्षापाठ पढ़ाया और जैन जीवन जीने की 'धर्मकला सिखाई—उन सभी का मैं हृदय से कृतज्ञ हूँ। मैं उनके उपकार को कभी भूल ही नहीं सकता — लेकिन सेवामूर्ति पूज्य पिताजी, श्रद्धामूर्ति पू० मातुश्री एवं वात्सल्य मूर्ति ज्येष्ठभाई पू० श्री जयसुखभाई - जिनकी छत्रछाया में मैं इतना आगे बढ़सका उन सभी हितैषी आप्तजनों के उपकार का ऋण कैसे चुका सकूंगा ! मेरी दयामूर्ति धर्मपत्नी और कुटुम्ब के सभी छोटे-बड़े आत्मीय जनों के सहयोग के लिए मैं मौन ही रहना उचित समझता हूँ । जिन्होंने मेरा जीवन-पथ प्रशस्त किया है उन सभीनामी अनामी, परिचित अपरिचित सभी का हृदय से आभार मानता हूँ। मैं उन सभी के उपकारों के लिए मैं कृतज्ञ हूँ और नतमस्तक है।
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'मिती से सम्बभूवेरं मन केणइ' इस सूत्रानुसार मुझे सभी के साथ मैत्रीभाव है, किसी के साथ वैरभाव नहीं है । मेरी ज्ञात-अज्ञात क्षतियों के लिए हृदय से मैं क्षमाप्रार्थी हूँ ।
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- विनीत शान्तिलाल
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राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के .
सप्तसूत्री शिक्षाएँ
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नीचे लिखे दुष्कर्मों से अपने आपको बचाओ।
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(१) बिना सिद्धान्त की राजनीति ।
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(२) बिना काम किये धन-संचय । (३) बिना नैतिकता के व्यापार।
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(४) बिना चरित्र निर्माण के शिक्षा।
(५) अन्तरात्मा के विरुद्ध आनन्द लूटना ।
(६) बिना मानवता के विज्ञान का प्रयोग।
(७) बिना त्याग-भाव के पूजापाठ ।
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अन्तर मम विकसित करो अन्तरल है ! अन्तर मम विकसित करो अन्तरतर हे ! निर्मल करो, उज्ज्वल करो, सुन्दर करो हेजाग्रत करो, उद्यत करो, निर्भय करो हे, मंगल करो, निरलस निःसंशय करो हेयुक्त करो हे सवार संगे, मुक्त करो हे बंध, संचार करो सकल कर्मे शान्त तोमार छंदचरण-पद्म मम चित्त निष्पंदित करो हे, नंदित करो, नंदित करो, नंदित करो हे--
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--विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टागोर
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By Courtsey :PRINTPACK ENGINEERS 20, GUJRAT VIHAR VIKAS MARG, DELHI-110092
PHONE No : 272753/279436/2243532
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'सन्निष्ठ समाजजसेवी' श्री शान्तिभाई का सम्मान
सेवानिष्ठ, मेरे सहृदयी परममित्र सौजन्यमूर्ति श्री शान्तिभाई शेठ
प्रो० दलसुख मालवरिगया मानद निदेशक-श्री द० ला० भारतीय विद्या-मंदिर
अहमदाबाद
सेवानिष्ठ सौजन्यमूर्ति श्री शान्तिलाल शेठ का जन्म १९३५ से १६४४ तक विविध धार्मिक और सामाजिक सौराष्ट्र के जेतपुर में तारीख २१-५-१९११ में शेठ वनमाली संस्थाओं में सेवारत रहकर ग्रन्थों का संकलन और संपादन दास के श्रीमती मणिबहन की कोख से हआ। प्राथमिक और किया। उनके साक्षात्कार, जवाहर-ज्योति, धर्म और धर्ममाध्यमिक शिक्षा गुजराती माध्यम से जेतपुर में ही हुई। नायक, ब्रह्मचारिणी, जवाहर-व्याख्यान-संग्रह. जैन प्रकाश तदनन्तर १६२७ से १९३१ तक श्री अ० भा० श्वे० स्था० की उत्थान-संपूर्ति, अहिंसा-पथ आदि पत्रिका और ग्रन्थ जैन कॉन्फ्रेन्स द्वारा स्थापित जैन ट्रेनिंग कॉलेज में मेरे साथी प्रकाशित हए हैं। रहे और बीकानेर-जयपुर ब्यावर में संस्कृत-प्राकृत का १६४५ से.१९५० तक श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम, बनारस अध्ययन किया और कॉलेज की ओर से 'जैन विशारद' की विश्वविद्यालय में संचालक के रूप में सेवा दी और पं० उपाधि प्राप्त की और साथ ही जैन-न्याय की परीक्षा- सुखलालजी के संपर्क से मन में रही हुई 'समन्वय-भावना' 'न्यायतीर्थ' उत्तीर्ण की। जैन शास्त्रों का विशेष अध्ययन विशेष दृढ़ हुई। वहीं रहकर 'जैन कल्चरल रिसर्च सोसायटी' करने के लिए हम दोनों अहमदाबाद में पं० श्री बेचरदासजी की स्थापना और संचालन में योगदान दिया और कई जैन के पास रहे और वहाँ प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजी तथा आचार्य संस्कृति, धर्म और दर्शन विषयक पुस्तिकाओं का सम्पादन मुनि श्री जिनविजयजी के विशेष संपर्क में आये। पू० गांधीजी, किया। आ० काकासाहेब, आ० कृपलानीजी आदि राष्ट्रनेताओं १९५५ से १९६५ तक श्री स्था० जैन कॉन्फ्रेन्स के मंत्री के संपर्क में आने का भी यहाँ अवसर मिला। उसके बाद रहे और दिल्ली में जैन-प्रकाश (हिन्दी-गुजराती) का संपा१९३१ से १६३४ तक विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के विश्व- दन किया। इसी बीच जैन गुरुकुल, ब्यावर में रहकर समाजभारती शान्ति-निकेतन में रहकर आचार्य मुनि जिनविजयजी सेवा की। . एवं महामहोपाध्याय श्री विधूशेखर भट्टाचार्यजी से जैन-धर्म १९५६ से १९६६ तक आ० काकासाहेब कालेलकर के और बौद्ध-धर्म का तुलनात्मक अध्ययन किया। परिणाम- साथ रहे और राष्ट्र-सेवा और हरिजन-सेवा आदि कार्यों में स्वरूप 'धम्मसुत्तं' के नाम से जैन-बौद्ध सूक्तों का संकलन रत रहे और गांधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा, मंगल-प्रभात, किया जो आगे जाकर पं० बेचरदासजी द्वारा संपादित होकर श्रम साधन-केन्द्र, विश्व समन्वय केन्द्र तथा गांधी विचारधारा 'महावीर-वाणी' के नाम से प्रकाशित हुआ । यहाँ भी हमारा को पुष्ट करने वाली अनेक सर्वोदयी संस्थाओं में योगदान देने साथ था।
का अवसर मिला।
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१९६९ में मास्को में विश्व शान्ति परिषद् में जैन-धर्म प्रतिनिधित्व किया और समतामूलक जैनधर्म के 'साम्यभाव' पर व्याख्यान दिया। मास्को रेडियो में भी व्याख्यान देने का अवसर मिला और रशिया में कई नगरों का पर्यटन करने का भी मौका मिला ।
१९७४-७५ में भगवान महावीर २५वीं निर्वाण शताब्दी महोत्सव की राष्ट्रीय समिति के एक मंत्री रहे और महोत्सव की सफलता में सक्रिय सहयोग दिया ।
१९८५ में जैन मिलन इन्टरनेशनल, दिल्ली की संस्था ने शान्तिभाई की सेवाओं का आदर करते हुए 'सन्निष्ठ समाजसेवी' की उपाधि प्रदान की ।
आज ७५ वर्ष की आयु में भी निवृत्तिमय जीवन में इनकी राष्ट्र, समाज एवं धर्म की सेवा सतत चल रही है ।
१६२७ से सन्निष्ठ, मेरे सहृदयी साथी और परममित्र
आध्यात्मिक जीवनशिल्पी सत्पुरुष पू० श्री कानजी स्वामी को श्रद्धांजलि
पूज्य श्री कानजी स्वामी की सेवा में चि० दीपक कुमार, श्री शान्तिभाई एवं श्री जेठालाल दोशी
श्री शान्तिभाई शेठ का गुणानुवाद करके मैं धन्यता अनुभव करता हूँ ।
शान्तिभाई में साम्प्रदायिक भाव कभी रहा नहीं है। जो भी किया है वह समन्वय दृष्टि से किया है। यही कारण है कि उन्होंने अपने प्रशंसकों की बड़ी मंडली प्राप्त की है । यही उनकी प्रतिष्ठा है ।
श्री शान्तिलाल शेठ ने जहाँ और जो भी काम किया है, पूरी निष्ठा और तन-मन लगा करके किया है और अपने साथी और मित्रों का प्रेम संपादन किया है । कभी अर्थलोलुप नहीं रहे । केवल अपनी रुचि के अनुसार कार्य करने का सोचा है । : जो भी कमाया है वह उनके सुपुत्रों की बदौलत है । घर में उनकी पत्नी दया बहिन की धार्मिक सन्निष्ठा और अतिथिसेवा का परिचय अनेक मित्रों को हुआ है । हम चाहते हैं कि श्री शान्तिभाई शतायु हों और राष्ट्र, समाज एवं धर्म की सतत सेवा करते रहें । — दलसुख मालवणिया
पूज्यश्री को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए श्री दलसुखभाई एवं श्री शान्तिभाई
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संस्कृति, साहित्य और अध्यात्म का त्रिवेणी-संगम :
एक स्मरणीय सामाजिक समारोह सौजन्यमूर्ति श्री शान्तिभाई का
विरल अमृत-महोत्सव
लेखक डॉ० जयन्त मेहता एम० ए०, पी-एच० डी०, तंत्री, 'दशाश्रीमाली' पाक्षिक, बंबई
मानव द्वारा मानव का सत्कार-सम्मान करने की परम्परा प्रवृत्तिमय जीवन के यशस्वी ७५ वर्ष पूरे कर लिये हैं-इस उपहमारी संस्कृति के उद्गमकाल से चली आ रही है। आज भी लक्ष्य में उनका यह अमृत-महोत्सव हमारी संस्कृति, साहित्य बड़े नगर, केन्द्र एवं संस्थाओं में आजीवन सेवा देने वाले एवं आध्यात्मिकता के त्रिवेणी-संगम के रूप में एवं एक महानुभावों के सम्मान करने के समारंभ-समारोह होते रहते हैं स्मरणीय ऐतिहासिक सामाजिक-समारोह के रूप में सदा परन्तु जब योग्य मानव का, योग्य संस्था द्वारा, योग्य सम्मान स्मरणीय रहेगा। इस महोत्सव का आयोजन पार्श्वनाथ विद्याहोता है तब सम्माननीय व्यक्ति का ही नहीं अपितु समग्र श्रम शोध-संस्थान, बनारस जैसी अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त समाज का सम्मान-गौरव होता हो ऐसा प्रतीत होता है। विद्या-संस्था द्वारा सम्पन्न होने जा रहा है और उसके मुख्य
ऐसा ही एक स्मरणीय सम्मान-समारोह सौराष्ट्र के सेवा- संचालक हैं-राष्ट्रपंडित श्री दलसुखभाई मालवणिया और निष्ठ सपूत, जैन-शास्त्र और जैनविद्या के तलस्पर्शी पारगामी, डॉक्टर श्री सागरमल जैन। 'जैन विशारद' तथा 'न्यायतीर्थ' जैसी उपाधियों से मंडित यह सम्मान-समारंभ दिल्ली के गुजराती-समाज के शाह एवं भारतीय संस्कृति, साहित्य, तत्त्वज्ञान, विज्ञान, इतिहास ओडिटोरियम में, ता० २४-५-८७ रविवार को प्रातः 8 बजे जैसे अनेक विद्याक्षेत्रों में जिन्होंने अपने ज्वलंत कार्यकलापों श्री जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलपति, सुप्रसिद्ध से प्रतिष्ठा प्राप्त की है ऐसे वात्सत्य-भावना से भावितात्मा वैज्ञानिक डॉ० श्री दौलतसिंहजी कोठारी की अध्यक्षता में विद्यापुरुष श्री शान्तिलाल वनमाली शेठ का विरल अमृत- संपन्न होगा। इस विरल समारोह में भारतीय संस्कृति महोत्सव दिल्ली में समायोजित होने जा रहा है।
साहित्य, शिक्षण, व्यापार, राजनीति आदि अनेक क्षेत्र के सेवानिष्ठ श्री शान्तिभाई वनमाली शेठ ने अपने अविरत प्रखर विद्वान्, अग्रगण्य नेता, समाजसेवक एवं विश्वबंधुत्व,
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असाम्प्रदायिकता, समन्वय, सर्वोदय जैसे नैतिक मूल्यों में श्रद्धा का संपादन किया। उन्होंने दश वर्ष पर्यन्त श्री अ०भा० श्वे० . रखनेवाले मानवतावादी अनेक महानुभावों की उपस्थिति से स्थानकवासी जैन कॉन्फरन्स के मंत्रीपद पर रहकर जैन समाज । यह अमृत महोत्सव बहुत ही सफल और समाजोपयोगी सिद्ध की निष्ठापूर्वक सेवा की और साथ ही 'जैन प्रकाश' साप्ताहिक होगा ऐसी आशा है।
(हिन्दी-गुजराती) पत्रिका का सफलतापूर्वक संपादन किया। . श्री शान्तिलाल वनमाली शेठ का जन्म सौराष्ट्र के मोस्को (रशिया) में आयोजित विश्वशान्ति परिषद् में जेतपुर नगर में ता० २१-५-१९११ को हुआ था। उन्होंने उन्होंने जैनधर्म का प्रतिनिधित्व किया और जैनधर्म के माध्यमिक शिक्षण लेने के पश्चात् श्री अखिल भारतीय श्वे० 'साम्यभाव' पर मननीय प्रवचन दिया। स्थानकवासी जैन कॉन्फ्रेरन्स द्वारा स्थापित जैन ट्रेनिंग कोलेज आचार्य काकासाहेब कालेलकर की सुप्रसिद्ध संस्थामें अध्ययन किया और तत्पश्चात् पं० बेचरदासजी, प्रज्ञाचक्षु गांधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा एवं विश्व समन्वय संघ के पं० सखलालजी, आचार्य जिनविजयजी जैसे विद्यापुरुषों तथा व्यवस्थापक के रूप में १० वर्ष पर्यन्त सेवा दी और गांधीजी महात्मा गांधी, काकासाहेब कालेलकर, आचार्य कृपलानी की सर्वोदय विचारधारा के प्रचार-प्रसार में सक्रिय योगदान जैसे राष्ट्रनेताओं के संपर्क में रहकर शिक्षण और समाज-सेवा दिया। के क्षेत्र में उल्लेखनीय सेवा प्रदान की। विश्वकवि रवीन्द्रनाथ इस प्रकार साम्प्रदायिक ग्रन्थियों से मुक्त, समन्वयदृष्टिठाकर की विश्वभारती-शान्तिनिकेतन जैसी विश्रुत विद्या- संपन्न, विश्वबन्धुत्व की भावना से भावित, राष्ट्र, समाज संस्था में रहकर उन्होंने जैनधर्म, बौद्धधर्म और हिन्दूधर्म का और धर्म के उत्थान के लिए जीवन समर्पित, सर्वोदय-प्रवृत्तियों तुलनात्मक अध्ययन किया और वहाँ के वातावरण का लाभ में श्रद्धाशील एवं कार्यशील, विज्ञान और साहित्य के विपुल उठाकर अपनी 'समन्वयदृष्टि' का विस्तार किया।
परिशीलन से परिष्कृत, विवेकबुद्धिशील इस 'प्रज्ञापुरुष' का श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम-बनारस विश्वविद्यालय में सन् सम्मान वास्तव में समग्र समाज का ही सम्मान है-ऐसा १९५० पर्यन्त उन्होंने संचालक के रूप में कार्य किया। यहाँ पर कहा जाय तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। उन्होंने 'जैन कल्चरल रिसर्च सोसायटी' की स्थापना की और
अनुवादक-रामनारायण जैन, दिल्ली जैन-संस्कृति, साहित्य, धर्म और दर्शन विषयक पुस्तिकाओं
वात्सल्यमूर्ति श्री शान्तिभाई लेखक :-डा० बी० यु० पारेख एम० ए०, एम० एड०, पी-एच० डी०, अहमदाबाद श्री शन्तिभाई शेठने अपने जीवनके ७५ यशस्वी वर्ष पूरे होती हुई सभी प्राणियों के प्रति वात्सल्य की ऊमि तरंगित कर लिए है और इसी कारण उनका अमृत महोत्सव मनाया होती हई आज, 'मित्ती मे सव्वभूएस' सभी प्राणियों के प्रति जा रहा है यह बहुत ही हर्ष का विषय है। श्री पार्श्वनाथ मैत्रीभाव है, किसी के साथ वैरभाव नहीं है—ऐसी विश्वविद्याश्रम, बनारस जैसी अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्या- वात्सल्य के रूप में-'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना को संस्था अमतोत्सव का आयोजन कर रही है यह और भी जीवन में उतार कर, आज 'विश्व-मानव' बन गये हैं । ऐसे गौरव की बात है।
वात्सल्यमूर्ति विश्वमानव श्री शांतिभाई का इस पावन पर्व विद्या-संपन्नता के कारण उनका सत्कार-सम्मान करना पर मैं उनका अभिनंदन के साथ अभिवंदन करता हूँ। साहजिक है लेकिन उनके जीवन में संस्कृति, साहित्य, तत्त्वज्ञान श्री शांतिभाई सौम्य, सरल एवं सौजन्यमूर्ति हैं । उनकी आदि विद्या के प्रति उनकी सन्निष्ठा तो है ही लेकिन समाज- धर्मपत्नी दया बहिन भी संस्कारी एवं धर्मप्रेमी महिला हैं। सेवा के अतिरिक्त उनके जीवन में जो 'वात्सल्यभावना' ओत- शांतिभाई की सेवा-प्रवृत्तियों में उनका सक्रिय सहयोग सदा प्रोत है-वही उनके जीवन की विशेषता है। जैसे नदी के रहा है। वास्तव में श्री शांतिभाई के सेवाकार्यों की प्रेरणामूर्ति जल में एक कंकर फेंकने से जल में वर्तल बनता है और वह उनकी धर्मपत्नी ही हैं। तरंगित होता हुआ, वह वर्तुल विस्तृत बनता हुआ, नदी के अब यह धर्मप्रिय दंपती राष्ट्र, समाज एवं धर्म की सतत दूसरे किनारे तक पहुँच जाता है.--यह है जल-तरंग का सेवा करने के लिए स्वास्थ्यपूर्ण सूदीर्घ यशस्वी जीवन यापन विस्तृतीकरण । ऐसे ही शांतिभाई की वात्सल्यभावना कुटुंब- करें-यही अभ्यर्थना। वत्सलता, समाज-वत्सलता, राष्ट्र-वत्सलता के रूप में विस्तृत
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विश्व - ज्योति वर्द्धमान महावीर के समग्र जीवनोपदेश का सार है- आचार में अहिंसा और विचार में अनेकान्तवाद । अहिंसा (याने अद्रोह-अवैर - अभय ) द्वारा विश्व शान्ति और अनेकान्त ( याने समभाव - समन्वय सह-अस्तित्व ) द्वारा विश्वमैत्री स्थापित करना यही है उनकी जीवन- प्रेरणा ।
वर्द्धमान महावीर ने आचार-विचार-प्रचार में अहिंसा और अनेकान्त को महत्त्वपूर्ण स्थान देकर अहिंसामूलक समन्वय संस्कृति के विकास में मौलिक योगदान दिया है। ऐसे समन्वयमूर्ति भगवान महावीर की २५वीं निर्वाण शताब्दी की पुण्य स्मृति में उनके विश्व कल्याणकर उदात्त सिद्धान्तों को बहुदेशी, बहुधर्मी समस्त मानव जाति में प्रचार-प्रसार करनायह है नैतिक कर्तव्य उन सबका जो अहिंसा और अनेकान्त में विश्वास रखते हैं । फिर वे या अन्यदेशीय किसी भी धर्म या संप्रदाय के भारतीय क्यों न हों ? नवयुग की यह माँग भी है ।
इस माँग की पूर्ति के लिये अगर कोई तटस्थ एवं प्रतिष्ठित संस्था, समन्वयमूर्ति वर्द्धमान महावीर के अहिंसामूलक समन्वय-सिद्धांत को विश्वभर में (सब देशों में और सब धर्म-समाजों में ) प्रचारित-प्रसारित करने के लिए तैयार हो जाय और 'महावीर - मिशन' के महत्कार्य को उठाये तो वह युगानुरूप और सार्थक सिद्ध होगा ।
कोई भी स्त्री-पुरुष अपने अपने धर्माम्नाय में रहते हुए, बिना किसी सम्प्रदाय, धर्म, जाति, देश-प्रदेश, रंग-वर्ण के
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महावीर - मिशन
( युगानुरूप एक अभिनव योजना )
शान्तिलाल वनमाली सेठ
भेदभाव के समानाधिकार से इस महावीर - मिशन के सदस्य बन सकेंगे।
प्रत्येक सदस्य अपने-अपने राष्ट्र, समाज एवं धर्म की एकता एवं अखण्डता के लिए प्रयत्नशील रहते हुए भी विश्वशान्ति तथा विश्वमैत्री के लिए इस महावीर - मिशन को अपनी सेवा समर्पित कर सकेगा ।
महावीर - मिशन में तीन प्रकार के सदस्य रहेंगे ।
१. बौद्धिक सदस्य - जो बौद्धिक सहयोग द्वारा मिशन की सेवा करेंगे ।
आजीवन सदस्य आजीवन सेवा देने वाले । संरक्षक सदस्य - १० वर्ष की सेवा देने वाले 1 हितैषी - सदस्य - ५ वर्ष की सेवा देने वाले । सामान्य - सदस्य - १ वर्ष की सेवा देने वाले । २. आर्थिक - सदस्य --- जो अर्थ सहायता द्वारा सेवा करेंगे ।
रु० देने वाले ।
२५०
रु० देने वाले ।
आजीवन सदस्य – एक मुश्त २५००० रु० देने वाले । संरक्षक - सदस्य - वार्षिक २५०० हितैषी - लदस्य - - वार्षिक सामान्य सदस्य – वार्षिक ३. सेवक सदस्य – जो महावीर - मिशन की योजना को मूर्त स्वरूप देने के लिये अपने जीवन की ही सेवा समर्पित करेंगे ।
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रु० देने वाले ।
सेवक - सदस्य की आजीविका का आर्थिक आदि भार
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मिशन को वहन करना होगा। तीनों प्रकार के सदस्यों के सभी देशवाले स्त्री-पुरुष (चाहे वे त्यागी-संन्यासी हों या कार्याधिकार मिशन निश्चित करेगा। महावीर-मिशन की मुख्य गृहस्थ हों) सभी की सेवा अपेक्षित है। कार्य-प्रवृत्तियाँ फिलहाल निम्नानुसार होंगी
देश-विदेश में जहाँ कहीं ऐसी अहिंसा एवं अनेकान्त १. अहिंसक समाज-रचना के लिए अहिंसा-शोधपीठ क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाएँ चलती हों उनका समीकरण • चलाना।
किया जायगा, सहयोग लिया जायगा और कहीं भी २. अनेकान्त-विहार-विश्व-समन्वय के लिए स्थापित करना। विरोधाभास पैदा न हो ऐसा तालमेल बिठाकर पारिवारिक ३. सर्वोदय-तीर्थ की स्थापना (नारी-जागरण, अंत्योदय, वातावरण पैदा किया जायगा।
दलितोद्धार एवं पच्चीस लाख व्यक्तियों को व्यसन-मुक्त महावीर-मिशन का कार्यक्षेत्र सम्प्रदायातीत और बनाना आदि सर्वोदयकारी कार्य) करना।
विशाल होगा । मिशन के इस महान कार्य को कार्यान्वित ४. निरामिषाहार-भोजनालय-देश-विदेश में स्थापित करने के लिये किसी असाम्प्रदायिक, सेवामति, अहिंसाकरना।
परायण एवं अनेकान्त-समन्वय-संस्कृति के पूजक व्यक्ति को ५. गो-सेवा-सदन स्थापित कर गोवंश का संरक्षण एवं पसंद करना होगा फिर उन्हीं के मार्गदर्शन में यह विशाल संवर्धन करना।
समन्वय-कार्य संपन्न करना होगा। ६. अहिंसा और अनेकान्त का विश्व में व्यवस्थित प्रचार प्रारंभ में यह युगानुरूप अभिनव योजना, अनेक धर्म
करने के लिये अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व-समन्वय- नायकों, समाजसेवकों एवं कर्मठ कार्यकर्ताओं के समक्ष प्रस्तुत
सम्मेलन, प्रदर्शन, गोष्ठियाँ आदि का प्रबन्ध करना। की जायेगी, और सभी की सहानुभूति से महावीर-मिशन की ७. प्रतिष्ठित सभी धर्मों के प्रति समभाव एवं समन्वयभाव इस महान् योजना को मूर्तरूप दिया जायगा।
स्थापित करने के लिये देश-विदेश में जगह-जगह महावीर-मिशन को हम एक ऐसी सेवा-संस्था बनाना समन्वय-सदन (Harmony-Homes) स्थापित करना। चाहते हैं कि जो लोक-सेवक-समाज या रामकृष्ण मिशन जैसी
ऐसी सप्तविध कार्य-प्रवृत्ति को मूर्त स्वरूप देने के लिये विश्व में विश्वशान्ति और विश्वमैत्री स्थापित करने वाली जहाँ २५०० समन्वय-परायण साधक-सेवकों को अपना सेवा-संस्था बने । जीवन-दान देना होगा, वहाँ विद्वानों और श्रीमानों को भी मिशन के साथ 'महावीर' के नाम का इतना आग्रह नहीं अपना सक्रिय योगदान देना होगा।
है जितना उनके जीवन-कार्य को विश्वव्यापी बनाने का है। इस महावीर-मिशनमें सभी धर्मोवाले, सभी जाति वाले, (मंगल प्रभात के १ अक्टूबर, १९७३ के अंक में प्रकाशित) सुप्रसिद्ध सर्वोदयी सन्त
सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक
पूज्य बाबा श्री चेतनदासजी
डा० दौलतसिंह काठोरीजी के साथ श्री शान्तिभाई शेठ
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समन्वयदर्शी शान्तिभाई
हार्दिक स्वागत
आचार्य काकासाहेब कालेलकर
ईसाई-मिशनरियों ने सैकड़ों वर्ष हुए हमारे देश में
इतने बड़े फर्क का कारण ढुंढना चाहिये। भारत के और दुनिया के अन्य-अन्य देशों में, जो सेवा-कार्य किया है जातिधर्म का यह असर तो नहीं है ? और धर्म-प्रचार किया है, उस पर से बोध लेने वाला एक मुझे ख्याल ही नहीं था कि हमारे शान्तिभाई के हृदय में लेख जब मैंने 'मंगल प्रभात' के पिछले अंक में लिखा तब मुझे 'महावीर मिशन' की स्थापना करने की प्रचंड प्रेरणा पैदा ख्याल नहीं था कि उसे पढ़कर हमारे शान्ति भाई के हृदय में होगी। अपने ढंग का एक 'मिशन' स्थापित करने की प्रेरणा उगेगी। समन्वयदर्शी शान्तिभाई ने हमारे यहाँ आकर सब धर्म
मैं जैन स्नेहियों से कभी-कभी पूछता हूँ कि बौद्धधर्म समन्वय का काम अपने हाथ में ले लिया उसके पहले उन्होंने ने लंका, ब्रह्मदेश, तिब्बत, चीन, जापान आदि अनेक देशों में जैन-धर्म की और जैन-समाज की काफी सेवा की है। वे बड़े जैसा धर्मप्रचार किया वैसा जैनियों ने क्यों नहीं किया? जैन- उत्साही जैन हैं। धर्म और बौद्ध-धर्म हमारे सनातनी हिंदु धर्म में सुधार कर अपनी इस योजना के अंत में लिखते हैं कि-'महावीर' का सके। दोनों की सेवा अद्भुत है। लेकिन बौद्धधर्म के प्रचारक नाम इस मिशन के साथ जोड देने का उनका आग्रह नहीं है। सैकड़ों वर्ष हुए अपने धर्म को विशाल जगत में फैला सके। उनके हृदय की व्यापकता और उदारता का ही यह नमूना है। और जैन समाज ने अपने उत्तमोत्तम साधुओं को भारत से लेकिन मैं तो कहँगा कि अत्यंत व्यापक भावना की बाहर जाने से भी मना किया। 'भारत-बाहर शुद्ध आहार 'अहिंसा' और 'सब धर्मों में कौटुंबिक भाव पैदा करने की प्रेरणा मिलने की कठिनाई है तब ये जैन साधु भारत-बाहर जावें ही देने वाला 'अनेकान्तवाद' जिन्होंने ढाई हजार वर्ष पहले मानवक्यों? जायेंगे तो उनका बहिष्कार किया जायेगा।' ऐसा जाति को दिया उन महावीर के प्रति हमारे मनमें अगर उनको डर बताया ! बौद्ध और जैन दोनों धर्म भारतीय हैं। थोड़ी भी कृतज्ञता और आदर है तो उनका नाम इस 'मिशन' दोनों ने बहुत बड़ा सुधार का काम किया है। तब दोनों के के साथ होना ही चाहिये । किसने कहा कि भगवान महावीर इतिहास में इतना फर्क क्यों? बौद्धधर्म को हमारे हिंदु धर्म ने केवल जैनियों के ही हैं ? 'मानव-जीवन को विशुद्ध और हज़म कर डाला। फलत: भारत में बौद्ध धर्म का अस्तित्व भी विशाल बनाने के लिये' वे इस दुनिया में आये। उनके नहीं के जैसा हो गया। इधर जैनधर्म मानो एक जाति बनकर साथियों ने और शिष्यों ने यथामति, यथाशक्ति जैन धर्म की भारत की सीमा के अंदर ही पनप कर संतोष मान रहा है। प्रगति की और भगवान के बोध को केवल ग्रंथों के द्वारा नहीं,
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दुनिया
किन्तु अपनी जीवन-साधना के द्वारा जीवित रखा। उन्हीं की बड़ा फर्क, इस नयी मिशनप्रवृत्ति में दाखिल होने प्रेरणासे, व्यापक मानव-सेवा करने का संकल्प जागा है, उसके की सब संस्कृतियों को लाभ ही होगा। साथ उनका नाम होना ही चाहिये, यह मेरा आग्रह है।
श्री शान्तिभाई की यह योजना अच्छी लगी, इस वास्ते देश में जगह-जगह पर 'भगवान महावीर की २५सौवीं उसे 'मंगल प्रभात' में अन्यत्र दे रहे हैं। निर्वाण शताब्दी' मनाने की योजनाएँ बन रही हैं। उनका विश्वशांति या विश्वमैत्री की स्थापना के लिये सर्व धर्मकाम केवल दो-तीन या पाँच-दस वर्ष चला तो उतने से समन्वय की प्रेरणा जिनको मान्य है उनका अब काम है कि महावीर के प्रति हमने अपनी कृतज्ञता पूर्णरूप से व्यक्त की, वे सोचें 'महावीर मिशन' को किस तरह चलाया जाये? और ऐसा मानने का हमें अधिकार नहीं है।
इसका आगे का विचार करने के लिये धर्म-भेद को बाज पर ईसाई आदि धर्म के मिशनरी लोग केवल अपने ही धर्म रखकर सबों को एकत्र लाने के लिये आमंत्रण दें। नवयुग का को विश्व का धर्म बनाने के उद्देश्य से अपना-अपना मिशन यह कार्य है। नये-नये लोग इसे उठावें । हम तो इसे आशीर्वाद चला रहे हैं। 'अपना धर्म छोडो, और हमारे धर्म में आ जाओ' देकर ही संतोष मानेगे । आशीर्वाद के साथ यथाशक्ति थोडीऐसी धर्मान्तर कराने की महत्त्वाकांक्षा उन मिशनों में है। बहुत सेवा करने की बात आ ही जाती है। लेकिन यह काम
अनेकांतवादी महावीर सब धर्मों को अभयदान देकर है तो नवयुग का ही। उनको विश्वशांति और विश्वमैत्री' का बोध दे रहे हैं। इतना (मंगलप्रभात में १ अक्टूबर १९७३, में प्रकाशित लेख) ,
श्री शान्तिभाई ब्यावर से 'जैन शिक्षण संदेश' नामक मासिक पत्रिका का संपादन करते थे। उसके बाल-विशेषांक में विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने एवं राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू ने बालोपयोगी शिक्षण-संदेश भेजे थे वे दोनों ऐतिहासिक पत्रों को उन्हीं के हस्ताक्षरों में प्रकाशित कर रहे हैं। ये दोनों पत्रों के ब्लाक हमें आदरणीय बंधु श्री गुलाबचंदजी जैन के सौजन्य से प्राप्त हए हैं।
-सम्पादक
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अनुवाद
हम बच्चों को अपना सर्वोपरि प्रेम देकर ही मानव-समाज के प्रति अपना उत्तरदायित्व पूरा कर सकते हैं। -रवीन्द्रनाथ टैगोर ता०१-४-३६
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श्री शान्तिलाल वनमाली शेठ अमत-महोत्सव
समारोह-समिति के सदस्य
श्री जैनेन्द्र कुमार जैन, दिल्ली साहू श्रेयांसप्रसाद जैन, बंबई श्री दीपचंद गार्डी, बंबई श्री रतनलाल गंगवाल, दिल्ली श्री सांचेलाल बाफना, औरंगाबाद श्री नृपराज जैन, बंबई श्रीमती विद्याबहिन शाह, दिल्ली डॉ० लक्ष्मीमल सिंघवी, दिल्ली डॉ० माधुरी शाह, बंबई प्रो० यशवंत शुक्ल, अहमदाबाद डॉ० बूलचंद जैन, दिल्ली श्री राजकुमार जैन, दिल्ली श्री हीरालाल जैन, लुधियाना श्री अजितराज सुराणा, दिल्ली श्री डालचंद जैन, एम० पी०, दिल्ली श्री नवलमल फिरोदिया, पूना श्री अक्षयकुमार जैन, दिल्ली श्री यशपाल जैन, दिल्ली श्री विष्णुभाई प्रभाकर, दिल्ली श्री गुलाबदास ब्रोकर, बंबई श्री सौभाग्यमल जैन, शुजालपुर श्री जवाहरलाल मुणोत, बंबई
श्री ओंकारलाल बोहरा, उदयपुर श्री बलवंतसिंह मेहता, उदयपुर डॉ० नरेश मंत्री, टोकियो (जापान) डॉ० रामसिंह, भागलपुर डॉ० दयानंद भार्गव, जोधपुर डॉ० जगदीशचंद्र जैन, बंबई डॉ० प्रभाकर माचवे, दिल्ली डॉ० सत्यव्रत, दिल्ली डॉ० वी० एम० कुलकर्णी, बंबई डॉ० अमृतलाल गोपाणी, बंबई प्रो० लक्ष्मीचंद जैन, जबलपुर डॉ० कोमलचंद सोगाणी, उदयपुर डॉ० बी० यु० पारेख, अमदाबाद डॉ० विलास ए० सांगवे, कोल्हापुर डॉ० प्रेमसुमन जैन, उदयपुर डॉ० कुमारपाल देसाई, अमदाबाद डॉ० दामोदर शास्त्री, दिल्ली डॉ० राजेन्द्रप्रकाश भटनागर, उदयपुर डॉ० निजामुद्दीन, श्रीनगर डॉ० गोपीलाल 'अमन', दिल्ली डॉ० बी० के० खड़बड़ी, धारवाड़ डॉ० महेन्द्र भानावत, उदयपुर
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डॉ० राजमल जैन, नई दिल्ली डॉ० एम० पी० पटेरिया, चुसरा डॉ. उदयचन्द्र जैन, वाराणसी डॉ० उमाकान्त पी० शाह, बड़ौदा डॉ० एन० जे० शाह, अमदावाद डॉ० मारुतिनंदन तिवारी, वाणारसी डॉ० भागीरथप्रसाद त्रिपाठी, वाणारसी डॉ० हरीन्द्रभूषण जन, उज्जैन डॉ० विमलप्रकाश जैन, जबलपुर डॉ० आत्मानंदजी, कोबा (अहमदाबाद) श्री जौहरीमल पारख, जोधपुर श्री सतीशकुमार जैन, नई दिल्ली श्री व्रजभूषण मिश्र, लखनऊ श्री हर्षचन्द्र जैन, दिल्ली श्री जिनेन्द्रकुमार जैन, जयपुर श्री महासुखभाई जे० देसाई, बंबई डॉ. जयंत मेहता, बांदरा, (बंबई) श्री गजेन्द्रकुमार जैन, अजमेर श्री पूर्णचन्द्र जैन, जयपुर डॉ० रसिकलाल शाह, राजकोट श्री नटवरलाल ठक्कर, चुंचुमिलांग श्री रवीन्द्र केलेकर, पणजी (गोवा) डॉ० ईश्वरभाई पटेल, अमदाबाद श्री फकीरचंद मेहता, इन्दौर श्री पन्नालाल नाहटा, दिल्ली श्री व्रजलाल के गांधी, घाटकोपर श्री भाईलाल तुरखिया, इन्दौर श्री भूपराज जैन, कलकत्ता श्री चंदनमल बनवट, आस्टा श्री शान्तिलाल पोखरना, भीलवाड़ा श्री कन्हैयालाल लोढ़ा, जयपुर श्री जितेन्द्रकुमार जैन, वाणारसी श्री फूलचंद्र जैन, दिल्ली श्री शामलदास जे० शेठ, मस्कत श्री वीरजे० डी० जैन, गाजियाबाद
श्री मोहनलाल खारीवाल, बेंगलोर श्री जयन्तिलाल आचार्य, अमदाबाद श्री गुलाबचंद जैन, दिल्ली श्री दौलतसिंह जैन, दिल्ली श्री सुभाष ओसवाल, दिल्ली श्री प्रेमचन्द्र जैन, नई दिल्ली श्री विपिनभाई बडोदरिया, दिल्ली श्री चंदुभाई झवेरी, दिल्ली श्री रामनारायण जैन, दिल्ली श्रीखुशालदास जे० शाह, पूना श्री कान्तिलाल कामदार, मद्रास श्री प्रभाकर कामदार, अमदाबाद श्री मोहनलाल देसाई, इन्दौर श्रीमती भुवनेश्वरी भंडारी, इन्दौर श्री जेठालाल दोशी, सिकन्द्राबाद श्री कान्तिलाल जी० मेहता, मलाड़ श्री जे० डी० मित्तल, दिल्ली श्री पिण्डीदास जैन, दिल्ली श्री वीरेन्द्रकुमार जैन, दिल्ली श्री वेदप्रकाश जैन, नवांशहर श्री बुधमल शामसुखा, दिल्ली श्री रिषभदास कर्णावट, जोधपुर पं० शोभाचन्द्र भारिल्ल, ब्यावर श्री कान्तिलाल कोरा, बंबई श्री भगतराम जैन, दिल्ली श्री छोटुभाई पटेल, दिल्ली श्री रमणीक शाह, अहमदाबाद श्री नानालाल रूणवाल, झाबुआ श्री जोधराज सुराणा, बेंगलोर श्री शोरीलाल जैन, दिल्ली श्री माणकचन्द जैन, जोधपुर श्री जनार्दन शास्त्री, दिल्ली श्री इन्द्रचन्द्र जैन, दिल्ली श्री सुमन्तभद्र, दिल्ली श्री जसवंतलाल जी० शाह, घाटकोपर
IMITII
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‘সটিতে ঠাসনী’ স্ত্রী নিলাল নালী ছাত
अमृत-महोत्सव समिति के सदस्यों के
प्रतिभाव
[ हमने मित्रों को श्री शान्तिभाई शेठ के अमृत महोत्सव समिति के सदस्य बनने की प्रार्थना की थी। सभी ने सदस्यता स्वीकृत की थी। किन्तु कुछेक ने स्वीकृति के उपरान्त श्री शान्तिभाई के विषय में अपने प्रतिभाव को व्यक्त किया था उनमें से कुछ के प्रतिभाव यहाँ मद्रित हैं।]
-सम्पादक शिक्षा-शास्त्रियोंकी नजरों में ।
मैं श्री शान्तिभाई को, जो अपने आदर्श द्वारा जैन-धर्म श्री शान्तिभाई के ७५ वर्ष के दीर्घकालीन शैक्षणिक का चारों ओर प्रचार-प्रसार करनेवाले अध्यापकों में से एक एवं सामाजिक कार्यकलापों के उपलक्ष्य में उनका जो सम्मान
मानता हूँ । उन्होंने भगवान महावीर के २५ वीं शताब्दी वर्ष किया जा रहा है, मैं उसमें अपने को सम्मिलित करने में
में जैन समाज की जो निःस्वार्थ सेवा की है और इस उपलक्ष्य प्रसन्नता का अनुभव करती हूँ।
में उनको 'सन्निष्ठ समाजसेवी' जो उपाधि प्रदान की गई -डा० माधुरी शाह, बंबई है-वह उपयुक्त ही है । वास्तव में श्री शान्तिभाई समिति जब मैं बनारस विश्वविद्यालय में प्राध्यापक था तब
के आधारस्तंभ हैं। वे सम्मान के अधिकारी हैं। मैं उनके से मैं उनसे परिचित हैं। वे विश्वसनीय और उच्चकोटि के अमृतोत्सव की संपूर्ण सफलता चाहता हूँ। मेरे सन्मिन रहे हैं इतना ही नहीं वे उदात्त मनोवृत्ति और उच्च सामाजिकता के आदर्श हैं।
-डा०बूलचन्द, नई दिल्ली
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श्री शान्तिभाई के सत्कार-सम्मान में मेरी सहर्ष सुसंस्कारों से प्रेरणा मिले, इसलिए भी अमत महोत्सव का . स्वीकृति है।
__ आयोजन स्तुत्य है। --डा० लक्ष्मीमल सिंघवी, नई दिल्ली
__ -डा. महेन्द्र भानावत, उदयपुर श्री शान्तिलाल शेठ की अमत-महोत्सव समिति की श्री शान्तिलाल शेठ जैसे समाज-भूषणों के कार्य की सदस्यता पाकर मैं अपने को सौभाग्यशाली समझता हूँ। समर्थक सराहना करना हमारा कर्तव्य है। -डा० दयानंद भार्गव, जोधपुर
-डा० बी० के० खड़बड़ी, धारवाड़ सुप्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता, विद्वान् और राष्ट्रप्रेमी 'यथा नाम तथा गुणः' को चरितार्थ करने वाले शान्तिश्री शान्तिलाल शेठ के अमतोत्सव समिति में सदस्यता पाकर भाई जी का हार्दिक स्नेहाशीषपूर्ण सान्निध्य मझे जितनामैं धन्यता का अनुभव करता हूँ।
जो कुछ मिला, उसे मैं अपने अतीत के सुखद-संयोग के रूप --डा० पी० एम० कुलकर्णी, बंबई में मानता है। मैंने, उनसे सदा कुछ न कुछ पाया ही है । पर, शान्तिभाई मेरे प्रिय शिष्य रहे हैं। मैं उनका अभिनंदन उन्हें अब तक कुछ भी दे नहीं सका। क्या करूं ! अंतर के शुभाशीर्वाद प्रेषित करता हूँ। अमृतोत्सव
-डा० एम० पी० पटैरिया की पूर्ण सफलता चाहता हूँ।
धार्मिक, राजनीतिक, साहित्यिक आदि क्षेत्रों में भी -डा० अमृतलाल गोपाणी, बंबई
शान्तिभाई द्वारा की गई दीर्घकालीन सेवाओं को दृष्टि में श्री शान्तिभाई के अमत-महोत्सव मनाने की योजना
रखकर उनका अमत-महोत्सव मनाया जाना स्तुत्य एवं बहत पसंद आई। योजना सफल हो यही अन्तर्भावना।
आवश्यक है। यह भी उचित ही है कि अमत-महोत्सव के -डा० कमलचन्द सोगाणी, उदयपुर
अवसर पर उनको एक 'साहित्य-निधि' समर्पित की जा श्री शान्तिभाई के ७५ वर्षीय समाज-सेवा का सन्मान रही है। हेतु अमत महोत्सव का आयोजन किया गया है यह सामयिक
--डा० उदयचन्द्र जैन, वाराणसी और समाजोपयोगी है।
श्री शान्तिलाल शेठ के अमृत महोत्सव के आयोजन का -डा०विलास ए० सांगव, कोल्हापुर निश्चय किया है यह उचित एवं गौरव का विषय है। श्री शान्तिभाई शेठ की सेवाएँ जैन-संस्कृति के लिए
-डा० मारुतिनन्दन तिवारी, वाराणसी बहमूल्य हैं। अत: ऐसे कर्मठ कार्यकर्ता एवं विद्वान का
आदरणीय श्री शान्तिलाल भाई ने साहित्य और समाज सत्कार-सम्मान होना ही चाहिए।
__ की प्रचुर सेवा की है। उनका सम्मान होना ही चाहिए । -डा० प्रेमसुमन जैन, उदयपुर
-प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी, सागर श्री शान्तिलाल शेठ जैसे कार्यनिष्ठ विद्वान् और राष्ट्रीय
. श्री शान्तिलाल शेठ के आदर्श जीवन और उनकी सेवाकार्यकर के अमृत महोत्सव का विचार अत्यन्त स्तुत्य और प्रशस्त है।
भावना समाज के लिए अनुकरणीय हैं।
-श्री डालचंद जैन, संसद सदस्य -डा० ईश्वरभाई पटेल, अहमदाबाद - इस आयोजन के लिए मेरे हृदय की शुभकामनाएँ
श्री शान्तिभाई शेठ का अमृत महोत्सव के आयोजन का स्वीकार करें।
विचार सर्वथा श्लाध्य और अनुशंसनीय है। -डा० निजामुद्दीन, श्रीनगर
-डा० विमलप्रकाश, जबलपुर - श्री शान्तिभाई ने जैन समाज की जो सेवा की है वह मान्यवर श्री शान्तिलाल जी शेठ की दीर्घकालीन इतिहास का एक अध्याय बन चुकी है। उनसे प्रेरणा लेकर सामाजिक सेवाओं के उपलक्ष्य में उनका अमृत-महोत्सव के कई लोग समाज के विभिन्न क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण सेवा-कार्य आयोजन के विचार से मैं पूर्ण सहमत हूँ और योजना का कर रहे हैं। शेठजी का अभिनंदनभाव, संवेदनशील समाजसेवी समर्थन करता हूँ। का अभिनंदन है। आने वाली पीढी को भी इनके कार्यों से,
--डा. हरीन्द्र भूषण जैन, उज्जैन
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यह जानकर प्रसन्नता हुई कि श्री शान्तिलाल शेठ के साहित्यकारों की नजरों में ७५ वर्ष पूर्ण होने पर उनका अमृत-महोत्सव मनाने की श्री शान्तिभाई समन्वय के उपासक हैं—यह मेरे लिए योजना बनाई गई है। यह योजना प्रशंसनीय है। श्री शान्ति आकर्षण का विषय है। स्व० आचार्य श्री काकासाहेब भाई का सेवामय जीवन विशेष यशस्वी बने यही कामना है।
कालेलकर के सान्निध्य में उन्होंने दस वर्ष व्यतीत किये, यह -साहू श्रेयसिप्रसाद जैन भी कितनी बडी बात है! उनकी समन्वय-साधना सफल हो श्री शान्तिलाल शेठ अमृत महोत्सव एवं सन्मति-साहित्य
और उनका स्वास्थ्यपूर्ण एवं सेवापूर्ण जीवन सार्थक सिद्ध प्रकाशन कार्य के लिए कोष स्थापित करना-ये दोनों कार्य हो यही मेरी अन्तर्भावना है। समयोचित एवं समाजोपयोगी हैं।
-प्रो० यशवंत शुक्ल, अहमदाबाद -- रतनलाल गंगवाल, नई दिल्ली बन्धुवर शान्तिलाल शेठ के यशस्वी ७५ वर्ष पूर्ण करने
पर उनका अमृत-महोत्सव करने की योजना है—यह जानकर श्री शान्तिभाई की मूल्यवान् सेवाएँ हैं और अमृत- हर्ष हआ। मैं इस अनुष्ठान में पूरे हदय से आपके विचार के महोत्सव पर उन्हें अर्पित की जाने वाली 'निधि' भी वे ,
साथ हूँ।
–यशपाल जैन, दिल्ली श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम, बनारस को अपने योगदान के साथ
श्री शान्तिभाई सामाजिक, धार्मिक और राष्ट्रीय सेवाओं भेंट कर एक आदर्श स्थापित करने वाले हैं। धन्यवादाह हैं।
के क्षेत्र में केवल गुजरात में ही नहीं अपितु सारे भारतवासियों -नपराज एस. जैन, बंबई
के दिल में बसे हैं। ऐसे सन्निष्ठ कार्यकर्ता को यशस्वी ७५ श्री शान्तिभाई शेठ की सेवाओं और कार्यों का लेखा- वर्ष की आयु पूर्ण करने पर, उनकी मित्र-मंडली और अन्य जोखा, उनकी कर्मठता, मनस्विता और निष्ठा का परि- लोगों ने अमृत-महोत्सव का आयोजन करके न केवल समाज चायक है।
को अपितु आने वाली पीढ़ी को मार्गदर्शन देने का कार्य - श्री बुधमल शामसुखा, दिल्ली किया है ।
-विद्याबहेन शाह, दिल्ली अपने क्रिया-कलापों से समाज और राष्ट्र को अनुप्राणित
__ श्री शान्तिलाल वनमाली शेठ अमृत-महोत्सव का कर अमरत्व प्राप्त करने वाले महापुरुषों में श्री शान्तिलाल
आयोजन उचित ही नहीं, सामयिक भी है। वे मेरे पुराने मित्रों वनमाली शेठ का नाम अग्रपंक्ति में है।
में से एक हैं। मैं उत्सव की सफलता चाहता हूँ।
--ओंकारलाल बोहरा, भू०पू० संसद सदस्य, उदयपुर - वे जैनधर्म को एक विश्वधर्म के रूप में देखते हैं । उनका यह जीवन-दर्शन मानव धर्म को प्रदर्शित करता है।
यह जानकर अत्यंत हर्ष हो रहा है कि श्रद्धेय श्री शान्ति• प्रायः देखा गया है कि अच्छे समाजसेवी, अच्छे साहित्य- मा
भाई शेठ का अमत-महोत्सव आयोजित किया जा रहा है। प्रेमी नहीं होते। परन्तु श्री शेठ में ये दोनों उपलब्धियाँ राष्ट्र और समाज के लिए यह गौरव का विषय है। विद्यमान हैं। वे अच्छे साहित्यकार होने के साथ उच्चकोटि
--जिनेन्द्रकुमार-संपादक 'जैन समाज' दैनिक, जयपुर के समाजसेवी भी हैं। उनके जीवन के दो स्वप्न--'जैन श्री शान्तिभाई एक निश्छल, स्नेही और सेवाभावी साहित्य अकादमी' और 'जैन प्रशिक्षण संस्थान' की स्थापना कार्यकर्ता रहे हैं । वे जहाँ भी रहे हैं, उन्होंने अपने प्रशंसकों की पृष्ठभूमि में भी उनका असाम्प्रदायिक मानवधर्म ही और सुहृदों की एक लम्बी शृंखला कायम की है। विद्वानों उत्प्रेरक है। समस्त देशवासी बन्ध उनके स्वप्नों को साकार की चिन्तनशीलता और कार्यकर्ताओं की सक्रियता-उनमें दोनों बनाने में सहयोगी बनेंगे।
का ही समावेश है। विद्वत्ता और सक्रियता का संयोग दुर्लभ गांधी विचारधारा, राष्ट्रसेवा, दलितोद्धार और समन्वय- रूप में ही देखने को मिलता है। श्री शान्तिभाई में वह दुर्लभ कार्य के लिए उनका संपूर्ण जीवन व्यतीत हुआ है । सम्बद्ध संयोग है। -हर्षचन्द्र, संपादक कथालोक' मासिक, दिल्ली अनेक संस्थाओं में सक्रिय कार्यकर्ता रहकर उन्होंने महान श्री शान्तिभाई का अमृतमहोत्सव अवश्यमेव होना ही योगदान दिया है।
चाहिए । प्राकृत भारती अकादमी उससे पूर्णतः सहमत है। -डा. राजेन्द्रप्रकाश भटनागर, उदयपुर
-विनयसागर, निदेशक और संयुक्त सचिव
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श्री शान्तिभाई एक आदरणीय स्नेही हैं । उनके निमित्त हो रहे कार्य में सम्मिलित होने का अवसर आपने दिया उससे बड़ी खुशी होती है । वास्तव में श्री शान्तिभाई स्नेहशील सज्जन हैं ।
-नटवरलाल ठक्कर, मंत्री, नागालेण्ड गांधी आश्रम, श्री शान्तिलाल वनमाली शेठ अमृत महोत्सव समयोचित है । मैं इसकी पूर्ण सफलता चाहता हूँ ।
-डॉ० सत्यव्रत, दिल्ली श्री शान्तिभाई के ७५ वर्ष पूर्ण होने पर अमृत महोत्सव के आयोजन की सफलता चाहता हूँ मेरी हार्दिक शुभ । मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ स्वीकार करें ।
विष्णु प्रभाकर, सुप्रसिद्ध साहित्यकार, दिल्ली श्री शान्तिलाल व० शेठ अमृत महोत्सव का आयोजन समयोचित है । ऐसे विद्वान् का सम्मान होना सर्वथा अभीष्ट है ।
- गुलाबदास जोकर, सुप्रसिद्ध गुजराती साहित्यकार, बंबई श्री शान्तिमाई के अमृत महोत्सव पर गत ३५ वर्ष के उनके परिचय के आधार पर बड़ा संस्मरण लिखना चाहता या किन्तु निर्बल स्वास्थ्य के कारण शक्य नहीं है।
शान्तिभाई जैसा सरल, समाज के प्रति ममता रखनेवाला व्यक्ति ७५ वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है—ऐसा लगता ही नहीं है । मानसिक रूप से वे अब भी 'युवा' ही लगते हैं । चाहे वय वृद्ध हों लेकिन हृदय से वे युवा ही हैं। इस शुभावसर पर मेरी शुभ-कामनाएँ स्वीकार कीजिए ।
- अक्षयकुमार जैन, सुप्रसिद्ध पत्रकार, नई दिल्ली श्री शान्तिभाई शेठ से मेरा संबंध पारिवारिक संबंध से भी अधिक प्रगाढ़ है । ऐसे सेवानिष्ठ महापुरुष का सम्मान करके हम गुणों का ही आदर करते हैं। मुझे इस समाचार से असीम आनंद मिला है । स्व० बाबा चेतनदास, परम तपस्वी सन्त का यह कुटुम्ब है, जिनके प्रताप से जनपद-मिर्जापुर की प्रचुर सेवा करने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ है। यह परिवार परम पावन, भारतीयता एवं भारतीय संस्कृति का दर्पण है।
जैसे शेठजी है, वैसा ही विनम्र धर्मनिष्ठ और सात्विक उनका सारा कुटुम्ब है। बेटी सौ० दया तो दया की मूर्ति ही है ।
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अमृत महोत्सव का यह शुभ अनुष्ठान पूर्णतः सफल होयही अन्तर्भावना |
- ब्रजभूषण मिश्र, संपादक, 'प्रामवासी' लखनऊ
श्री शान्तिभाई शेठ की संवर्धना समिति की सदस्यता के लिए आभारी हूँ। सहृदयी श्री शान्तिभाई का अमृत महोत्सव सांगोपांग सफल हो-यही भावना ।
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-डॉ० प्रभाकर माचवे भू० पू० मंत्री, साहित्य अकादमी श्री शान्तिभाई शेठ को दी जानेवाली निधि भी पार्श्वनाथ विद्याश्रमको 'सन्मति साहित्य' के निर्माणार्थ सहायतारूप होगी यह उद्देश्य शुभ और अभिनंदनीय है। -श्री पूर्णचन्द जैन, जयपुर श्री शान्तिभाई का सम्मान करना, एक उत्साही कार्यकर्ता और विद्वान् का सम्मान है ।
पं० शोभाचन्द्र भारिल्ल ब्यावर
सामाजिक सेवकों की नजरों में
श्री शान्तिभाई को मैं भलीभाँति जानता हूँ । जब अ० भा० श्वे० स्था० जैन कॉन्फ्रेंस, नई दिल्ली के कार्यों में अधिक रस लेता था तब शान्तिभाई का सान्निध्य, सहयोग मुझे सदैव प्राप्त होता रहा। उक्त संस्था तथा अन्य सामाजिक कार्यों के लिए शान्तिभाई का सक्रिय योगदान अविस्मरीय है।
श्री सौभाग्यमल जैन, एडवोकेट, शुजालपुर श्री शान्तिलाल भाई शेठ द्वारा जैन समाज की बहुआयामी सेवा सर्वविदित है । मैं विशेषरूप से १९५५ से १९६५ के दिन याद कर रहा हूँ, जब वे अ० भा० श्वे०स्था० जैन कान्फ्रेंस के मंत्री थे और जिनके संपादकत्व में हिन्दीगुजराती पत्र- जैन-प्रकाश' ने बहुत ख्याति अर्जित की थी। ऐसे अजातशत्रु, जैनाकाश के देदीप्यमान नक्षत्र के अमृत महोत्सव का समायोजन जैन समाज करे यह नितान्त उपयुक्त और आवश्यक है। महोत्सव संपन्न करने के आयोजन को हार्दिक बधाइयाँ ।
- श्री जवाहरलाल मुणोत, बंबई श्री शान्तिभाई की जैन समाज की निष्काम सेवाएँ अविस्मरणीय हैं पर देश के अनेक क्षेत्रों में भी उनकी कार्यसेवाएँ रही हैं। श्री शान्तिभाई का अभिनंदन भावी पीढ़ी के लिए प्रेरणादायी सिद्ध होगा ऐसा मेरा विश्वास है।
- बलवंत सिंह मेहता, भू० पू० संसद सदस्य, उदयपुर श्री शान्तिभाई ने वर्षों पर्यन्त समाज के अनेक सेवाक्षेत्रों में जो अमूल्य सेवा प्रदान की है इसका मैं साक्षी हूँ। मेरा उनके साथ निकट का स्नेह-संबंध रहा है । इनका अभिनंदन, समाज का अभिनंदन है अतः उसका आयोजन सार्वजनिक
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स्थान पर करना चाहिए जिसमें भारत के प्रमुख व्यक्तियों श्री शान्तिभाई मेरे आत्मीय बन्ध हैं। उनकी प्रशंसा को आमंत्रित किये जाना चाहिए और उसमें समाजोपयोगी में कुछ भी लिखना आत्मप्रशंसा हो जाती है। उनका सर्वधर्मसेवायोजना को मूर्त रूप दिया जाना चाहिए, ऐसा मेरा नम्र समभाव का आदर्श अनुकरणीय है। मंतव्य है।
-विपिनभाई बडोदरिया, दिल्ली --सतीश कुमार जैन, नई दिल्ली श्री शान्तिभाई के साथ वर्षों पर्यन्त श्री अ०भा० श्वे. यह बड़े हर्ष का विषय है कि विद्वान्-समाज के प्रयत्नों स्था० जैन कॉन्फ्रेन्स के मंत्री के रूप में हम दोनों ने कंधे से से समाजसेवी 'समाज-रत्न' श्री शान्तिभाई के राष्ट्रीय एवं कंधा मिलाकर सामाजिक कार्य किये हैं। आज गंगा-यमुना सामाजिक कार्य आदर्श रूप में जनमानस के समक्ष आने से के संगम के भाँति हम दोनों का पुनः सेवा-संगम यहाँ हो उत्साह बढ़ेगा और प्रेरणादायी सिद्ध होंगे। मेरी शभकामनाएँ गया है यह हमारा सौभाग्य है। मैं अपने बड़े भाई के इस स्वीकार करें।
अमृतोत्सव के पावन-प्रसंग पर उन्हें अभिनंदन के साथ
-फलचंद जैन, दिल्ली अभिवंदन करता है। सन् 1956 से 1960 तक मुझे श्री शान्तिलाल भाई
-रामनारायण जैन, दिल्ली के साथ कार्य करने का अवसर मिला है और तब से अब तक श्री शान्तिभाई ने केवल जैन समाज के ही नहीं अपितु उनके साथ मेरे सम्बन्ध निरन्तर प्रगाढ़ हुए हैं।
समग्र मानव-समाज के प्रखर सन्निष्ठ समाजसेवी के रूप में जैनधर्म के प्रचार-प्रसार, उन्नयन एवं संवर्धन में शान्ति- विविध क्षेत्रों में जो निष्काम सेवा की है, वह वर्णनातीत है। भाई का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। वे एक कर्मठ कार्यकर्ता, संसारी होते हुए भी उनका जीवन सेवा-समर्पण से अथक सेवाभावी एवं जैन साहित्य तथा दर्शनके मर्मज्ञ विद्वान् सुवासित है। उनका सेवामय जीवन आज के नवयुग के लिए हैं। उनका व्यक्तित्व सुदर्शन तथा बहुआयामी है। ऐसे कर्म- प्रेरणास्रोत है। कंटकाकीर्ण मार्ग को उन्होंने प्रशस्त मार्ग योगी का अभिनंदन भावी पीढ़ी के कार्यकर्ताओं के लिए बना लिया है । उनका अभिनंदन एवं अभिवंदन करके हम निश्चित ही उत्प्रेरक और मार्गदर्शक होगा।
धन्यता अनुभव करते हैं। -भूपराज जैन, कलकत्ता
-छोटूभाई पटेल, दिल्ली भाई साहब श्री शान्तिलाल शेठ का अमृत-महोत्सव आत्मबन्धु श्री शान्तिभाई का सौजन्य, सौहार्द एवं का आयोजन व्यक्ति का नहीं, समाज का है। श्री शान्तिभाई स्नेहसिक्त सद्भाव मेरे लिए सदा स्मरणीय रहेगा। का सम्मान-अभिनंदन द्वारा नवोदित भावी पीढ़ी में समाज
-महासुखलाल जे० देसाई, बंबई सेवा के लिए प्रेरणा प्राप्त होगी। मैं इस आयोजन की पूर्ण सौजन्यमूर्ति श्री शान्तिभाई की अनेकविध समाज-सेवा सफलता चाहता हूँ।
का सम्मान करना हमारा नैतिक कर्तव्य है। इस महत्त्व-शान्तिलाल पोखरणा, भीलवाड़ा पूर्ण कार्य में सहभागी बनने में मैं गौरव का अनुभव करता है। वीरपूजा-हमारी सभ्यता-संस्कृति का आदर्श रहा है।
-कान्तिलाल कोरा, बंबई श्री शान्तिभाई एवं सौभाग्यवती दयाबहिन-दोनों राष्ट्र- श्री शान्तिभाई के अमत-महोत्सव के प्रसंग पर 'सन्मतिसेवा, समाजसेवा एवं मानवसेवा में जीवन भर विनम्र सह- साहित्य-निर्माण की योजना' का कार्य संपन्न होने जा रहा यात्री रहे हैं।
है-यह पढ़कर हार्दिक प्रसन्नता हुई है। मैं इस समाजोउनकी सेवाओं एवं कर्तव्य का सम्मान होना ही पयोगी साहित्यिक कार्य की सफलता चाहती हूँ। चाहिए।
-भुवनेश्वरी भंडारी, इन्दौर -चंदनमल बनवट, आष्टा (म०प्र०)
श्री शान्तिभाई समाज के प्रत्येक सेवाक्षेत्र में सफलता सेवानिष्ठ सौजन्यमूर्ति श्री शान्तिभाई का हँसमुख चित्र प्राप्त कर अभिनंदन के अधिकारी बन गये हैं। मैं उन्हें इस · दष्टि समक्ष आते ही प्रमोदभाव पैदा होता है।।
अभिनंदन-समारोह के प्रसंग हर हार्दिक अभिवंदन करता हूँ। -जेठालाल एच० दोशी, सिकंदराबाद
--वेदप्रकाश जैन, नयाशहर (दोआबा)
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मेरे सन्मित्र श्री शान्तिभाई के अमृत-महोत्सव के सुखद क्षेत्रों में सक्रिय सेवारत हैं और अग्रणी हैं। उनका अभिनंदन समाचार पढ़कर मैं आनंदविभोर हो गया। राष्ट्र, समाज एवं करके हम समाज को अभिनंदित कर रहे हैं। उनकी वही धर्म की सेवा के लिए जिन्होंने अपना समग्र जीवन समर्पित हँसमुख वत्ति आज भी यथावत कायम रही है यह संतोष का कर दिया है ऐसे सन्निष्ठ समाजसेवी का सम्मान होना ही विषय है। चाहिए। श्री शान्तिभाई ने सन्मति साहित्य निधि और जैन
-स्व० नानालाल रूनवाल, झाबुआ सिद्धान्त-प्रशिक्षण संस्थान' की जो समाजोपयोगी योजना प्रस्तुत की है, उससे सामाजिक चेतना पैदा होगी और साथ
सन्निष्ठ समाजसेवी शान्तिभाई ऐसे कर्मयोगी एवं विद्वान ही जैनोदय का नवयुग भी प्रारंभ होगा।
हैं, ऐसा साथ में रहते हुए भी हम उन्हें समझ नहीं पाये यह यह सम्मान व्यक्तिगत नहीं है। यह तो समग्र जैन-समाज उनकी कैसी निरभिमानता है ! उनकी सेवाभावना और का सम्मान है । समाज-सेवा के इस पुनीत अवसर पर मैं तपश्चर्या फलीभूत हो रही है यह देखकर हर्षविभोर हो जाते. उपस्थित होने का अवश्य प्रयत्न करूंगा और समाजमाता के हैं। उनका यह अमृतोसव सफल हो-यही प्रार्थना । चरणों में श्रद्धासुमन अर्पित करूँगा।
-प्रभाकर एच० कामदार, अहमदावाद ___ मेरा आयोजकों से साग्रह निवेदन है कि इस सम्मान
सौजन्यमूर्ति-सरलात्मा शान्तिभाई का राष्ट्रीय सम्मान समारोह के प्रसंग पर सामाजिक उत्थान का कोई योजनाबद्ध
होने जा रहा है यह हम सब जेतपुरवासियों के लिए गौरव कार्यक्रम निश्चित करे और सम्मान-समारोह सम्मोह या
का विषय है। यावच्चन्द्र-दिवाकरौ-पू० शान्तिभाई की संभ्रम का कारण नहीं अपितु समाजोत्थान का एक प्रेरक प्राण-बल बने यही अन्तर्भावना है। समाजोत्थान के कार्य में
धवल कीर्ति चतुर्दिशा में फैलती रहे—यही भावना।
-मोहनलाल देसाई, इन्दौर सक्रिय सहयोग देना हम सबका नैतिक कर्तव्य है।
मैं आज ८१ वर्षीय है फिर भी सामाजिक एवं धार्मिक तीन वर्ष पर्यन्त शान्ति-निकेतन की आदिकुटीर में साथ कार्य में एक युवक हृदय की भांति अग्रगामी रहता हूँ । संतोष रहने का, विचार-विनिमय करने का और सहाध्यायी के रूप का विषय है कि मेरे कुटम्बीजन विशेषतः मेरे सुपुत्र सामाजिक- में आनंद-कल्लोल करने का जो हमें अवसर मिला उसकी सेवा के कार्य में तन, मन, धन से सहयोग देने में मुझे प्रेरित मधुर स्मति आज भी स्मति-पट पर आ जाती है तब ही नहीं, प्रोत्साहित भी करते हैं-यह भी सद्भाग्य ही है। आनंदाश्रु प्रवाहित हो जाते हैं । श्री शान्तिभाई प्रगति-पथ पर अन्त में, श्री शान्तिभाई चिरायु हों और समाजसेवा सतत अग्रसर होते रहें यही अन्तर्भावना। करते रहें यही मेरी हार्दिक शुभाशीष है।
-जयंतिलात आचार्य, अहमदाबाद शुभेच्छुक-शामलदास जटाशंकर शेठ, मस्कत
श्री शान्तिलाल वनमाली शेठ का अमृत-महोत्सव एक
ऐसे ज्ञानपीठ के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन है जिसने परम भागवत शान्तिभाई के व्यक्तित्व और कर्तृत्व से मैं बहुत ही
पुरुष की गरिमा को अभिनव आयाम दिये हैं। प्राणियों में प्रभावित हैं। वास्तव में श्री शान्तिभाई एक महान व्यक्तित्व,
मैत्री, और विपरीत परिस्थितियों में माध्यास्थवृत्ति धीरोदात्त कर्मठ समाजसेवी, धर्मपरायण, सूझबूझ के धनी और उच्च- ' कोटि के विभिन्न भाषाओं के विद्वान हैं। ऐसे सरल, निष्कपट,
पुरुषों के स्वाभाविक गुण हैं। अनेक सद्वृत्तियों के पारमिता
संगम श्री शेठ के महनीय-पथ का अनुसरण कर हमारी पीढ़ी विचारशील गांधीवादी समाजसेवक का अभिनंदन कर मैं
निःश्रेयस् के मार्ग पर अग्रसर होगी; इसी अभ्यर्थना के साथ धन्यता का अनुभव करता हूँ।
अमृतपुरुष श्री शान्तिलाल वनमाली शेठ के अमर यश एवं -जे० डी० मित्तल, दिल्ली
सूदीर्घ जीवन के लिये शासनदेव से प्रार्थना करता हूँ और श्री शान्तिभाई जब १८ वर्षीय तेज-तर्रार, प्रसन्नवदन उनके श्रीचरणों में-भारतीय जैन मिलन 'परिवार' की सश्रद्ध युवक थे (जो अब ७५ वर्षीय नवयुवक हैं) तब उनके विनयाञ्जलि अर्पित करता हूँ। परिचय में आया था। शान्तिभाई अब भी सभी सामाजिक
-जे० डी० जैन 'अध्यक्ष' भारतीय जैन मिलन
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प्रशस्ति/समन्त भद्र, दिल्ली,
वनमाली के सुरकानन के,
शान्तिसुमन सौरभ छविमान, पुण्डरीक पुरुषोत्तम अक्षर
सुधी-गगन के रवि दिनमान । करुणाप्रवण सुमित्र अलौकिक
गुणीप्रमोद सुदर्शन रूप, सित माध्यस्थवृत्ति संस्थानक
न्यायतीर्थ युगपुरुष अनूप । परमानन्दसहोदर ऋजुतम
विद्यारसिक हंसमतिमान, ऋचाछन्द विज्ञानमहोदधि
पारमिता के शुभ अवदान । प्रज्ञापुत्र मुदित श्वेताम्बर
जिनमार्गी जिनप्रिय जिनदास, भावश्रमण दीक्षित नरनागर
मानवता के तीर्थ प्रभास । सत्यकाम वाग्मी मधुराकृत
पुरुषार्थी प्रतिदान-प्रसून, प्रीतिपथी-सन्मति पथ-दर्शक
बोधिबीज साधक अन्यून । ब्रह्मयोनि ब्राह्मण प्राचेतस्
श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ विद्वान्, शान्ति निकेतन-स्नातक गुरुकुल
कवि रवीन्द्र के रूप महान् । वैय्यावृत्त्यविशिष्ट सुहृद्वर
वन्दन अभिनन्द अभिषेक, अमतनयन महोत्सव अमृत
वचनामृत धृतिक्षमा विवेक ।
श्री शान्तिलाल वनमाली शेठ का अप्रतिम व्यक्तित्व, आचार में अहिंसा और विचार में अनेकान्त का बहुआयामी दर्पण है जिसमें कालजयी पुरुष की निष्काम भावना और तपस्यारत मानस का पारदर्शी बिम्ब चित्ताकाशसूर्य की गरिमा समाहित किये हुए हैं। गुजरात के ग्रामीण परिवेश में जन्मे, गुरुकुल में शिक्षित हुए और समावर्तित हुए विश्वकवि रवीन्द्रनाथ के शान्ति निकेतन के विश्रुत विद्वान् स्वनामधन्य श्री विधुशेखर भट्टाचार्य के श्रीचरणों में, विद्याभूमि काशी में पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध-संस्थान के ज्ञानस्थविरद्वय पण्डित बेचरदास दोशी एवं पण्डित सुखलाल संघवी के निर्देशन में जैन धर्म-दर्शन का विशद अध्ययन किया और शाश्वतज्ञानतीर्थ की जंगमधारा के रूप में भगीरथ की निष्ठा लिये अनेकानेक जैनों ही नहीं, जैनतरों को भी ज्ञान दिया। ७५ वर्ष की परिपक्व अवस्था में भी युवकोचित उत्साह लिये आपका गरिमामय व्यक्तित्व पारसमणि के रूप में समाज को उपकृत किये हुए हैं। हमारा परम सद्भाग्य है कि हमारी नई पीढ़ी प्रज्ञापुरुष जैनन्यायतीर्थ श्री शान्तिलाल वनमाली शेठ के अमृत-महोत्सव समारोह में सम्मिलित हो रही है।
-इन्द्रचन्द्र कर्णावट, अध्यक्ष , अन्तर्राष्ट्रीय जैन कांग्रेस
श्री शान्तिभाई बड़े मिलनसार और कर्मठ व्यक्ति हैं। आपमें अद्भुत सर्जन-शक्ति है । शून्यमें से बड़ा सर्जन कर लेते हैं। इस उम्रमें भी आपका समाज तथा देश-सेवा का अदम्य उत्साह जवानों को भी शर्मा देने वाला है । व्यक्ति की शक्ति को पहचानने की आपमें अद्भुत क्षमता है । इसी कारण आप का व्यक्तित्व और कर्तृत्य की छाप समाज पर अमिट है।
आप अपने जैनधर्म के महावीर भगवान के अनेकान्तवाद से प्रेरणा लेकर पू०गांधीजी तथा पू० काकासाहेब के 'सर्वधर्मसमन्वय' का उद्देश्य को पूरा करने में जुटे हुए हैं।
आप की सफलता की बुनियाद में आपकी धर्मपत्नी सौ. दया बहन का सक्रिय सहयोग रहा है। दया बहिन स्वयं धार्मिक वृत्ति की सेवामूर्ति और सिद्धान्तनिष्ठ महिला हैं।
ऐसे सेवानिष्ठ श्री शान्तिभाई का अमृतोत्सव सफलतापूर्वक संपन्न हो और भगवान उन्हें अच्छा स्वास्थ्य दें, शतायु करें और उनके हाथों समाज और देश की सेवा सतत होती रहे यही प्रार्थना है।
सम्पादन में जमा चके जो 'जैनप्रकाश' वाली पैठ जैन समाज में तटस्थता की जिनकी चलती है ऐंठ, नमन उन्हें वे जिएँ पचत्तरगुणित पचत्तर साल ठेठ, ज्ञानी, दानी, सरल, शान्त, शान्तिलाल वनमाली शेठ
कृपाभिलाषी-गोपीलाल 'अमर', दिल्ली
-हसमुख व्यास, सचिव, आ० कालेलकर स्मारक-निधि
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जीवनशिल्पी सद्गरुदेव श्री कानजी स्वामी
संस्कृति, साहित्य और जैन-विद्या के
आजीवन सन्निष्ठ समाजसेवक साहित्योपासक श्री शान्तिभाई
लेखक-श्री महासुखलाल जे० देसाई
संपादक 'जैन-प्रकाश' पाक्षिक, बंबई.
श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए श्री शान्तिभाई
जेतपुरनिवासी वर्तमान में दिल्ली के श्री शान्तिलाल किया। साक्षात्कार-नाटिका, जवाहर-व्याख्यान-संग्रह भाग वनमाली शेठ ने अपने यशस्वी ७५ वर्ष पूर्ण करके ७६ वर्ष में १-४, जवाहर-ज्योति, धर्म और धर्मनायक, ब्रह्मचारिणी, मंगल पदार्पण किया है इसके लिए हार्दिक अभिनन्दन ! श्री विद्यार्थी और युवकों से, अहिंसा का राजमार्ग, महावीरांक, शान्तिभाई ने १५ वर्ष की उम्र में ही श्री अ०भा० श्वे स्था० जैन शिक्षण पत्रिका का बाल-विशेषांक, उत्थान, अहिंसा-पथ जैन कॉन्फ्रन्स द्वारा संस्थापित जैन ट्रेनिंग कॉलेज बीकानेर- आदि अनेक ग्रन्थों एवं पत्रों का संपादन और प्रकाशन किया। जयपुर में शास्त्राभ्यास करके 'जैन विशारद' और 'न्यायतीर्थ' पाँच वर्ष पर्यन्त श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध-संस्थान परीक्षा उत्तीर्ण की। बाद जैनागम और प्राकृत-भाषा का (बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय) में संचालक के रूप में सेवा विशेष अभ्यास अमदावाद में पं० वेचरदासजी के पास रहकर की और यहाँ पर 'जैन कल्चरल रिसर्च सोसायटी' एवं जयकिया। श्री शान्तिभाई में विद्या-अभ्यास की विशेष तमन्ना हिन्द को-ऑपरेटिव सोसायटी की स्थापना की। यहाँ पर थी अत: संस्कृत, प्राकृत, पाली के भाषाज्ञान द्वारा जैनधर्म, अनेक शोध-पत्रिकाओं का प्रकाशन भी किया।बनारस मे प्रज्ञाबौद्ध-धर्म और हिन्दू धर्म के तुलनात्मक अध्ययन के लिए चक्षु पं० सुखलालजी एवं पं० दलसुखभाई का सान्निध्य और विश्वकवि श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर की विश्व-भारती-शान्ति- मार्गदर्शन प्राप्त हुआ यह उनकी एक महान् उपलब्धि थी। निकेतन में महामहोपाध्याय श्री विधूशेखर भट्टाचार्य, आचार्य तत्पश्चात् छः वर्ष पर्यन्त स्था० जैन कान्फ्रन्स, जैन गुरुश्री जिनविजयजी तथा आचार्यश्री क्षितिमोहन सेन के कुल, व्यावर और समाज की अन्य संस्थानों में भी काम संरक्षण में चार वर्ष पर्यन्त अभ्यास किया। बौद्ध त्रिपिटक किया। जेसलमेर में आ० जिनविजयजी के नेतृत्व में प्राचीन पढ़ने के लिए सिंहली लिपि भी सीखी। यहाँ पर उनको विश्व ज्ञान-भंडारों के हस्तलिखित ग्रंथों के लेखन-संपादन कार्य का मान्य विद्वानों के परिचय में आने का स्वर्णावसर मिला। बहुमूल्य अनुभव मिला। कॉन्फरन्स के मानद मन्त्री और यहाँ धम्मसुत्तं (महावीर-वाणी) का संकलन-संपादन कर 'जैन-प्रकाश' हिन्दी-गुजराती साप्ताहिक के कई वर्षों तक विद्याभवन के 'स्नातक' बने।
संपादक के रूप में सेवा प्रदान की। ज्ञानोपार्जन की जिज्ञासा पूर्ण होने के बाद उन्होंने १० इसके बाद उनके जीवन में एक नया मोड़ आया। वर्ष पर्यन्त सामाजिक, साहित्यिक एवं धार्मिक विविध आचार्य श्री काकासाहब कालेलकर की छत्रछाया में गांधी संस्थानों में सेवा करने के साथ साहित्य-संपादन कार्य भी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा, मंगलप्रभात, श्रम-साधना केन्द्र,
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विश्व-समन्वय केंद्र तथा गांधी विचारधारा में विश्वास रखने गतवर्ष जैनमिलन इन्टरनेशनल-दिल्ली की आंतवाली अनेक सर्वोदय-संस्थाओं में रचनात्मक कार्य करने का राष्ट्रीय सामाजिक संस्था ने श्री शान्तिभाई की सामाजिक अवसर मिला । पू० गांधीजी, पू० विनोबाजी, पू० रविशंकर सेवाओं के उपलक्ष्य में उन्हें 'सन्निष्ठ समाजसेवी' के मानार्ह महाराज, जापान के पू. फूजी गुरुजी,श्री जयप्रकाश नारायण, पद से सम्मानित किया-यह भी जैन समाज के लिये गौरव बाबा राघवदासजी, श्री श्रीमन्नारायण आदि अनेक सर्वोदयी का विषय है। नेताओं के संपर्क में आना हुआ। खुदाई खिदमतगार सरहद श्री शान्तिभाई की सहचारिणी श्रीमती दयाबहिन भी के गांधी अब्दुल गफ्फारखान से भी निकट परिचय हुआ। समाज-सेवा में प्रेरणामूर्ति बन रही है यह भी सद्भाग्य की यह सब पू० काकासाहब की असीम कृपा का परिणाम है ऐसा बात है। शान्तिभाई का मंतव्य है।
श्री शान्तिभाई ने अपना समग्र जीवन ज्ञानोपासना एवं श्री शान्तिभाई ने १९६६ में झेगोरस्क-मास्को में साहित्य-साधना को समर्पित कर दिया है और अपना शेष विश्व-शान्ति-परिषद में जैनधर्म के प्रतिनिधि के रूप में जीवन भी साहित्य-सेवा में समर्पित करने की अन्तर्भावना सक्रिय भाग लिया और भगवान महावीर के 'साम्यभाव' का प्रकट की है। जीवन-संदेश सुनाया। वहाँ से ताशकन्द, समरकन्द आदि अन्त में, श्री शान्तिभाई ने अपने यशस्वी ७५ वर्ष पूरे प्रदेशों में पर्यटन करने का भी मौका मिला।
कर लिये हैं और ७६ वर्ष में मंगल प्रवेश किया है-इस सन् १९७२ में भगवान महावीर के २५वीं निर्वाण- अमृत-महोत्सव के शुभ प्रसंग पर उनको हम हार्दिक अभिशताब्दी महोत्सव की राष्ट्रीय समिति के एक मन्त्री के रूप में नन्दन के साथ वे स्वास्थ्यपूर्ण शताब्दी पूर्ण करें और रहकर महोत्सव को सफल बनाने में सक्रिय और महत्वपूर्ण साहित्योपसना की उनकी मनोभावना सफल और सार्थक हो योगदान दिया।
यही शुभ भावना है।
जीवन-दृष्टि : अनेकान्त की शिक्षा
जैन परिभाषा में एकांत से अनेकांत की ओर अग्रसर धर्म और अनेकान्त होना का अर्थ है अपने व्यवहार तथा विचार में दूसरों का भी ध्यान रखना। इसको 'सापेक्ष दष्टि' भी कहा जाता है। धर्म का लक्ष्य मनुष्य को वैयक्तिक भूमिका से ऊपर उठाअर्थात व्यवहार करते समय केवल अपनी सुख-सुविधा के का ध्यान न रखकर दूसरे का भी ध्यान रखना। इसी समानता या एकता का अनुभव कर सके। कुछ धर्मों ने प्रकार निर्णय करते समय दूसरी दष्टियों को भी ध्यान में
व्यक्ति को अपना लक्ष्य बनाया और कुछ ने समाज को। रखना। अपने व्यवहार में जो व्यक्ति दूसरों का जितना व्यक्तिवादी धर्मों ने उस तत्व की ओर ध्यान आकृष्ट किया, अधिक ध्यान रखता है, वह उतना ही 'सभ्य' कहा जाएगा। जहाँ प्रत्येक प्राणी दूसरे प्राणी के समान है। समाजलक्ष्यी इसी प्रकार निर्णय करते समय जितने अधिक दष्टिकोणों पर धर्मों ने ऐसे अतीन्द्रिय तत्त्व को प्रस्तुत किया जिसे प्राप्त कर विचार किया जाएगा, हम उतना ही सत्य के समीप होंगे। लेने पर वैयक्तिक भेद मिट जाता है। समतावादी धर्मों ने दु:ख धर्म, दर्शन, इतिहास, कला, विज्ञान आदि सभी विद्याओं का तथा बंधन का कारण वैषम्य बुद्धि को बताया। एकतावादी लक्ष्य है मनुष्य को स्वकेंद्रता से ऊपर उठाकर सर्वकेन्द्रित धर्मों ने भेदबुद्धि को । वैषम्य से साम्य की ओर तथा भेद से बनाना । धार्मिक जगत में इसे 'समता' कहा जाता है। अभेद की ओर अग्रसर होने को दूसरे शब्दों में एकांत से अनेदर्शनशास्त्र में 'सापेक्षवाद' और राजनीति में 'लोकतंत्र'। कांत की ओर बढ़ना कहा जा सकता है। कला के क्षेत्र में इसका अर्थ होगा वैयक्तिक अनुभूति और एकांतवादी दूसरे के साथ व्यवहार करते समय 'स्व' को सार्वजनिक अनुभूति में 'समरसता'। सच्चा कलाकार वही मुख्यता देता है और 'पर' को भूल जाता है। उसे 'स्व' के है जो प्राणीमात्र की अनुभूति को अपनी अनुभात बना लेता समान 'पर' को भी महत्व देने का पाठ सिखाना ही 'अनेकान्त है। सच्चा वैज्ञानिक वैयक्तिक धारणाओं को अलग रखकर को शिक्षा है।' वस्तु की गहराई में उतरता है। यही जीवन-दृष्टि है।
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१. सर्वोपयोगी सन्मति साहित्य प्रकाशन योजना
मेरी व्यक्तिगत मान्यता है कि जैनधर्म कोई सम्प्रदाय, मत या वाड़ाबंदी से आबद्ध नहीं है। वह तो वस्तुधर्म होने से विश्वधर्म है। जैनधर्म के सिद्धान्त सार्वभौम, सर्वोपयोगी एवं सार्वजनीन हैं । जैनधर्म में अहिंसा, अनेकान्त, अपरिग्रह आदि मानवतामूलक सिद्धान्त सर्वोदयकारी होने से वह सर्व मान्य मानव धर्म है ।
भारतीय संस्कृति, साहित्य तत्वज्ञान, धर्मशास्त्र, विज्ञान, इतिहास, कला- शिक्षण, शिल्प-स्थापत्य, आदि ऐसा कोई विद्याक्षेत्र नहीं है जिसमें जैन साहित्य का प्रवेश न हो । जैन - साहित्य तो भारत का ही नहीं अपितु विश्व - साहित्य का एक अविभाज्य अंग है किन्तु उसका परिचय एवं आधुनिक दृष्टि से संशोधन और प्रकाशन उचित मात्रा में नहीं हुआ है अतएव इसकी संपूर्ति के लिए मैं समझता हूँ 'कि सन्मति - साहित्य प्रकाशन योजना' को मूर्त स्वरूप दिया जाए और उसका संचालन कार्य श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी जैसी असाम्प्रदायिक और साधनसम्पन्न संस्था को सौंपा जाए।
मेरा अन्तर्भाव है कि उक्त योजनानुसार प्रकाशित सन्मति साहित्य
१. सर्वोपयोगी हो- - जैन- जैनेतर सभी को उपयोगी एवं कार्यपद्धति प्रारम्भ से ही असाम्प्रदायिक रही है। एकमात्र
सर्वोदयकारी हो ।
जैन विद्या का शिक्षण, सम्पादन, संशोधन एवं प्रकाशन
मेरी अन्तर्भावना
[ श्री शान्तिभांई को अपनी भावि योजना के विषय में पूछे जाने पर उन्होंने जो अन्तर्भावना व्यक्त की है वह यहाँ लिपिबद्ध की गई है । ]
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२. असम्प्रदायिक हो - प्रकाश्य सम्मति-साहित्य में कहाँ भी साम्प्रदायिकता का प्रथम या प्रवेश न हो।
३. सिद्धान्तों के अविरुद्ध हो - प्रकाश्य सम्मतिसाहित्य जैन-धर्म के मौलिक सिद्धांतों के अविरुद्ध हो और जिसमें विश्वमान्य सिद्धान्तों का वैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण हो वास्तव में यह सर्वोपयोगी सन्मति साहित्य प्रकाशन योजना समग्र जैन- समाजस्पर्शी योजना है। जैन समाज को जो साहित्यिक धरोहर विरासत में मिली है उस सर्वोपयोगी जैन साहित्य को जन-साधारण तथा असाम्प्रदायिक भाव से प्रकाशित कर वितरण करना और जनत्व, विश्वबन्धुत्व एवं समत्व का सर्वाधिक प्रचार-प्रसार करना मुख्य उद्देश्य है।
यह 'सर्वोपयोगी सन्मति साहित्य प्रकाशन योजना' आगे जाकर 'जैन साहित्य अकादमी' का रूप धारण करे, यह मेरा स्वप्न है ।
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२. पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी में 'जैन प्रशिक्षण संस्थान' की स्थापना
श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी एक असाम्प्रदायिक सर्वोच्च संस्था है। कुछ वर्षों तक मैंने इस संस्था के संचालन में योगदान दिया है और अनुभव किया है कि इस संस्था की संचालक समिति एवं उसकी
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ही संस्था का मुख्य उद्देश्य रहा है। यही कारण है कि इस संस्था में सभी जैन सम्प्रदाय के ही नहीं अपितु जैनविद्या के जिज्ञासु जनेतर शोधछात्रों को भी असाम्प्रदायिक दृष्टि से छात्रवृत्ति निवास आदि सभी सुविधाएँ समान रूप से प्रदान की जाती हैं । यही इस संस्था की महान् उपलब्धि और विशेषता है। इस विशेषता के मुख्य कारणभूत हैंस्व. प्रज्ञाच सुखलालजी, स्व० बहुश्रुत पं० बेचरदासजी और विद्वरेण्य पं. दलसुखभाई मालवणिया की असाम्प्रदायिक अनेकान्तदृष्टि और संचालक समिति की मात्र जैनविद्या के विकास के प्रति सन्निष्ठा और जैन साहित्य के प्रचार-प्रसार की उदार मनोवृत्ति । यह संस्था हिन्दू विश्वविद्यालय के सन्निकट और मान्यताप्राप्त है। अभी तक प्रायः ३० शोधछात्र जैनविया क्षेत्र में पी-एच० डी० हो गये हैं—यह इस संस्था की अभूतपूर्व सिद्धि है । तदुपरांत यह संस्था शास्त्री और आचार्य कक्षा के छात्रों को भी आर्थिक और अन्य सहायता प्रदान करती है । इस तरह इस संस्था ने अपने कार्यकलापों से अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त की है जो समग्र जैन समाज के लिए गौरव और संतोष का विषय है ।
इस संस्था में विद्या के सभी विषयों के संदर्भ-ग्रन्थों का एक विशाल समृद्ध पुस्तकालय है । वहाँ कार्यनिष्ठ कार्यकर्त्ता हैं काफी बड़ा स्थान है और सुविधाजनक छात्रालय, अतिथिगृह आदि निवास स्थान हैं।
वाराणसी विद्याधाम होने से इस संस्था में विद्या का विशुद्ध और अनुकूल वातावरण है । डॉ० सागरमलजी जैन जैसे सुयोग्य धर्मनिष्ठ निदेशक हैं। पं० दलसुखभाई जैसे मार्गदर्शक हैं और श्री भूपेन्द्रनाथ जैन (सुप्रसिद्ध शिक्षाप्रेमी लाला हरजसरायजी के सुपुत्र) जैसे कर्मठ और दृष्टिसम्पन्न मंत्री हैं। जैन समाज की सुप्रसिद्ध इस संस्था का सक्रिय सहयोग । प्राप्त हो तो यहाँ पर 'जैन ट्रेनिंग कॉलेज' (जैन प्रशिक्षणसंस्थान ) स्थापित किया जाय और हमारी कॉन्फ्रेंस इस समाजोपयोगी संस्था के निर्माण में अग्रगामी बने तो समाज में जैन विद्या के निष्णातों और सेवानिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ताओं की जो बड़ी कमी है उसकी आंशिक पूर्ति हो सकेगी।
मेरा जीवन-निर्माण भी श्री अ० भा० श्वे० स्था० जैन कॉन्फेंस द्वारा संचालित ऐसी संस्था से ही हुआ है अतः ऐसी ही जैन ट्रेनिंग कॉलेज- संस्था का पुनर्निर्माण कॉन्फ्रेंस द्वारा संभव हो - ऐसी भावना हृदय में पैदा होना स्वाभाविक है ।
अन्त में, उक्त दोनों योजनाओं को सफल करने में समाज का तन-मन-धन का सक्रिय सहयोग प्राप्त होगा - ऐसा मेरा विश्वास है । इस विश्वास के आधार पर ही मैंने अपने अमृतोत्सव मनाने की स्वीकृति संकोचपूर्वक दी है। सुशेषु किं बहुना ! भवदीय, शान्तिलाल वनमाली शेठ
विपुलाचल (राजगृही) पर से वैभारगिरि के जैन मंदिर का दर्शन करते हुए श्री शान्तिभाई
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मेरे जीवनादर्श
शान्ति-यात्रा
(जीवन-झांकी) -शान्तिलाल वनमाली शेठ
अहिंसा-त्रिमूर्ति
कुटुम्ब-यात्रा-१९११ से १६१८
पुरुषार्थी पितामह पूज्य श्री पुरुषोत्तमदास रायचंद शेठ वावड़ी स्टेशन नौकरी करने आये और यहीं के वाशिंदे हो गये । अपनी सूझबूझ और कार्यकुशलता से नौकर से शेठ बन गये और अपनी गाढ़ी कमाई से महादेव शेरी, जेतपुर में अपने मकान एवं दुकान खरीदकर वहाँ रहने लगे। दादीमा मोंघीमा अपंग लेकिन कुटुंबवत्सला थीं। उनके दो पुत्र-मेरे पूज्य पिताश्री वनमालीदास और चाचा हीराचंद-जो विक्षिप्त होने पर भी-बड़े ही स्नेहशील थे। मेरी ऊजमबा नामक भुआ भी थी। उनका विशाल परिवार जेतपुर में ही रहता है। पूज्य मातुश्री मणिबाई की कुक्षी से मेरा जन्म जेतपुरमें दिनांक २१-५-१९११ में हुआ। मेरे बड़े भाई जेसुखलाल-जिनकी परिश्रमशीलता और प्रामाणिकता की छाप आज भी मेरे जीवन पर अंकित है और प्रभुदास तथा वल्लभदास-दो छोटे भाई-जो एक जेतपुरमें और सबसे छोटा अंधेरी बंबई में रहते हैं। मेरी प्रिय बहिन लीलावंती-जिनका देहावसान हो गया है। लेकिन मेरा प्रिय भानजा-नगीनदास-मेरी प्रिय बहिन के स्नेह को तरोताजा रखता है। छोटी बहन गुलाबबेन सपरिवार धोराजी रहती है । मेरा एक भाई सौभाग्यचंद बचपन में ही चल बसा लेकिन उसकी स्नेहस्मृति आज भी ताजी है। मेरी बाल्यावस्था में पू० दादाजी, पूज्य मातापिता और बड़े भाई के जो सुसंस्कार पड़े हैं वे ही मेरे जीवन की मूल्यवान धरोहर है। परिश्रमशीलता, धार्मिकता, प्रामाणिकता और सहृदयताये गुण मेरे जीवन-विकास के साधन बन गये हैं। मेरी कुटुम्ब-यात्रा की यही संक्षिप्त जीवनगाथा है। विद्या-यात्रा-१९१८ से १९२६
जेतपुर में गुजराती-शाला और कमरीबाई हाईस्कूल में माध्यमिक शिक्षण । हेडमास्टर श्री कथरेचा की नियमितता व शिष्टता, श्री वसंतराय की अनुशासनप्रियता और श्री वी०सी० मेहता साहब की विवेकबुद्धि को वंदना । विद्या के क्षेत्र में मेरी विचक्षणता और विलक्षणता-यह मेरी विशेषता थी।
१५ वर्ष की उम्र में जैन ट्रेनिंग कॉलेज बीकानेर के लिए प्रस्थान । अच्छी व्यवस्था। १५ सहाध्यायियों में अपूर्व स्नेहभाव।स्व. वा.मो. शाह की अध्यक्षता में कॉन्फरन्स का अधिवेशन। वा.मो. शाह की जैन संस्कृति, साहित्य, समाज के उत्थान की तमन्ना से प्रभावित। बालनाटक में पुरस्कृत। पू. भैरोदानजी सेठिया की अपूर्व धर्म-प्रवृत्ति पूज्य श्री जवाहिराचार्य के दर्शन । थोकड़ों के ज्ञानकी कंठस्थ प्रथा। राजा
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गरीब और प्रजा शाहूकार की अजब संगीति । दिन में सूर्य का प्रताप और रात्रि में चन्द्र की शीतलता का अनुभव । ऊंटगाड़ी और गहरे कुँए के मीठे पानी की विचित्रता, फुटबाल-खेल और रेत के टीलों में भ्रमण का आनंद । बीकानेर से जयपुर में स्थानांतर। 'जैन-ज्योति' हस्तलिखित मासिक का संपादन । चिंतन-मनन के नाम से निद्राधीन की प्रक्रिया। पितृहृदय दुर्लभजीभाई का वात्सल्यप्रेम । अध्ययन की योग्य व्यवस्था । जयपुर में जैन-फुटबाल कल्ब की स्थापना। श्री सिद्धराजजी ढढा का परिचय । तीनों संप्रदायों में एकता। समन्वयमूर्ति चिन्मयसुखजी का स्नेहाकर्षण । न्यायमध्यमा के लिए शिवपुरी में श्री विद्याविजयजी म. की समय सूचकता । स्नेह-सम्मेलन । मिस क्राउजे (सुभद्रादेवी) का सन्मान। स्काउट-प्रवृत्ति में रस । श्री बोरदियाजी का छात्र प्रेम। जयपुर के दर्शनीय स्थानों में भ्रमण । इंदौर में 'न्यायतीर्थ' की परीक्षा । साधुओं में भी मनमुटाव का दर्शन। आत्मार्थी मोहनऋषिजी, एवं पू० चैतन्यजी का अपूर्व धर्म स्नेह सद्भाव। ब्यावर में साम्प्रदायिकता के दर्शन से खिन्नता। अहमदाबाद में श्री दलसुखभाई के साथ पं. बेचरदासजी के पास प्राकृत-भाषा का अध्ययन । 'स्वयंपाक' का अभ्यास । स्वयंसेवा का आदर्श। गुजरात विद्यापीठ में पू. गांधीजी, आ. काकासाहेब, आ. कृपलानीजी, पं. सुखलालजी, आ० जिनविजयजी, रसिकभाई, श्री रामनारायण पाठक, बौद्ध पंडित श्री धर्मानंद कौशंबी, गोपालदास पटेल आदि का दर्शन-परिचय । सत्याग्रह में सक्रिय भाग। भीतपत्र लिखना । वानर सेना में भर्ती का विचार । विद्याध्ययन का ठप्प हो जाना । पं० सुखलालजी की प्रेरणा से बनारस एवं शान्तिनिकेतन के लिए प्रस्थान । श्री दलसुखभाई और मैं—दो सन्निष्ठ मित्र, मानों 'द्वैत में अद्वैत' का अनुभव।
शान्तिनिकेतन में-१९३०-१९३४
शान्तिनिकेतन में न्यायतीर्थ की उपाधि से विद्याभवन में प्रवेश । मिश्रित भोजनालय के कारण 'क्षीरान्न' का प्रयोग। आ० विधुशेखरजी, आ० क्षितिमोहन सेन, सी० एफ० एण्ड ज, आ० नंदलाल बोस तथा दक्षिणामूर्ति के छात्रों का परिचय । पढ़ने की उच्च व्यवस्था । बंगाली एवं सिंहली लिपि का अभ्यास । पू० गुरुदेव की 'चंडालिका' के आधार पर 'साक्षात्कार' नाटिका की रचना । जैन-बौद्ध, हिन्दूधर्म का तुलनात्मक अध्ययन। आ. जिनविजजी और श्री हजारीप्रसादजी का संपर्क । सत्यं शिवं सुन्दर' का जीवन में प्रभाव। विश्वात्मवय की भावना जैन छात्रालय की व्यवस्था । शाकाहारी भोजनालय की स्थापना और सफलता। 'धम्मसुत्तं' का संकलन । महावीर-अंक का संपादन। पं. सुखलालजी के पास 'धर्मवीर महावीर और कर्मवीर कृष्ण' के लेखन के लिए बनारस जाना। पंडितजी के अगाध पांडित्य से प्रभावित । अपने लिए कंजूस और दूसरों के लिए दानी-ऐसे महान् 'ज्ञानतपस्वी' के दर्शन से कृतकृत्य । शान्तिनिकेतन के ४ वर्ष-जीवन के विकास-वर्ष। श्रद्धेय गुरुदेव के विश्व-भारती शान्तिनिकेतन में विश्व-कृटुम्ब की भावना जो पैदा हुई वह पं. सुखलालजी द्वारा पुष्ट हुई और अन्त में वही पू० काका साहेब की प्रेरणा से विश्व-समन्वय के रूप में जीवन में परिणत हुई—यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि । यहीं खुशालदास तथा मनोरमा-बहिन-'मयूख'–के आतिथ्य से संतोष और वह साढूभाई के रूप में परिणत ।
शान्तिनिकेतन में प्रथमवार ही राष्ट्रनेता पं० जवाहरलाल नेहरू एवं श्रीमती इंदिरा गांधी का दर्शन-परिचय। पं० जयदेव की जन्म-भूमि-तेंदूली में उत्सव का आनंद । पवित्र नदी-स्नान । लौटते समय भयंकर भूकंप का अनुभव । भूकंप-पीड़ितों की सहायतार्थ पंडितजी यहां से सीधे मोंधीर-बिहार में गये थे-ऐसा स्मरण है।
संसार-यात्रा-१६३५-१६३७
१९३३-३४ में अजमेर साधु-सम्मेलन का आयोजन । साधुओं में भी साम्प्रदायिकता का प्रकर्ष। मतभेदों के निवारणार्थ धर्मवीर श्री दुर्लभजीभाई का सर्वस्व जीवन-समर्पण । श्री मिश्रीमल जी० का
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अनशन हेमचंदभाई की अध्यक्षता में कॉन्फरेन्स का अधिवेशन मात्र जिनविजयजी पं० सुखलालजी के संरक्षण में सफल शिक्षण संमेलन साधु-सम्मेलन की सफलता के लिए तन-मन-धन-संपत्ति और समय का भोग के परिमाण में सफलता की घोषणा। सम्मेलन के लिए सौराष्ट्र में मेरा परिभ्रमण गिरनार याता । जुनागढ के दीक्षोत्सव में प्रथम 'शिक्षा और दीक्षा' विषय पर व्याख्यान मेरी सगाई दयाकुमारी के साथ होने के समाचार | दुर्लभजी भाई का मार्गदर्शन दामनगर में आध्यात्मिक सन्त पू० कानजी स्वामी के प्रथमदर्शन से ही प्रभावित । १९३४ में लग्न खादी परिधानों में। लग्न के बाद संसारयात्रा । ब्यावर - गुरुकुल में अध्यापन । यहाँ की सांप्रदायिकता । छात्रालय की व्यवस्था । तीन वर्ष पर्यंत शिक्षण कार्य किया । गृहपतिपद सम्हाला । यहाँ संप्रदाय और धर्म के अनेक 'नाटक' किये। मेरे जीवन-संसार का यह भी एक नाटक था । श्री जयनारायण व्यास, टी. जी. शाह आदि के साथ अनेक 'स्वांग' रचे लेकिन संप्रदाय और तथाकथित धर्म के रंग से हमारा मन रंजित नहीं हुआ। यहाँ जैन शिक्षण संदेश और साहित्यमाला का प्रकाशन चालू किया। जैन साधुओं को पढ़ाया। पं० चंपक मुनिजी मात्र विद्या विशारद हुए बाकी का साधु शिष्य को वेश छुड़वाकर रवाना करना पड़ा। आखिरकार यहां के साम्प्रदायिक वातावरण से ऊबकर बंबई गया । मेरे संसार परिवार में एक सुपुत्री और चार सुपुत्र हैं। सभी परिवार सुखी और संपन्न हैं । चार पौत्र और चार पौत्रियाँ पढ़ते हैं। कुटुम्ब संसार यात्रा का संसरण, संस्मरण और विश्लेषण 'शान्ति यात्रा' पुस्तक में पढ़ सकेंगे ।
साहित्य यात्रा - १९३७ से १९४४
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बंबई में 'जैनप्रकाश' का सहसंपादन । बंबई में बिमारी से ग्रस्त । श्री दुर्लभजीभाई की प्रेरणा से जवाहिराचार्य के व्याख्यानों का संपादन प्रकाशन पूज्यश्री के विचार उदार लेकिन संप्रदाय के पू० बंधनों से आवद्ध मोरबी राजकोट - जामनगर में सपरिवार रहकर अनेक ग्रन्थों का संपादन। मुख्यतः श्री जवाहर व्याख्यान संग्रह भाग १ से ४ तक, धर्म और धर्मनायक, ब्रह्मचारिणी, साक्षात्कार, विद्यार्थी व युवकों से अहिंसा का राजमार्ग, जवाहर ज्योति, लघुदंडक, दीर्घतपस्वी महाबीर आदि साहित्य रचना | साहित्य का सत्कार अच्छा हुआ । राजकोट में पूज्य गांधीजी का पुनर्दर्शन । बड़े भाई के अत्याग्रह से बर्मा रंगून की यात्रा श्री वीरजी डाया, श्री शीवलाल देसाई, श्री कोरसीभाई, श्री तलकचंद देवचंद, श्री नरमेराम कोठारी, श्री चुनीभाई श्री हिंमतभाई श्री रायचंदभाई का निकट-परिचय वहां के प्रधानमंत्री ऊनू से बौद्ध महायान संबंधी चर्चा | चाईठो पर्वत और मोलमीन की यात्रा । व्यापार क्षेत्र में मन नहीं लगा, और वापिस अशरण की शरणभूत-व्यावर की पुनः शिक्षण-यात्रा ।
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व्यावार-गुरुकुल में सपरिवार आया। यहाँ पं० बेचरदासजी का ज्ञानलाभ । प्रो० ओलिवर लेकुम्ब का परिचय जैन साधु द्वारा मानव सेवा एवं शुचिता का कार्यारंभ-संबंधी विवाद गांधीजी की सत्प्रेरणा से सर्वोदय का कार्य मुनि श्री चैतन्यजी द्वारा प्रारंभ एक सामाजिक क्रान्ति का सूत्रपात । गुरुकुल के वार्षिकोत्सव के सामाजिक समारोह में समाज - नेतागण एवं महात्मा भगवानदीनजी, श्री जैनेन्द्र कुमारजी, श्री जयनारायणजी व्यास आदि का संपर्क-समागम ।
आ० श्री जिनविजयजी के साथ जेसलमेर में प्राचीन हस्तलिखित ज्ञान-भंडारों के दुर्लभ ग्रंथों की प्रतिलिपि लेखन और शोधकार्य का ज्ञानयज्ञ । छः माह जेसलमेर के रेतीप्रधान उद्यान में ज्ञान-पुष्पों की सौरभ से जीवन सुवासित । मुनि जिनविजयजी के अंतरंग जीवन का और म० महोपाध्याय के० के० शास्त्री की ज्ञानगरिमा का परिचय जेसलमेर के अमरसर और लोद्रवा तीर्थ के दर्शन महारावजी की अध्यक्षता में महावीर जयंती में व्याख्यान और ज्ञानचर्चा ।
शिक्षण यात्रा - १९४५ से १९५०
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व्यावर के साम्प्रदायिक वातावरण से मुक्ति पाकर श्री दलसुखभाई की सूचना और प्रेरणा
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पाकर पार्श्वनाथ विद्याश्रम बनारस में संचालक के रूप में नियुक्ति । संस्था विद्यार्थियों से गूंज उठी। पार्श्वनाथ विद्याश्रम बनारस की मेरी शिक्षण-यात्रा-वास्तव में यहीं से जीवन-यात्रा प्रारम्भ होती है।
श्री सोहनलाल जैन विद्या प्रसारक समिति, अमृतसर के कर्मठ मंत्री ला० हरजसराय जी, प्रो० मस्तराम जी आदि विद्या-बीज लेकर पं० सुखलालजी, पं० दलसुखभाई के पास बनारस आये। पंडितजी के साथ गंभीरतापूर्वक विचार-विमर्श हुआ और पंडितजी ने अन्तःचक्षु से देखा और परखा कि यह ज्ञानबीज सजीव और सफल हैं। यह ज्ञानबीज बनारस की विद्याभूमि में अच्छी तरह पनप सकता है-ऐसी अनुकूल भूमि और जलवायु हैं। श्री पार्श्वनाथ की जन्मभूमि में इस ज्ञानबीज का सन् १९३७ में आरोपण हुआ और जल-सिंचन एवं पोषण-धारण और रक्षण बराबर होने से आज यह ज्ञानबीज अंकुरित-पुष्पित और फलान्वित होकर सघन छायायुक्त विद्या का वटवृक्ष बन गया है।
पं.सुखलालजी, श्री दलसुखभाई डा. बूलचंद आदि का सान्निध्य। जैन कल्चरल रिसर्च सोसायटी एवं गरीबों के लिए जयहिन्द को-ओपरेटीव सोसायटी की स्थापना । बड़े-बड़े प्रोफेसरों का परिचय । पू० मालवीयजो, पू० आनंदशंकर बापूभाई ध्र व, प्रो० पाठकजी, डा० राधाकृष्णन के दर्शन-परिचय । अखिल भारतीय समाचार पत्र, प्रदशिनी का श्री जयप्रकाशजी द्वारा उद्घाटन। डा० भगवानदासजी द्वारा 'महावीरवाणी' की प्रस्तावना । पं० सुंदरलालजी, महात्मा भगवानदीनजी, श्री जैनेन्द्रकुमारजी के निकट परिचय में आना। जैन-पत्रिकाओं का संपादन । १६४८ में स्वतंत्रता-प्राप्ति। बनारस में महोत्सव । कार्यवशान् बंबई जाना हुआ और वहीं महात्मा गांधीजी के हत्या की दर्दनाक समाचार मिले।
व्यापार-यात्रा-१९५१-१९५३
बनारस की शिक्षणयात्रा पूर्ण करके बंबई में व्यापार-यात्रा का प्रारंभ। जीवनकी सबसे बड़ी भयंकर भूल । इंजिनीयरिंग लाईन में शुभारंभ कहाँ लोहे का यंत्र और कहाँ विद्यालय-तंत्र ! विषम-संगम । बोरीवली में निवास । बंबई के यंत्रवत् जीवन में यंत्रणा और यातना का प्रारंभ । अर्थतंत्र और विद्यातंत्र का द्वन्द्वयुद्ध । हताश और पूर्णतः पराजित । बंबई के विषम वातावरण से रोगग्रस्त ! क्या करना ! विकट समस्या। बच्चों की पढ़ाई, गहव्यवस्था और आर्थिक चिता से मृतप्रायः । धर्मपत्नी का धैर्यधारण और नैतिक बल का परिचय। 'स्वर्ग में से नरक में क्यों आये !' यह उपालंभ सुनकर भी शून्यमनस्क हो गया
संसार जीवन-यात्रा-१६५४-१६५७
इतने में अचानक ही ब्यावर से वहाँ प्रेस का काम करने का आमंत्रण मिला-और बिना सोचेसमझे 'बभक्षितः किं किं न करोति'-कहावत चरीतार्थ हुई और बोरी-बस्ता बाँधकर बड़ी मुश्किल से बंबई का पीछा छोड़ा और-ऊल में से निकलकर चूल में-व्यावर में आ धमका । जीवन-मरण की मज़धार में मेरी जीवन नौका कभी कातिल धैर्य की भँवर में तो कभी जालिम-जुल्मों की झंझावात में डगमगाने लगी।भव-कूप में डूब जानेकी भी नौबत आई लेकिन सुराणाजीनाविक बनकर सत्साहस और धैर्य से नौका को पार लगा दी । यह महदुपकार । व्यावर प्रेस-हिसाब वे सम्हालते थे और मैं काम लेकिन आर्थिक आंटीघंटी के निष्णात के चंगुल में ऐसा फँसा कि जीवन जीना भी दूभर हो गया। निकट के स्नेही-संबंधी भी कैसे स्वार्थी होते हैं- इसका भी कटु अनुभव हो गया ! बच्चों की पढ़ाई छुड़ानी पड़ी और अश्रुपूर्ण नेत्रों से, हृदय को थामकर, बड़े पुत्र को विदाई दी। बच्ची की शादी कैसे की, कितनी आफ़तों का सामना करना पड़ा इसकी भी एक करुण-कथा है। ज्ञान के स्थान पर अज्ञान-अंधकार चारों ओर छा गया।धर्मपत्नी ने अपने सबकुछ-हितसाधन दे दिये और जैसे तैसे सबका हिसाब साफ कर दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। परिश्रम पानी में गया और मैं धूलि-धूसरित हो गया। ऐसी दर्दनाक दशा दुश्मन को भी प्राप्त न हो ऐसी प्रार्थना । यह व्यथा की वीतक-कथा ही वास्तव में मेरे जीवन की विकास-कथा है अतः मैं उन
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सभी धैर्य बंधाने वाले और जुल्म करनेवाले---सभी को वंदना करता है और मनोयोगपूर्वक हार्दिक धन्यवाद देता हूँ। यह मेरे निष्फल जीवन द्वारा सफल जीवन की ओर बढ़ने का एक कदम ही समझना चाहिए।
ब्यावर में गुजराती-समाज की स्थापना । श्री सिद्धराजजी ढड्ढा की अध्यक्षता में जैनयुवकसम्मेलन, श्री मधुकरजी का मधुर-मिलन एवं साहेबचंदजी सुराणा, पं० शोभाचंद्रजी, श्री नंदलालभाई, श्री लक्ष्मीचंद मुणोत और श्री मोतीलाल रांका,आदि मित्रों की सहानुभूति, आत्मीयता और मित्रताये सुखद स्मृतियाँ सभी दुःखों को विस्मत कराने के लिए पर्याप्त हैं। शान्ति-यात्रा
'असदो मा सद्गमय। मृत्योर्माऽमृतं गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय' इन जीवनमन्त्रों के उच्चारण मात्र से जीवन में प्रेरणा ही नहीं, शान्ति भी प्राप्त होती है तो आचरण से जीवन शान्त और दान्त हो जाय तो उसमें क्या आश्चर्य ! खास कर कष्टमय जीवन-यात्रा के समय तो यह 'पाथेय' बन जाता है। यह दिवा-स्वप्न दिल्ली में आकर सफल सिद्ध हआ।
आनंदमूर्ति सुराणाजी वास्तव में प्राणिमित्र थे। मैं तो उनका छाटे भाई से भी विशेष स्नेहभाजन बन गया । डूबते व्यक्ति के लिए तो आश्वासन-सान्त्वन भी 'तरणोपाय' बन जाता है।
ब्यावर में तो बावरा बन गया था लेकिन दिल्ली आकर पुनः समन्वयसेवी आदमी बन गया। इसका श्रेय लक्ष्मी को , या सरस्वती को! दिल्ली में कॉन्फरन्स के मुखपत्र 'जैनप्रकाश' साप्ताहिक हिंदी पत्र का संपादन कार्य, सुराणाजी की अभीदृष्टि और समन्वय के स्वप्नदृष्टा काकासाहेब की कृपादृष्टि से राष्ट्र, समाज और धर्म के क्षेत्र में प्रतिष्ठा चरम सीमा पर पहुँच गई। गांधी स्मारक निधि गांधी, अध्ययन केन्द्र एवं काकासाहेब की संस्थाओं के संचालन से जीवन में नया ही मोड़ आया । काकासाहेब की स्वतंत्र समन्वय-विचारधारा, पू० बापूजी और विनोबाजी की सर्वोदय-धारा और मानवता के महर्षि से जैनेन्द्रजी की आत्मीयता-अमृतधारा की पवित्र त्रिवेणी में स्नान कर वास्तव में मैं 'स्नातक' बन गया। मेरा धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन एवं सर्वधर्म समभाव को जीवन में उतारने का यहाँ 'स्वर्णावसर' भी मिला। पू० काकासाहेब की और समन्वय की साक्षात् मूर्ति रैहाना बहिनजी की जीवनस्पर्शी 'पारसमणि' ने मुझ जैसे 'लोहे के पुतले' को स्वर्णिम बना दिया। यह सुवर्ण ताप-कष-छेद् की परीक्षा में खरा भी उतरा।
बापू-बुनियादी शिक्षा निकेतन, श्रम-साधना केन्द्र एवं कॉन्फरन्स के मंत्री, जैनप्रकाश के तंत्री, भ० महावीर २५वीं निर्वाण शताब्दी राष्ट्रीय समिति के एक मंत्री, मोस्को में विश्व-शान्ति परिषद् में जैन प्रतिनिधित्व, अपने सुपुत्रों की व्यावसायिक सफलता आदि राष्ट्रीय, सामाजिक एवं धार्मिक सेवाकार्यों का समुच्चय ही मुझे इस सन्मान के योग्य बना दिया। इस तरह मेरी वर्तमान जीवन-यात्रा वास्तव में शान्ति यात्रा बन गई यही मेरे जीवन की सार्थकता समझता हूँ।
जिस संस्था ने मेरे जीवन में 'जैनत्व' के संस्कारों का सिंचन किया, ऐसी कोई जैन प्रशिक्षण देने वाली 'प्राकृत-विद्यापीठ' की स्थापना हो और सर्वहितंकर सर्वोपयोगी सन्मति साहित्य का संपादन एवं प्रकाश हो यह भी मेरी अन्तर्भावना है।
'उट्ठिए, नो पमायए। सुत्तेसु यावि पडिबुद्धजीवी'-उठो, प्रमाद न करो और सुषुप्ति में भी सदा जागृत रहो-यह भ. महावीर की प्रबुद्ध-वाणी का ध्येयमंत्र और 'उत्तिष्ठत जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत' यह स्वामी विवेकानंद के प्रेरणा-मंत्र का निरंतर जाप करते हए जीवन में निम्नलिखित तीन 'मनोरथों को सिद्ध करूँ यह मेरी अंतिम इच्छा रहती है :
१.मैं सच्चा मानव-सच्चा जैन बने । २. मैं सांसारिक आधि, व्याधि, उपाधि की ग्रन्थियों से मुक्त बन और
३. अंत में 'परम सखा'-मत्यु-मित्र को शान्ति-समाधिपूर्वक साथ ही मेरे जीवन की-सच्ची शान्ति-यात्रा की-पूर्णता होगी। ॐ शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः।।
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'शान्ति यात्रा' के कुछ स्मरणीय और प्रासंगिक शब्दचित्र
( 1 ) दान में भी अनाशक्ति डॉ० युद्धवीरसिंह दिल्ली के सामाजिक एवं राजकीय क्षेत्र में पू० गांधी जी के खादी, नशाबंदी आदि रचनात्मक सेवा कार्य करने करवाने के लिए सदा तत्पर रहते थे। उन्होंने दिल्ली खादी ग्रामोद्योग बोर्ड भी स्थापित किया था। मैं भी उसका एक सदस्य था। अंदर चर्चा का प्रचार करना भी बोर्ड का एक कार्यक्रम था। डॉ० की प्रेरणा से राजघाट पर हमारी संस्था में श्रमसाधना केन्द्र चालू किया और अंबर चर्चा चलाने की प्रवृत्ति भी चालू की। एक सेवाभावी संचालक के सहकार से यह प्रवृत्ति चल पड़ी। अनेक खादीप्रेमी भाई-बहिन अंबर चर्चा चलाने के लिए आने लगे। हमारी खादी कुटीर छोटी पड़ने लगी। रविवार के दिन एक सर्वोदयी सज्जन श्री नायबराज जी कालरा - जो नियमित अंबर चर्खा चलाने आते थे कहने लगे ये पाँच सौ रुपये लो और इस कुटीर को बड़ी बना लो।' मैंने सोचा कि यह भाई चर्खा चलाकर कुछ कमाई करते हैं और इतना दान देना क्यों चाहते हैं ? ये भाई गंभीर हृदय के गर्भश्रीमंत भी हैं - यह मैंन हीं जानता था। मैंने जवाब दिया कि - अभी यह रकम अपने पास रखिए, जरूरत पड़ने पर मैं स्वयं मांग लूंगा। दूसरे रविवार को कालराजी फिर मेरे पास आये और पाँच हजार मेरे हाथ में थमा दिये। मैंने वही उत्तर दिया और कहा कि अगले रविवार को आपके पूज्य पिताजी से मिलकर निर्णय करेंगे। तीसरे रविवार को बहुत ही वर्षा हुई थी लेकिन शाम को आकाश साफ हो गया। श्री कालरा जी अपने परिवार के सभी (सदस्यों करीब-करीब १७ भाई-बहन ) के साथ आये हम सब ऑफिस के बड़े हाल में बैठे। सर्वप्रथम मैंने वयोवृद्ध विनयमूर्ति श्री रामनारायण जी (कालरा
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जी के पिताजी) को प्रणाम कर कहा कि आपके नायबराज जी इस श्रमसाधक केन्द्र को पाँच हजार दे रहे हैं-उसमें आपकी सहमति है ? उन्होंने हाथ जोड़कर इतना ही कहा कि भगवान का शुक्रिया है कि भगवान ने उसे सन्मति दी। मुझे खुशी है और मैं भी अनुमोदन के रूप में ५००० देता हूँ। फिर तो पू० माताजी, बड़े भाई, उनकी धर्मपत्नी, छोटे भाई, भानजे आदि प्रत्येक ने सभी ने - ५०००/- दान देने का तांता लग गया । और ५०००० की दानराशि हुई। मैं तो दिङ्मूढ़ होकर देखने-सुनने लगा। यह हृदयद्रावक देवदृश्य देखकर मेरे रोमांच - रोंगटे खड़े हो गये ।
मैंने दो टूक शब्दों में इतना ही कहा कि आज वर्षा हुई है और यहाँ पर निष्काम सेवा और निष्काम निर्लोभवृत्ति की-श्रम और श्री की वर्षा हो रही है ! धन्य है 'अहोदान' की वृत्ति और प्रवृत्तिको मैंने उन सभी का ही इस दानराशि यहाँ कहीं शिलालेख या नामोल्लेख नहीं होगा - ऐसी हमारी प्रणाली है ऐसा कह कर उनका साधुवाद किया और अगले रविवार को सायं पाँच बजे श्री काका साहब के चरणों में श्री - फल समर्पित करने का कार्यक्रम निश्चित हुआ ।
चौथे रविवार के पाँच बजे की वह धन्य घड़ी आ गई। वही समस्त कालरा कुटुंब के भाई-बहिन एक बाल में बादाम का, द्राक्ष का, अखरोट, काजू एवं फलों के साथ ५००० रुपये लेकर पूज्य श्री की सेवा में सभी उपस्थित हुए सब । वृत्तांत आघन्त कह सुनाया । पू० काका साहब, सुश्री सरोज बहिन आदि सब आश्रमवासी यह वृत्तांत सुनकर अश्चर्यचकित हुए। पू० काका साहव ने कहा- पहिले यह बात क्यों कही नहीं ? मैंने मौन भाषा में 'यह आप की ही कृपा का परिणाम हैं अपने भाव व्यक्त किये। इन ५० हजार
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से बढ़कर यह दानराशि करीब-करीब एक लाख तक पहुँच (३) मृत्युंजय का मार्ग : एक आध्यात्मिक प्रयोग गई और प्रार्थना-भवन का निर्माण हआ और पु० काका साहब ने प्रार्थनाप्रिय श्री रामनारायण की पुण्यस्मृति में
बनारस के निवास दरम्यान अनेक प्रोफेसरों, विद्वानों, प्रार्थना भवन में उनके नाम का लेख उत्कीर्ण कर इतना मात्र
समाज-सेवकों और धर्मनायकों के परिचय में आने का अव
सर मिला । काशी विद्यापीठ में आचार्य नरेन्द्रदेव, विशेषतः लिखा गया कि 'इस प्रार्थना भवन में श्री रामनारायणजी की भावनानुसार नियमित सर्वधर्म-प्रार्थना होती रहेगी।' आज
बौद्ध-धर्म के सुप्रसिद्ध महापंडित धर्मानंदजी कौशम्बी की भी यहाँ प्रार्थना होती रहती है-श्री नायबराजजी के पूज्य
सेवा का जो अवसर मिला-यह मेरे जीवन का धन्य अध्याय पिताजी की (श्री रामनारायणजी प्रति) पुण्यस्मति में सच्ची
ही बन गया। बात यह थी कि, प्रज्ञाचक्षु पंडित सुखलालजी श्रद्धांजलि है। वास्तव में यह अनासक्तियोग का एक उदा
से जैनधर्म में मृत्यु का वरण करने का और मृत्युंजय बनने हरण है।
का-संथारा व्रत लेने का-जो विधान है वह जब कौशंबी
जी ने सुना तब उन्होंने मृत्युंजय बनने की प्रक्रिया को अपने (२) शान्तिनिकेतन का एक पुण्य प्रसंग
जीवन में साक्षात्कार करने का निश्चय किया और इस महान शान्तिनिकेतन में एक स्मरणीय ऐतिहासिक प्रसंग आज जीवन-साधना के लिए उन्होंने आजमगढ़ के दोहरीघाट के भी स्मृतिपट पर चित्रित है। पूना में पू० बापू जी ने अस्पृ- हरिजन सत्याश्रम-जो सरयू नदी के किनारे स्थित है-वहाँ श्यता-निवारण के एक प्रश्न पर आमरण अनशन प्रारंभ कर मृत्युंजय मार्ग पर चलने का व्रत ग्रहण कर लिया और इस दिया था। पू० बापू जी गुरुदेव के प्रत्यक्ष आशीर्वाद चाहते क्रमशः खान-पान का त्याग करते गये । परिणामतः उनकी थे। गुरुदेव इस प्रसंग पर काफी उत्तेजित और खिन्न थे। शारीरिक स्थिति बिगड़ती गई। उनकी सेवा के लिए मेरे उन्होंने पूना-प्रयाण के पहिले सभी आश्रमवासियों को आदेश पितातुल्य संसारी श्वसुर सेवाव्रती श्री चैतन्य जी को पंडित दिया कि--आसपास के गांव में जाकर सभी ब्राह्मणों तथा हरि- जी ने भेजा ही था। कौशंबी जी की स्थिति विशेष खराब जनों सभी को सभा भवन में बुला लाओ। आज प्रायश्चित्त होने पर श्री चैतन्य जी का तार आया कि तुम दोनों-मैं और करना है। आमने-सामने ब्राह्मण और हरिजन बैठे थे। गुरुदेव मेरी धर्मपत्नी-दोहरीघाट जल्दी पहुँचो। हम यथाशीघ्र ने कंपित स्वर में और अवरुद्ध कंठ से प्रेरक उद्बोधन किया पहुँचे । स्थिति गंभीर थी। क्या करना कुछ सूझता नहीं था। कि
मैंने कहा कि-कौशांबीजी विश्व के मान्य महान बौद्धपंडित 'मानवेर अपमान सोहिबो ना, सोहिबो ना' हैं। उनका शरीर व्यक्तिगत अपना ही नहीं, अपितु समग्र अर्थात--मानव जाति का अपमान सहन नहीं करूँगा। राष्ट्र का, बौद्ध-विश्व का है। हमने कौशांबी जी से सविनय सहन नहीं करूंगा। हृदय-वाणी का जबरदस्त प्रभाव पड़ा। प्रार्थना की कि कृपया अनशन को फिलहाल समाप्त या स्थगित सबके दिल द्रवित हो उठे और सभी भेदभाव भूलकर एक करें। उन्होंने इतना ही कहा कि बापूजी यहाँ आवें और जैसा दसरे को मालाएँ पहनाईं और गले से मिले। वास्तव में वे कहें वैसा किया जाय । पु० बापू जी को दिल्ली तार दिया ब्राह्मण-हरिजन-मिलन का यह एक मंगलोत्सव था जो गया। जवाबी युग-युग तक याद रहेगा। मुझे तो हरिजनमुनि हरिकेशी और से चर्चा-विचारणा चल रही है अत: वहाँ पहुँचना मुश्किल है। ब्राह्मणयाजी विजय ब्राह्मण कुमार का मिलन और जाँत- मेरी ओर से अन पाँत के भेदभाव भूलकर
रसपान करें। सत्य भगवान ने प्रार्थना सुनी और उन्होंने 'सक्खं दीसइ तवोविसेसो
रसपान किया। कुछ स्वस्थ होने पर वे बनारस-दिल्ली होकर न दीसइ जाइविसेस कोई।'
सेवाग्राम गये। कौशंबी जी की अंतरेच्छा काकासाहेब से __ अर्थ:-साक्षात् तप और गुण की ही विशेषता दिखाई मिलने की थी। काकासाहब कहते थे कि जैसे ही मैं सेवाग्राम देती है-कहीं पर जाति की विशेषता, प्रधानता नहीं है- उनके द्वार पर पहुँचा, दष्टि से दष्टि मिली, हाथ जोडे और यह सत्रगाथा कान में गूंज उठी। मानो महावीर का युग उन्होंने सदा के लिए बिदाई ले ली। यह है आत्मलीनता और शान्तिनिकेतन में उस दिन पुनः जीवित हुआ था। यह विश्वात्मक्यता का सम्मिलन । संस्मरण मेरे जीवन में, विश्व-समन्वय के रूप में, आज भी
.. स्मृतिपट पर अंकित है। जीवन स्मति की यह पूण्योपाजित नोट : ऐसे अनेक शब्दचित्र हैं भविष्य में जो पुस्तक के बहुमूल्य धरोहर है।
रुप में प्रकाशित किए जायेंगे।--शान्तिलाल
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प्रातःस्मरणीय पूज्य माता-पिता के चरणों में श्रद्धांजली
सेवामूर्ति पूज्य पिताश्री वनमालीदास पुरुषोत्तमदास शेठ
वात्सल्यमूर्ति पूज्य मातुश्री मणिबहिन वनमालीदास शेठ
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सुख-दुख के जीवन-साथी
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ॐ
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R
सन्निष्ठ समाजसेवी श्री शान्तिलाल वनमाली शेठ और उनकी धर्मनिष्ठ धर्मपत्नी दयाकुमारी शेठ
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भारत के राष्ट्रपति के साथ श्री शान्तिभाई शेठ
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राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हसन 'जैन भवन' पधारे तब उन्हें 'जैन साहित्य' समर्पित करते हुए
श्री शान्तिभाई
राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्रबाबू और श्री शान्तिभाई
___ Jain Education | राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन् की अध्यक्षता में जैनभवन में आयोजित अहिंसा-गोष्ठी में श्री शान्तिभाई शेठ.jainelibrary.org
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राष्ट्रपिता पू0 बापू जी की प्रतिमा का अनावरण करते हुए
राष्ट्रपति डॉ0 राजेन्द्र बाबू
गांधी स्मारक संग्रहालय के प्रांगण में गांधीजी की प्रतिमा का अनावरण करते हुए राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्रप्रसादजी
गांधी स्मारक निधि के अध्यक्ष श्री दिवाकरजी एवं श्री शान्तिभाई शेठ
'जैन भवन' में आयोजित अहिंसा-गोष्ठी में अध्यक्ष राष्ट्रपति डॉ० राधाकृष्णन् जी के साथ आचार्य काकासाहेब कालेलकर, श्री गोविंददास शेठ एम० पी०, डॉ० कालिदास नाग, प्रो० होरेस एलकजान्डर, प्राणिमित्र शेठ
आनन्दराज सुराणा, शेठ अचलसिंह, एम० पी०, श्री मूलचन्द जैन एम० पी०, प्रो० मुजीब तथा श्री रामनारायण जैन दूसरी पंक्ति में अहिंसा-गोष्ठी के आयोजक श्री शान्तिभाई शेठ दिखाई देते हैं।
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भारत के प्रधानमंत्री के साथ श्री शान्तिभाई शेठ
CARRARY
गुलाबपुरा (राज.) के जैन हायर सेकेन्डरी स्कूल का स्मरण-पत्र प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू को
समर्पित करते हुए श्री शान्तिभाई शेठ
परेड ग्राउन्ड, दिल्ली में आयोजित भगवान महावीर-जयंती के प्रसंग पर तत्कालीन प्रधानमंत्री
श्री लालबहादुर शास्त्री के साथ बातचीत करते हुए श्री शान्तिभाई शेठ
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प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी और श्री शान्तिभाई शेठ
KANWA
भारत के प्रधानमंत्री के साथ श्री शान्तिभाई शेठ
प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई और श्री शान्तिभाई शेठ
भगवान महावीर २५० निर्वाण शताब्दी महासमिति
अहिंसा भवन, शंकर रोड, नई दिल्ली-५
RADIO
भगवान महावीर की २५००वीं निर्वाण राष्ट्रीय महासमिति की बैठक में प्रधामंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी, श्री मोरारजी देसाई, श्री गोविंददास शेठ एम० पी०, सुप्रसिद्ध विधिवेत्ता डॉ० लक्ष्मीमल सिंघवी, डॉ० बूलचंद आदि के साथ श्री शान्तिभाई शेठ । मुनिश्री सुशीलकुमारजी उद्बोधन कर रहे हैं।
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विदेश के विशिष्ट महानुभावों के साथ श्री शान्तिभाई शेठ
ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ एवं उनके पति को राजघाट पर 'गांधी साहित्य' समर्पित करते हुए श्री ब्रजकिशन चांदीवाला के साथ खड़े हैं.–श्री शान्तिभाई व शेठ एवं उपराज्यपाल
माननीय श्री भगवानसहायजी
अमेरिका के तत्कालीन प्रेसिडेन्ट श्री आइज़न होवर, उपराष्ट्रपति श्री निकसन, अन्य अधिकारी गण, एवं भारत के राजदूत श्री चागला के साथ श्री ब्रजकिशन चांदीवाला एवं श्री शान्तिभाई शेठ
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मोस्को में विश्व-शांति-परिषद में जैन-प्रतिनिधि श्री शान्तिभाई शेठ
ADIGERENIMEINDIACTBH BCEXCLUSHAMBCCCP 3400702HHA
30AMHASEEKANANDAAMRATOPERHIT
झेगोरस्क (मोस्को) में विश्वशांति परिषद में विश्व के प्रतिनिधियों के समूह चित्र का एक दृश्य खादी-टोपी पहिने श्री शान्तिभाई शेठ तथा प्रो० सुमेरचंदजी प्रथम पंक्ति में दिखाई देते हैं।
Кон°ЕРЕНЦИЯ ЗА СОТРУДНИ
PRABOXPERH AMAPMEANIHARI
झेगोरस्क (मास्को) में श्री शान्तिभाई शेठ भगवान महावीर के जीवन-संदेश-'साम्यभाव' पर प्रवचन करते हए। पास में अध्यक्षीय-मंडल पदासीन हैं।
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श्री शान्तिभाई के अध्ययन-काल के कुछ संस्मरण
विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर के शांतिनिकेतन में विद्याभवन के आचार्य श्री महामहोपाध्याय विधूशेखर भट्टाचार्य, आचार्य क्षितिमोहन सेन तथा भिन्न-भिन्न देशों के शोधछात्रों के साथ श्री शान्तिभाई गुरुदेव के चरणों में बैठे हैं।
સૂત્રનું વાંચન કરતા વિદ્યાર્થીઓ,
समय
गोयम
मापमायए
नाण
Jai Education International
दया.
जैन- ट्रेनिंग कॉलेज जयपुर के शास्त्रीय वर्ग में धर्मवीर श्री दुर्लभजीभाई जौहरी और बहुश्रुत पं० बेचरदासजी के साथ कॉलेज के छात्रगण । बाईं ओर की पंक्ति में दूसरे श्री शांतिभाई बैठे हैं ।
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विद्वानों के साथ ज्ञान-चर्चा करते हुए श्री शान्तिभाई
ब्यावर में पेरिस से प्रो० ओलिवर लेकुम्ब, पं० बेचरदासजी से मिलने आये थे। तब चर्चा में
भाग लेते हए दिल्ली के श्री गुलाबचंद जैन और श्री शान्तिभाई शेठ
सुप्रसिद्ध श्री जैनेन्द्रकुमारजी, स्व० भगवतीबहिन, डॉ० नरेश मंत्री (टोकियो), श्री हसमुखभाई के साथ
श्री शान्तिभाई विचार-विनिमय करते हुए।
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स्मरणीय प्रसंग
जयपुर जैन ट्रेनिंग कालेज के छात्रों के साथ सुभद्रा देवी (सुश्री क्राउजे), उनके पिता के साथ धर्मवीर श्री दुर्लभजीभाई जौहरी, श्री केसरीमलजी चोरडिया आदि जयपर के महानुभाव दिखाई देते हैं। प्रथम पंक्ति में श्री शान्तिभाई बैठे हैं।
खुदाई खीदमतगार सरहद के गांधी अब्दुल गफार खान के साथ
श्री शान्तिभाई शेठ झेगोरस्क (मोस्को) में व्याख्यान देने जाते हुए श्री शान्तिभाई शेठ, साथ में प्रो० सुमेरचन्द एवं ताश्कंद के धर्मगुरु खोरोनोव ।
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साहित्य अकादमी द्वारा प्रज्ञाचक्षु पं0 सुखलालजी का सम्मान
राष्ट्रपति डॉ० राधाकृष्णन से साहित्य अकादमी का पुरस्कार ग्रहण करते हुए पं० सुखलालजी के साथ हैं श्री शान्तिभाई शेठ पास में खड़े हैं प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू, मामा वरेरकर, राहुल सांकृत्यायन, डॉ० प्रभाकर माचवे आदि ।
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Home
विज्ञान-भवन में आयोजित 'विश्व संस्कृत परिषद्' में स्व. डॉ० ए० एन० उपाध्ये, प्रो० दलसुखभाई, श्री ज्योतिप्रसाद जैन,
श्री रतिभाई देसाई, श्री कान्तिलाल कोरा एवं पं० सुमेरचंद दिवाकर के साथ श्री शान्तिभाई शेठ ।
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AUTITLE
श्री शान्तिलाल वनमाली शेठ अमृतमहोत्सव समारोह-स्मारिका
सन्मति-साहित्य सर्वोपयोगी सन्मति-साहित्य-प्रकाशन योजना जैनधर्म के सिद्धान्त सार्वभौम, सर्वोपयोगी एवं सार्वजनीन हैं । जैनधर्म में अहिंसा, अनेकान्त, अपरिग्रह आदि मानवतामूलक सिद्धान्त
सर्वोदयकारी होने से वह सर्वमान्य मानव-धर्म है। हम ऐसा सन्मति-साहित्य प्रकाशित करना चाहते हैं, जो१-सर्वोपयोगी-जैन-जनेतर सभी को उपयोगी हो, २-असाम्प्रदायिक हो-सन्मति साहित्य में साम्प्रदायिकता न हो,
३-जैनधर्म के सर्वमान्य-सिद्धान्तों का अनुकूल एवं पोषक हो। यह सन्मति-साहित्य-योजना समग्र जैन समाज-स्पर्शी योजना है। जैन-समाज को जो साहित्यिक धरोहर विरासत में मिली है उसका सार्वत्रिक प्रचार करना इस
योजना का मुख्य उद्देश्य है।
RON
BREFEEL
3
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READICALCUREMEDICTIMALLA
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मैंने कई बार कहा है कि ढाई हजार बरस पहले अहिंसा, संयम और तपस्या का सन्देश मनुष्य आति के सामने रखकर भगवान् महावीर ने सिद्ध किया कि वे सच्चे अर्थ में 'आस्तिकशिरोमणि' हैं । ईश्वर या शास्त्रों पर विश्वास रखना सच्ची आस्तिकता नहीं है। सच्ची आस्तिकता तो यह है कि मनुष्य के हृदय पर विश्वास किया जाय आस्तिकता का लक्षण यह है कि मनुष्य विश्वास करे कि किसी-न-किसी दिन मनुष्य अपना स्वार्थी, ईर्ष्यालु या क्रूर स्वभाव छोड़कर समस्त मानव जाति का एक विश्व-कुटुम्ब स्थापित करेगा और यह कुटुम्ब भाव बढ़ाते-बढ़ाते भले-बुरे सब प्राणियों का उसमें अन्तर्भाव करेगा । आजकल के युग में आस्तिकता इस बात में होगी कि हम विश्वास करें कि रूस और अमेरिका दोनों किसी-न-किसी दिन मानवता के सिद्धान्त को सर्वोपरि रूप में स्वीकार करेंगे। आस्तिकता का लक्षण है कि हम हृदय से मानें कि हिन्दू और मुसलमान भाई-भाई होकर ही रहेंगे और हम मानें कि पाकिस्तान की नीति भी किसी-न-किसी दिन सुधर जायगी।
आज विनोबाजी जो भूदान सर्वोदय का काम कर रहे हैं, वह आस्तिकता का काम है। उनका विश्वास है कि आज के स्वार्थी युग में भी मनुष्य अपना सर्वस्व दे सकता है।
आज के भारत की अन्तर्राष्ट्रीय नीति आस्तिकता का
त्रिवेणी समन्वय
आस्तिक-शिरोमणि भगवान महावीर और उनकी अहिंसा, संयम और तप की प्रस्थानत्रयी
काकासाहेब कालेलकर
सर्वोत्तम नमूना है अविश्वास और ईर्ष्या के इस जमाने में भारत सब-के-सब राष्ट्रों पर विश्वास रखने को तैयार है। इन सब राष्ट्रों का इतिहास और उनकी करतूतें हम नहीं जानते, सो बात नहीं । हम अपने दोष भी कहाँ नहीं जानते ? हम दुनिया से अलग थोड़े ही हैं तो भी हम विश्वास करते हैं कि मनुष्य कल्याण की ओर प्रस्थान अवश्य करेगा ।
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आज लोग दुनिया के सामने मानवीय प्रेम का, विश्वकुटुम्बका आदर्श रखते हुए संकोच का अनुभव करते हैं । सिर्फ अहिंसक सह-जीवन ( peaceful co-existence ) या सहचार की बातें करके ही संतोष मानते हैं जबकि भगवान् महावीर ने प्राणिमात्र के प्रति अहिंसा का सब प्राणियों के एक परिवार होने का सन्देश दुनिया के सामने रखा और विश्वास किया कि इसे मनुष्य जाति अवश्य स्वीकार करेगी। इसीलिए मैं भगवान् महावीर को आस्तिक-शिरोमणि कहता हूँ ।
सनातनी लोग उपनिषद् ब्रह्मसूत्र और भवगद्गीता को 'प्रस्थानत्रयी' कहते हैं। तीनों में जो पुरुष एकवाक्यता या समन्वय सिद्ध कर दिखाता है, उसे 'आचार्य' कहते हैं। यह पुरानी बात हो गयी । अनेक आचार्यों ने अपने-अपने ढंग से 'प्रस्थानत्रयी' की एकवाक्यता सिद्ध कर दिखायी । इस जमाने में कई विद्वानों ने इन सब आचायों के बीच भी सामंजस्य
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स्थापित कर दिखाया है। हम इस भूमिका पर पहुँचे हैं co-existence) राजनीतिक या सामाजिक अहिंसा है; उसी कि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, निम्बार्क आदि तरह 'अनेकान्त'-बौद्धिक अहिंसा है। अनेकांत अर्थात् समन्वय। आचार्य जो कहते हैं, वह एक-दूसरे का मारक नहीं है, सार्थक इस अनेकान्त को परिपूर्ण समन्वय कारूप दिया भगवान है। इस कारण भारतीय दर्शनशास्त्र एक नयी समृद्धि पा गौड़पादाचार्य ने। लोग उन्हें अद्वैताचार्य कहते हैं । मैं उन्हें सका है।
'समन्वयाचार्य' कहता हूँ । वेदान्त की सर्व-संग्राहक दृष्टि का अब हमें संस्कृति-समन्वय की दृष्टि बढ़ाकर अपने देश के वर्णन करते हए उन्होंने कहा कि-"और दर्शन आपस में लड़ लिए तीन धाराओंका समन्वय करना आवश्यक हो गया है। सकते हैं, हमारा किसी से झगड़ा नहीं है। हम ऐसी भूमिका बौद्ध-दर्शन, जैन-दर्शन, वेदान्त-दर्शन आपस में चाहे जितना पर खड़े हैं कि जहाँ से हम सब दर्शनों की खुबियाँ देख सकते विवाद करें, संस्कृति की दृष्टि से इन तीनों में सुन्दर समन्वय हैं। इसलिए हम सबका स्वीकार कर सकते हैं और उनकी देखना आज का युग-कार्य है । बुद्ध भगवान् को हम इस युग व्यवस्था भी कर सकते हैं।" यह वेदान्त-दर्शन आज दुनिया के अवतार मानते हैं। उन्होंने अपने जमाने के दार्शनिक के दार्शनिकों में अधिकाधिक प्रतिष्ठा पाने लगा है। यह दर्शन झगड़े को देखकर लोगों से कहा कि भले आदमी, इस आत्मा- कहता है-'धम्म' की स्थापना आत्मशक्ति से होगी जरूर, परमात्मा की झंझट में मत फँसो । अगर वे हैं तो अपने स्थान लेकिन उसकी बुनियाद में 'विश्वात्मैक्य-भाव' होना चाहिए। पर सुरक्षित होंगे, हमें उनकी चर्चा में नहीं पड़ना है । हम सबकी आत्मा 'एक' है। सब राष्ट्र, सब जातियाँ, सब महाकेवल 'धम्म' को मानते और उसी के पालन में अपना वंश (Races) एक ही हैं । इनमें हम द्वैत चलायेंगे तो मानवकल्याण देखते हैं । 'धम्म' के मानी है-सदाचार का सार्वभौम जाति का जीवन विफल होगा। गोरे और काले, लाल और नियम । 'धम्म' ही सच्चा सत्पुरुष-धर्म है। बुद्ध भगवान् को पीले और हमारे जैसे गेहुँए सब एक ही आदि-मानव की कहना था कि मुझे भी 'धम्म' का ही प्रतीक समझो: यो मं सन्तान हैं । रंग-भेद, भाषा-भेद, धर्म और देश-भेद से हमारा पश्यति सो धम्मं पश्यति । यो धम्म पश्यति सो मं पश्यति।' अद्वैत, हमारा ऐक्य टूट नहीं सकता। यह है वेदान्त-धर्म की 'कल्याणो धम्मो।' बुद्ध भगवान् के आर्य अष्टांगिक मार्ग का सीख । कोई शुद्ध पुण्यवान् नहीं, कोई शुद्ध पापी नहीं, सारी प्रचार जगत् के विशाल क्षेत्र में और अधिकांश मानव-जाति दुनिया सद् और असद से भरी है, और इसलिए उसमें अद्वैत में स्थूल रूप से हो चुका है।
यानी ऐक्य है । यह है सच्ची दृष्टि । बुद्ध भगवान के समकालीन भगवान् महावीर ने भी कुछ दिन हुए मैं भोपाल, भेलसा और साँची की ओर ऐसा ही एक युगसन्देश दिया है। ययाति जैसे सम्राट ने अपने गया था। भौगोलिक दृष्टि से यह प्रदेश भारत के केन्द्र में है। लड़कों का यौवन अनुभव करने के बाद और हर तरह के बौद्ध धर्म के समर्थ प्रचारक सारिपुत्त और मोग्गलायन के विलास में डूबने के बाद कहा था : "इस सारी दुनिया में कारण यह एक तीर्थस्थल है ही। भगवान् महावीर के परम जितने चावल हैं, गेहं हैं, तिल हैं—यानी साधन-सम्पत्ति कल्याणमय उपदेश का प्रचार इस प्रदेश में कम नहीं हआ है। हैं और जितने भी दास-दासियाँ हैं, एक आदमी के उपभोग और वेदान्त का प्रचार तो भारतवर्ष के जर-जरे में पैठ के लिए भी पर्याप्त नहीं हैं; इसलिए भोग-विलास को बढ़ाते गया है। भारतवर्ष के हृदय के समान उस स्थान को देखकर मत जाओ; संयम करना सीखो।" भगवान् महावीर ने भी मेरे मन में यह समन्वय की नयी 'प्रस्थानत्रयी' विशेष रूप से यही तपस्या का और संयम का मार्ग सिखाया । उन्होंने यह स्पष्ट हुई। 'अनेकांत' का संदेश समझनेवाले लोगों को चाहिए भी कहा कि, मनुष्य का अनुभव एकांगी होता है, दृष्टि एकांगी कि वे इस स्थान पर ऐसी एक प्रचण्ड प्रवत्तिका वपन कर दें होती है, इन सब दृष्टियों के समन्वय से ही केवल सत्य का, जिसका प्रकाश सारे भारत में ही नहीं, दसों दिशाओं में फैल सम्पूर्ण सत्य का ज्ञान होगा। भगवान् महावीर ने यह भी सके। आज का युग, समन्वय का युग है। महावीर की जयंती बताया कि लोभ और वासना पर विजय पाने के लिए और के दिन हम संकल्प करें कि बौद्ध, जैन और वेदान्त-इस सर्वकल्याणकारी समन्वय-दृष्टि प्राप्त करने के लिए आत्म- त्रिमूर्ति की हम अपनी संगम-संस्कृति में स्थापना करेंगे और शक्ति बढ़ानी चाहिए। स्याद्वाद या अनेकान्तवाद को मैंने भगवान् महावीर की कृपा से सर्व-धर्म-समन्वय का अनुशीलन बौद्धिक अहिंसा का नाम दिया है। जिस तरह peaceful करेंगे।
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जैन-संस्कृति का हृदय प्रज्ञाचक्षु पं० श्री सुखलालजी संघवी
संस्कृति का स्रोत
ऐसा नहीं होता। क्योंकि किसी भी संस्कृति के आन्तर स्वरूप संस्कृति का स्रोत ऐसे नदी के प्रवाह के समान है जो का साक्षात् आकलन तो सिर्फ उसी को होता है जो उसे अपने अपने प्रभवस्थान से अन्त तक अनेक दुसरे छोटे-मोटे जल- जीवन में तन्मय कर ले । दूसरे लोग उसे जानना चाहें तो स्रोतों से मिश्रित, परिवधित और परिवर्तित होकर अनेक साक्षात् दर्शन नहीं कर सकते। पर उस आन्तर संस्कृतिमय दूसरे मिश्रणों से भी युक्त होता रहता है और उदगम-स्थान जीवन बिताने वाले पुरुष या पुरुषों के जीवन-व्यवहारों से में पाये जानेवाले रूप, स्पर्श, गन्ध तथा स्वाद आदि में कुछ न तथा आस-पास के वातावरण पर पड़ने वाले उनके असरों से कुछ परिवर्तन भी करता रहता है। जैन कहलाने वाली संस्कृति वे किसी भी आन्तर संस्कृति का अन्दाजा लगा सकते हैं। भी उस संस्कृति-सामान्य के नियम का अपवाद नहीं है। यहाँ मुझे मुख्यतया जैन-संस्कृति के उस आन्तर रूप का या जिस संस्कृति को आज हम जैन-संस्कृति के नाम से पहचानते हृदय का ही परिचय देना है, जो बहुधा अभ्यासजनित कल्पना हैं उसके सर्व-प्रथम आविर्भावक कौन थे और उनसे वह पहिले- तथा अनुमान पर ही निर्भर है। पहल किस स्वरूप में उद्गत हुई इसका पूरा-पूरा सही वर्णन करना इतिहास की सीमा के बाहर है। फिर भी उस पूरातन जन-संस्कृति का बाह्य स्वरूप प्रवाह का जो और जैसा स्रोत हमारे सामने है तथा वह जिन जैन संस्कृति के बाहरी स्वरूप में, अन्य संस्कृतियों के आधारों के पट पर बहता चला आता है, उस स्रोत तथा उन बाहरी स्वरूप की तरह, अनेक वस्तुओं का समावेश होता है। साधनों के ऊपर विचार करते हुए हम जैन-संस्कृति का शास्त्र, उसकी भाषा, मन्दिर, उसका स्थापत्य, मूर्ति-विधान, हृदय थोड़ा-बहुत पहिचान पाते हैं।
उपासना के प्रकार, उसमें काम आने वाले उपकरण तथा
द्रव्य, समाज के खानपान के नियम, उत्सव, त्यौहार आदि जैन-संस्कृति के दो रूप
अनेक विषयों का जैन समाज के साथ एक निराला सम्बन्ध जैन-संस्कृति के भी, दूसरी संस्कृतियों की तरह, दो रूप है और प्रत्येक विषय अपना खास इतिहास भी रखता है। ये हैं। एक बाह्य और दूसरा आन्तर । बाह्य रूप वह है जिसे सभी बातें बाह्य संस्कृति के अंग हैं पर यह कोई नियम नहीं उस संस्कृति के अलावा दूसरे लोग भी आंख, कान आदि है कि जहाँ-जहाँ और जब ये तथा दूसरे अंग मौजूद हों वहाँ बाह्य इन्द्रियों से जान सकते हैं। पर संस्कृति का आन्तरस्वरूप और तब उसका हृदय भी अवश्य होना ही चाहिये। बाह्य
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अंगों के होते हुए भी कभी हृदय नहीं रहता और बाह्य अंगों अनात्मवादके अभाव में भी संस्कृति का हृदय संभव है। इस दृष्टि को सामने रखकर विचार करने वाला कोई भी व्यक्ति भली- आज की तरह बहुत पुराने समय में भी ऐसे विचारक भाँति समझ सकेगा कि जैन-संस्कृति का हृदय, जिसका वर्णन लोग थे जो वर्तमान जीवन में प्राप्त होनेवाले सुख के उस मैं यहाँ करने जा रहा है वह केवल जैन समाजजात और जैन पार किसी अन्य सुख की कल्पना से न तो प्रेरित होते थे और कहलाने वाले व्यक्तियों में ही संभव है ऐसी कोई बात नहीं न उसके साधनों की खोज में समय बिताना ठीक समझते थे। है। सामान्य लोग जिन्हें जैन समझते हैं, या जो अपने को जैन उनका ध्येय वर्तमान जीवन का सुख-भोग ही था और वे कहते हैं, उनमें अगर आन्तरिक योग्यता न हो तो वह हृदय इसी ध्येय की पूर्ति के लिये सब साधन जुटाते थे। वे समझते संभव नहीं और जैन नहीं कहलानेवाले व्यक्तियों में भी थे कि हम जो कुछ हैं वह इसी जन्म तक हैं और मत्यु के बाद अगर वास्तविक योग्यता हो तो वह हृदय संभव है। इस हम फिर जन्म ले नहीं सकते। बहुत हुआ तो हमारे पुनर्जन्म तरह जब संस्कृति का वाह्य रूप समाज तक ही सीमित का अर्थ हमारी सन्तति का चालू रहना है। अतएव हम जो होने के कारण अन्य समाज में सुलभ नहीं होता तब संस्कृति अच्छा करेंगे उसका फल इस जन्म के बाद भोगने के वास्ते का हृदय उस समाज के अनुयायिओं की तरह इतर समाज हमें उत्पन्न होना नहीं है। हमारे किये का फल हमारी के अनुयायिओं में भी संभव होता है। सच तो यह है सन्तान या हमारा समाज भोग सकता है। इसे पुनर्जन्म कहना कि संस्कृति का हदय या उसकी आत्मा इतनी व्यापक और हो तो हमें कोई आपत्ति नहीं । ऐसा विचार करने वाले स्वतन्त्र होती है कि उसे देश, काल, जात-पात, भाषा और वर्ग को हमारे प्राचीनतम शास्त्रों में भी अनात्मवादी या रीति-रस्म आदि न तो सीमित कर सकते हैं और न अपने नास्तिक कहा गया है। वही वर्ग कभी आगे जाकर चार्वाक साथ बाँध सकते हैं।
कहलाने लगा। इस वर्ग की दृष्टि में साध्य-पुरुषार्थ एक मात्र जैन-संस्कृति का हृदय-निवर्तक धर्म
काम अर्थात् सुख-भोग ही है। उसके साधन रूप से वह वर्ग ___ अब प्रश्न यह है कि जैन-संस्कृति का हृदय क्या चीज़
धर्म की कल्पना नहीं करता या धर्म नाम से तरह-तरह के है ? इसका संक्षिप्त जवाब तो यही है कि निवर्तक धर्म जैन
विधिविधानों पर विचार नहीं करता। अतएव इस वर्ग को एक संस्कृति की आत्मा है। जो धर्म निवृत्ति कराने वाला अर्थात्
मात्र काम-पुरुषार्थी या बहुत हुआ तो काम और अर्थ उभयपुनर्जन्म के चक्र का नाश कराने वाला हो या उस निवृत्ति के
पुरुषार्थी कह सकते हैं। साधन रूप से जिस धर्म का आविर्भाव, विकास और प्रचार हुआ हो वह निवर्तक धर्म कहलाता है। इसका असली अर्थ प्रवर्तक-धर्मसमझने के लिए हमें प्राचीन किन्तु समकालीन इतर धर्म
दूसरा विचारक वर्ग शारीरिक जीवनगत सुख को साध्य स्वरूपों के बारे में थोड़ा-सा विचार करना होगा ।
तो मानता है पर वह मानता है कि जैसा मौजूदा जन्म में धर्मों का वर्गीकरण
सुख सम्भव है वैसे ही प्राणी मरकर फिर पुनर्जन्म ग्रहण .इस समय जितने भी धर्म दुनिया में जीवित हैं या करता है और इस तरह जन्म-जन्मान्तर में शारीरिक-मानजिनका थोड़ा-बहुत इतिहास मिलता है, उन सबके आन्तरिक सिक सुखों के प्रकर्ष-अपकर्ष की शृंखला चल रही है। जैसे स्वरूप का अगर वर्गीकरण किया जाय तो वह मुख्यतया तीन इस जन्म में वैसे ही जन्मान्तर में भी हमें सुखी होना हो, या भागों में विभाजित होता है :--
अधिक सूख पाना हो, तो इसके वास्ते हमें धर्मानष्ठान भी १-पहला वह है, जो मौजूदा जन्म का ही विचार करना होगा। अर्थोपार्जन आदि साधन वर्तमान जन्म में उपकरता है।
कारक भले ही हो पर जन्मान्तर के उच्च और उच्चतर सुख २-दूसरा वह है जो मौजूदा जन्म के अलावा जन्मांतर के लिये हमें धर्मानुष्ठान अवश्य करना होगा। ऐसी विचारका भी विचार करता है।
सरणी वाले लोग तरह-तरह के धर्मानुष्ठान करते थे और ३-तीसरा वह है जो जन्म-जन्मान्तर के उपरान्त उसके द्वारा परलोक तथा लोकान्तर के उच्च सुख पाने की
उसके नाश का या उच्छेद का भी विचार करता है। इच्छा भी रखते थे। यह वर्ग आत्मवादी और पुनर्जन्मवादी
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तो है ही पर उसकी कल्पना जन्म-जन्मान्तर में अधिकाधिक सुख पाने की तथा प्राप्त सुख की अधिक से अधिक समय तक स्थिर रखने की होने से उसके धर्मानुष्ठानों को प्रवर्तक धर्म कहा गया है। प्रवर्तक धर्म का संक्षेप में सार यह है कि जो और जैसी समाज व्यवस्था हो उसे इस तरह नियम और कर्तव्यबद्ध बनाना कि जिससे समाज का प्रत्येक सभ्य अपनी-अपनी स्थिति और कक्षा में सुखलाभ करे और साथ ही ऐसे जन्मान्तर की तैयारी करे कि जिससे दूसरे जन्म में भी वह वर्तमान जन्म की अपेक्षा अधिक और स्थायी सुख पा सके। प्रवर्तक धर्म का उद्देश्य समाज व्यवस्था के साथ-साथ जन्मान्तर का सुधार करना है, न कि जन्मान्तर का उच्छेद। प्रवर्तक धर्म के अनुसार काम, अर्थ और धर्म, तीन पुरुषार्थ हैं । उसमें 'मोक्ष' नामक चौबे पुरुषार्थ की कोई कल्पना नहीं है। प्राचीन ईरानी आर्य जो अवस्ता को धर्मग्रंथ मानते थे और प्राचीन वैदिक आर्य जो मन्त्र और ब्राह्मणरूप वेद भाग को ही मानते थे, वे सब उक्त प्रवर्तक धर्म के अनुयायी हैं। आगे जाकर वैदिक दर्शनों में जो मीमांसादर्शन नाम से कर्मकाण्डी दर्शन प्रसिद्ध हुआ वह प्रवर्तक धर्म का जीवित रूप है । निवर्तक धर्म
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निवर्तक धर्म ऊपर सूचित प्रवर्तक धर्म का बिल्कुल विरोधी है। जो विचारक इस लोक के उपरान्त लोकान्तर और जन्मान्तर मानने के साथ-साथ उस जन्मचक्र को धारण करने वाली आत्मा को प्रवर्तक धर्मवादियों की तरह तो मानते ही थे; पर साथ ही वे जन्मान्तर में प्राप्य, उच्च, उच्चतर और चिरस्थायी सुख से सन्तुष्ट न थे। उनकी दृष्टि यह थी कि इस जन्म या जन्मान्तर में कितना ही ऊँचा सुख क्यों न मिले, वह कितने ही दीर्घकाल तक क्यों न स्थिर रहे पर अगर वह सुख कभी न कभी नाश पाने वाला है तो फिर वह उच्च और चिरस्थायी सुख भी अन्त में निकृष्ट सुख की कोटि का होने से उपादेय हो नहीं सकता । वे लोग ऐसे किसी सुख की खोज में थे जो एक बार प्राप्त होने के बाद कभी नष्ट न हो। इस खोज की सूझ ने उन्हें मोक्ष पुरुषार्थ मानने के लिये बाधित किया। वे मानने लगे कि एक ऐसी भी आत्मा की स्थिति संभव है जिसे पाने के बाद फिर कभी जन्म-जन्मान्तर या देह धारण करना नहीं पड़ता। वे आत्मा की उस स्थिति को मोक्ष या जन्म - निवृत्ति कहते थे । प्रवर्तक धर्मानुयायी जिन उच्च और उच्चतर धार्मिक अनुष्ठानों से इस लोक तथा परलोक के उत्कृष्ट सुखों के लिये प्रयत्न करते थे उन धार्मिक अनुष्ठानों
को निवर्तक धर्मानुयायी अपने साध्य मोक्ष या निवृत्ति के लिए न केवल अपर्याप्त ही समझते थे बल्कि वे उन्हें मोक्ष पाने में बाधक समझ कर उन सब धार्मिक अनुष्ठानों को आत्यन्तिक हेय बतलाते थे । उद्देश्य और दृष्टि में पूर्व-पश्चिम जितनाअन्तर होने से प्रवर्तक धर्मानुयायियों के लिए जो उपादेय वही निवर्तक धर्मानुयायिओं के लिए हेय बन गया। यद्यपि मोक्ष के लिए प्रवर्तक धर्म बाधक माना गया पर साथ ही मोक्षवादियों को अपने साध्य मोक्ष-पुरुषार्थ के उपाय रूप से किसी सुनिश्चित मार्ग की खोज करना भी अनिवार्य रूप से प्राप्त था । इस खोज की सूझ ने उन्हें एक ऐसा मार्ग, एक ऐसा उपाय सुझाया जो किसी बाहरी साधन पर निर्भर न था। वह एक मात्र साधक की अपनी विचारशुद्धि और वर्तन-शुद्धि पर अवलंबित था। यही विचार और वर्तन की आत्यन्तिक शुद्धि का मार्ग निवर्तक धर्म के नाम से या मोक्ष मार्ग के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
हम भारतीय संस्कृति के विचित्र और विविध तानेबाने की जांच करते हैं तब हमें स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि भारतीय आत्मवादी दर्शनों में कर्मकाण्डी मीमांसक के अलावा सभी निवर्तक धर्मवादी है। अवैदिक माने जानेवाले बौद्ध और जैन दर्शन की संस्कृति तो मूल में निवर्तक-धर्म स्वरूप है ही पर वैदिक समझे जाने वाले न्याय-वैशेषिक, सांख्ययोग तथा औपनिषद् दर्शन की आत्मा भी निवर्तक-धर्म पर ही प्रतिष्ठित है । वैदिक हो या अवैदिक सभी निवर्तक धर्म, प्रवर्तक-धर्म को या यज्ञयागादि अनुष्ठानों को अन्त में हेय ही बतलाते हैं। और वे सभी सम्यक् ज्ञान या आत्म-ज्ञान को तथा आत्मज्ञानमूलक अनासक्त जीवन व्यवहार को उपादेय मानते हैं एवं उसी के द्वारा पुनर्जन्म के चक्र से छुट्टी पाना सम्भव बतलाते हैं।
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समाजगामी प्रवर्तक-धर्म
ऊपर सूचित किया जा चुका है कि प्रवर्तक धर्म समाजगामी था। इसका मतलब यह था कि प्रत्येक व्यक्ति समाज में रहकर ही सामाजिक कर्तव्य जो ऐहिक जीवन से सम्बन्ध रखते और धार्मिक कर्तव्य जो पारलौकिक जीवन से सम्बन्ध रखते हैं, उनका पालन करे। प्रत्येक व्यक्ति जन्म से ही ऋषिऋण अर्थात् विद्याध्ययन आदि पितृ ऋण अर्थात् संततिजननादि और देव ऋण अर्थात् यज्ञयागादि बन्धनों से आबद्ध है। व्यक्ति को सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों का पालन करके अपनी कृपण इच्छा का संशोधन करना इष्ट है। पर
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उसका निर्मल नाश करना न शक्य और न इष्ट । प्रवर्तक- अन्त में तो यहाँ तक प्रवर्तक धर्मानुयायी ब्राह्मणों ने विधान धर्म के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के लिए गृहस्थाश्रम जरूरी है। मान लिया कि गहस्थाश्रम के बाद जैसे संन्यास न्यायप्राप्त है उसे लाँघ कर कोई विकास कर नहीं सकता।
वैसे ही अगर तीव्र वैराग्य हो तो गहस्थाश्रम बिना किए भी व्यक्तिगामी निवर्तक धर्म
सीधे ही ब्रह्मचर्याश्रम से प्रव्रज्यामार्ग न्याय-प्राप्त है। इस
तरह जो प्रवर्तक-धर्म का जीवन में समन्वय स्थिर हुआ निवर्तक-धर्म व्यक्तिगामी है। वह आत्मसाक्षात्कार की
उसका फल हम दर्शनिक साहित्य और प्रजाजीवन में आज भी उत्कृष्ट वृत्ति में से उत्पन्न होने के कारण जिज्ञासु को आत्म ।
देखते हैं। तत्त्व है या नहीं, है तो वह कैसा है, उसका अन्य के साथ कैसा संबंध है, उसका साक्षात्कार संभव है तो किन-किन समन्वय और संघर्षणउपायों से संभव है, इत्यादि प्रश्नों की ओर प्रेरित करता है। जो तत्त्वज्ञ ऋषि प्रवर्तक-धर्म के अनुयायी ब्राह्मणों के ये प्रश्न ऐसे नहीं हैं कि जो एकान्त-चिन्तन, ध्यान, तप और वंशज होकर भी निवर्तक-धर्म को पूरे तौर से अपना चुके थे असंगतापूर्ण जीवन के सिवाय सुलझ सकें। ऐसा सच्चा जीवन उन्होंने चिन्तन और जीवन में निवर्तक-धर्म का महत्त्व व्यक्त खास व्यक्तियों के लिए ही संभव हो सकता है। उसका समाज- किया। फिर भी उन्होंने अपनी पैत्रिक संपत्ति रूप प्रवर्तक-धर्म गामी होना संभव नहीं। इस कारण कर्तव्य-धर्म की अपेक्षा और उसके आधारभत वेदों का प्रामाण्य मान्य रखा । न्यायनिवर्तक-धर्म का क्षेत्र शुरू में बहत परिमित रहा। निवर्तक- वैशेषिक दर्शन के और औपनिषद दर्शन के आद्य द्रष्टा ऐसे ही धर्म के लिए गृहस्थाश्रम का बन्धन था ही नहीं। वह गृहस्था- तत्त्वज्ञ ऋषि थे। निवर्तक-धर्म के कोई-कोई पुरस्कर्ता ऐसे भी श्रम बिना किए भी व्यक्ति को सर्वत्याग की अनुमति देता है। हए कि जिन्होंने तप, ध्यान और आत्मसाक्षात्कार के बाधक क्योंकि उसका आधार इच्छा का संशोधन नहीं, पर उसका क्रियाकांड का तो आत्यंतिक विरोध किया पर उस क्रियाकाण्ड निरोध है। अतएव निवर्तक-धर्म समस्त सामाजिक और की आधारभूत श्रुति का सर्वथा विरोध नहीं किया। ऐसे धार्मिक कर्तव्यों से बद्ध होने की बात नहीं मानता। उसके व्यक्तियों में सांख्य दर्शन के आदि पुरुष कपिल आदि ऋषि थे। अनुसार व्यक्ति के लिए मुख्य कर्तव्य एक ही है और वह यह कारण है कि मूल में सांख्य-योगदर्शन, प्रवर्तक धर्म का विरोधी कि जिस तरह हो आत्मसाक्षात्कार का और उसमें रुकावट होने पर भी अन्त में वैदिक दर्शनों में समा गया। डालने वाली इच्छा के नाश का प्रयत्न करे।
समन्वय की ऐसी प्रक्रिया इस देश में शताब्दियों तक
चली। फिर कुछ ऐसे आत्यन्तिकवादी दोनों धर्मों में होते रहे निवर्तक-धर्म का प्रभाव व विकास
कि वे अपने-अपने प्रवर्तक या निवर्तक धर्म के अलावा दूसरे जान पड़ता है इस देश में जब प्रवर्तक-धर्मानुयायी वैदिक
पक्ष को न मानते थे, और न युक्त बतलाते थे। भगवान् आर्य पहले-पहल आए तब भी कहीं इस देश में निवर्तक-धर्म
महावीर और बुद्ध के पहले भी ऐसे अनेक निवर्तक-धर्म के एक या दूसरे रूप में प्रचलित था । शुरू-शुरू में इन दो धर्म
पुरस्कर्ता हुए हैं। फिर भी महावीर और बुद्ध के समय में तो संस्थाओं के विचारों में पर्याप्त संघर्ष रहा। पर निवर्तक-धर्म ।
इस देश में निवर्तक-धर्म की पोषक ऐसी अनेक संस्थाएँ थीं के इने-गिने सच्चे अनुगामियों की तपस्या, ध्यान-प्रणाली और और दसरी अनेक ऐसी नई दादोबी कि जोक. असंगचर्या का साधारण जनता पर जो प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ धर्म का उग्रता से विरोध करती थीं। अब तक नीच से ऊँच रहा था उसने प्रवर्तक-धर्म के कुछ अनुगामियों को भी अपनी तक के वर्गों में निवर्तक-धर्म की छाया में विकास पानेवाले ओर खींचा और निवर्तक-धर्म की संस्थाओं का अनेक रूप में विविध तपोनुष्ठान, विविध ध्यान-मार्ग और नानाविध त्यागविकास होना शुरू हआ । इसका प्रभावकारी फल अन्त में यह मय आचारों का इतना अधिक प्रभाव फैलने लगा था कि फिर हआ कि प्रवर्तक-धर्म के आधार रूप जो ब्रह्मचर्य और गृहस्थ एक बार महावीर और बुद्ध के समय में प्रवर्तक और निवर्तक दो आश्रम माने जाते थे उनके स्थान में प्रवर्तक-धर्म के पुरस्- धर्म के बीच प्रबल विरोध की लहर उठी जिसका सबूत हम कर्ताओं ने पहले तो वानप्रस्थ सहित तीन और पीछे संन्यास जैन-बौद्ध वाङ्मय तथा समकालीन ब्राह्मण वाङ्मय में पाते सहित चार आश्रमों को जीवन में स्थान दिया । निवर्तक-धर्म हैं। तथागत बुद्ध ऐसे पक्व विचारक और दृढ़ थे कि जिन्होंने की अनेक संस्थाओं के बढ़ते हुए जनव्यापी प्रभाव के कारण किसी भी तरह से अपने निवर्तक-धर्म में प्रवर्तक-धर्म के
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आधारभूत मन्तव्यों और शास्त्रों को आश्रय नहीं दिया। दीर्घ- खास ढंग से विकास करता जा रहा था। उसी सम्प्रदाय में तपस्वी महावीर भी ऐसे ही कट्टर निवर्तक-धर्मी थे । अत- पहिले नाभिनन्दन ऋषभदेव, यदुनन्दन नेमिनाथ और काशीएव हम देखते हैं कि पहिले से आज तक जैन और बौद्ध राजपुत्र पार्श्वनाथ हो चुके थे, या वे उस सम्प्रदाय के मान्य सम्प्रदाय में अनेक वेदानुयायी विद्वान ब्राह्मण दीक्षित हुए फिर पुरुष बन चुके थे। उस सम्प्रदाय के समय-समय पर अनेक भी उन्होंने जैन और बौद्ध वाङ्मय में वेद के प्रामाण्य-स्थापन नाम प्रसिद्ध रहे । यति, भिक्ष, मुनि, अनगार, श्रमण आदि का न कोई प्रयत्न किया और न किसी ब्राह्मणग्रन्थ-विहित जैसे नाम तो उस सम्प्रदाय के लिए व्यवहृत होते थे पर जब यज्ञयागादि कर्मकाण्ड को मान्य रक्खा ।
दीर्घ-तपस्वी महावीर उस सम्प्रदाय के मुखिया बने तब
सम्भवतःवह सम्प्रदाय 'निर्ग्रन्थ' नाम से विशेष प्रसिद्ध हुआ। निवर्तक-धर्म के मन्तव्य और आचार
यद्यपि निवर्तक-धर्मानुयायी पन्थों में ऊँची आध्यात्मिक शताब्दियों ही नहीं बल्कि सहस्राब्दि पहिले से लेकर जो भूमिका पर पहुँचे हुए व्यक्ति के वास्ते 'जिन' शब्द साधारण धीरे-धीरे निवर्तक धर्म के अंग-प्रत्यंग रूप से अनेक मन्तव्यों रूप से प्रयुक्त होता था। फिर भी भगवान महावीर के समय और आचारों का महावीर-बुद्ध तक के समय में विकास हो में और उनके कुछ समय बाद तक भी महावीर का अनुयायी चका था वे संक्षेप में ये हैं
साधु या गृहस्थ वर्ग 'जैन' (जिनानुयायी) नाम से व्यवहृत १ आत्मशुद्धि ही जीवन का मुख्य उद्देश्य है, न कि ऐहिक नहीं होता था। आज जैन शब्द से महावीर पोषित सम्प्रदाय या परलौकिक किसी भी पद का महत्त्व ।
के 'त्यागी' और 'गृहस्थ' सभी अनुयायियों का जो बोध होता २-इस उद्देश्य की पूर्ति में बाधक आध्यात्मिक मोह, है इसके लिए पहले 'निग्गंथ' और 'समणोवासग' आदि जैन अविद्या और तज्जन्य तृष्णा का मूलोच्छेद करना।
शब्द व्यवहृत होते थे। ३-इसके लिए आध्यात्मिक ज्ञान और उसके द्वारा सारे जीवन व्यवहार को पूर्ण निस्तष्ण बनाना। इसके वास्ते जन और बौद्ध सम्प्रदायशारीरिक, मानसिक, वाचिक, विविध तपस्याओं का तथा इस निर्ग्रन्थ या जैन सम्प्रदाय में ऊपर सूचित निवृत्तिनाना प्रकार के ध्यान, योग-मार्ग का अनुसरण और तीन चार धर्म के सब लक्षण बहुधा थे ही पर इसमें ऋषभ आदि पूर्वपाँच महाव्रतों का यावज्जीवन अनुष्ठान ।
कालीन त्यागी महापुरुषों के द्वारा तथा अन्त में ज्ञातपुत्र ४--किसी भी आध्यात्मिक अनुभव वाले मनुष्य के द्वारा महावीर के द्वारा विचार और आचारगत ऐसी छोटी-बड़ी किसी भी भाषा में कहे गये आध्यात्मिक वर्णनवाले वचनों को अनेक विशेषताएँ आई थीं व स्थिर हो गई थी कि जिनसे ही प्रमाण रूप से मानना, न कि ईश्वरीय या अपौरुषेय रूप ज्ञातपूत्र-महावीरपोषित यह सम्प्रदाय दूसरे निवृत्तिगामी से स्वीकृत किसी खास भाषा में रचित ग्रन्थों को।
सम्प्रदायों में खास जुदारूप धारण किए हुए था। यहाँ तक ५-योग्यता और गुरुपद की कसौटी एक मात्र जीवन कि यह जैन सम्प्रदाय बौद्ध सम्प्रदाय से भी खास फर्क रखता की आध्यात्मिक शुद्धि, न कि जन्मसिद्ध वर्ण-विशेष। इस दृष्टि था। महावीर और बुद्ध न केवल समकालीन ही थे बल्कि वे से स्त्री और शूद्र तक का धर्माधिकार उतना ही है जितना एक बहुधा एक ही प्रदेश में विचरने वाले तथा समान और समब्राह्मण और क्षत्रिय पुरुष का।
कक्ष अनुयायियों को एक हीभाषा में उपदेश करते थे। दोनों ६-मद्य-मांस आदि का धार्मिक और सामाजिक जीवन के मख्य उद्देश्य में कोई अन्तर नहीं था फिर भी महावीरमें निषेध । ये तथा इनके जैसे लक्षण जो प्रवर्तक-धर्म के पोषित और बुद्धसंचालित सम्प्रदायों में शुरू से ही खास आचारों और विचारों से जुदा पड़ते थे वे देश में जड़ जमा अन्तर रहा, जो ज्ञातव्य है। बौद्ध सम्प्रदाय बुद्ध को ही आदर्श चके थे और दिन-ब-दिन विशेष बल पकड़ते जाते थे। रूप में पूजता है तथा बुद्ध के ही उपदेशों का आदर करता है
जबकि जैन सम्प्रदाय महावीर आदि को इष्ट देव मानकर निर्गन्थ-सम्प्रदाय
उन्हीं के वचनों को मान्य रखता है । बौद्ध चित्तशुद्धि के लिये कमोवेश उक्त लक्षणों को धारण करनेवाली अनेक ध्यान और मानसिक संयम पर जितना जोर देते हैं उतना संस्थाओं और सम्प्रदायों में एक ऐसा पुराना निवर्तक-धर्मी जोर बाह्य तप और देहदमन पर नहीं। जैन ध्यान और मानसम्प्रदाय था जो महावीर के पहिले बहुत शताब्दियों से अपने सिक संयम के अलावा देहदमन पर भी अधिक जोर देते रहे।
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बुद्ध का जीवन जितना लोगों में हिलने-मिलनेवाला तथा उनके उपदेश जितने सीधे-सादे लोकसेवागामी हैं वैसा महावीर का जीवन तथा उपदेश नहीं है। बौद्ध अनवार की बाह्य चर्या उतनी नियन्त्रित नहीं रही जितनी जन अनगारों की। इसके सिवाय और भी अनेक विशेषताएँ हैं जिनके कारण बौद्ध सम्प्रदाय भारत के समुद्र और पर्वतों की सीमा लाँघकर उस पुराने समय में भी अनेक भिन्न-भिन्न भाषा-भाषी, सभ्यअसभ्य जातियों में दूर-दूर तक फैला और करोड़ों अभारतीयों ने भी बौद्ध आचार-विचार को अपने-अपने ढंग से अपनीअपनी भाषा में उतारा व अपनाया जबकि जैन सम्प्रदाय के विषय में ऐसा नहीं हुआ ।
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यद्यपि जैन सम्प्रदाय ने भारत के बाहर स्थान नहीं जमाया फिर भी वह भारत के दूरवर्ती सब भागों में धीरे-धीरे न केवल फैल ही गया बल्कि उसने अपनी कुछ खास विशेषताओं की छाप प्रायः भारत के सभी भागों पर थोड़ी बहुत जरूर डाली। जैसे-जैसे जैन सम्प्रदाय पूर्व से उत्तर और पश्चिम तथा दक्षिण की ओर फैलता गया वैसे-वैसे उस प्रवर्तक धर्म वाले तथा निवृत्ति-पंथी अन्य सम्प्रदायों के साथ थोड़े-बहुत संघर्ष में भी आना पड़ा। इस संघर्ष में कभी तो जैन आचारविचारों का असर दूसरे सम्प्रदायों पर पड़ा और कभी दूसरे सम्प्रदायों के आचार-विचारों का असर जैन सम्प्रदाय पर भी पड़ा। यह क्रिया किसी एक ही समय में या एक ही प्रदेश में किसी एक ही व्यक्ति के द्वारा सम्पन्न नहीं हुई बल्कि दृश्य । अदृश्य रूप में हजारों वर्ष तक चलती रही और आज भी चालू है । पर अन्त में जैन सम्प्रदाय और दूसरे भारतीय अभारतीय सभी धर्म-सम्प्रदायों का स्वायी, सहिष्णुतापूर्ण समन्वय सिद्ध हो गया है जैसा कि एक कुटुम्ब के भाइयों में होकर रहता है। इस पीढ़ियों के समन्यय के कारण साधारण लोग यह जान ही नहीं सकते कि उसके धार्मिक आचारविचार की कौन सी बात मौलिक है और कौन सी दूसरों के संसर्ग का परिणाम है! जैन आचार-विचार का जो असर दूसरों पर पड़ा है उसका दिग्दर्शन करने के पहिले दूसरे सम्प्रदायों के आचार-विचार का जैन मार्ग पर जो असर पड़ा है उसे संक्षेप में बतलाना ठीक होगा जिससे कि जैन संस्कृति काहार्द सरलता से समझा जा सके ।
अन्य संप्रदायों का जैन संस्कृति पर प्रभाव
इंद्र, वरुण आदि स्वर्गीय देव देवियों की स्तुति, उपासना के स्थान में जैनों का आदर्श है निष्कलंक मनुष्य की
उपासना पर जैन आचार-विचार में बहिष्कृत देव देवियाँ, पुनः गौण रूप से ही सही, स्तुति प्रार्थना द्वारा घुस ही गईं, जिसका जैन संस्कृति के उद्देश्य के साथ कोई भी मेल नहीं है । जैन परंपरा ने उपासना में प्रतीक रूप से मनुष्य मूर्ति को स्थान तो दिया, जो कि उसके उद्देश्य के साथ संगत है पर साथ ही उसके आस-पास शृंगार व आडम्बर का इतना संभार आ गया जो कि निवृत्ति के लक्ष्य के साथ बिलकुल असंगत है । स्त्री और शूद्र को आध्यात्मिक समानता के नाते ऊँचा उठाने का तथा समाज में सम्मान व स्थान दिलाने का जो जैन संस्कृति का उद्देश्य रहा वह यहाँ तक लुप्त हो गया कि न केवल उसने शूद्रों को अपनाने की क्रिया ही बन्द कर दी बल्कि उसने ब्राह्मण-धर्म- प्रसिद्ध जाति की दीवारें खड़ी कीं । यहाँ तक कि जहाँ ब्राह्मण-परंपरा का प्राधान्य रहा वहां तो उसने अपने घेरे में से भी शूद्र कहलाने वाले लोगों को अजैन कहकर बाहर कर दिया और शुरू में जैन संस्कृति जिस जातिभेद का विरोध करने में गौरव समझती थी उसने दक्षिण जैसे देशों में नये जाति-भेद की सृष्टि कर दी तथा स्त्रियों को पूर्ण आध्यात्मिक योग्यता के लिये असमर्थ करार दिया जो कि स्पष्टतः कट्टर ब्राह्मण-परंपरा का ही असर है । मन्त्र-तन्त्र, ज्योतिष आदि विद्याएँ जिनका जैन संस्कृति के ध्येय के साथ कोई सम्बन्ध नहीं वे भी जैन संस्कृति में आई। इतना ही नहीं बल्कि आध्यात्मिक जीवन स्वीकार करने वाले अनगारों तक ने उन विद्याओं को अपनाया। जिन यज्ञोपवीत आदि संस्कारों का मूल में जैन संस्कृति के साथ कोई सम्बन्ध न था वे ही दक्षिण हिन्दुस्तान में मध्यकाल में जैन संस्कृति का एक अंग बन गये और इसके लिये ब्राह्मण-परंपरा की तरह जैन-परंपरा में भी एक पुरोहित वर्ग क़ायम हो गया । यज्ञयागादि की ठीक नक़ल करने वाले क्रियाकाण्ड प्रतिष्ठा आदि विधियों में आ गये। ये तथा ऐसी दूसरी अनेक छोटी-मोटी बातें इसलिये घटी कि जैन संस्कृति को उन साधारण अनुयायियों की रक्षा करनी थी जो कि दूसरे विरोधी सम्प्रदायों में से आकर उसमें शरीक होते थे, या दूसरे सम्प्रदायों के आचार-विचारों से अपने को बचा न सकते थे। अब हम थोड़े में यह भी देखेंगे कि जैन संस्कृति का दूसरों पर क्या खास असर पड़ा है ।
जैन संस्कृति का प्रभाव
यों तो सिद्धांततः सर्वभूतदया को सभी मानते हैं पर प्राणिरक्षा के ऊपर जितना जोर जैन परंपरा ने दिया, जितनी लगन से उसने इस विषय में काम किया उसका नतीजा सारे
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ऐतिहासिक युग में यह रहा है कि जहाँ-तहाँ और जब जब कट्टर विरोधी सम्प्रदायों को भी कुछ-न-कुछ प्रेरणा मिलती जैन लोगों का एक या दूसरे क्षेत्र में प्रभाव रहा सर्वत्र आम ही रही है। रामानुज का विशिष्टाद्वैत उपनिषद् की भूमिका जनता का प्राणिरक्षा का प्रबल संस्कार पड़ा है। यहाँ तक के ऊपर अनेकान्तवाद ही तो है। कि भारत के अनेक भागों में अपने को अजैन कहने वाले तथा । जैन-विरोधी समझने वाले साधारण लोग जीव-मात्र की जन-परपरा क आदशहिंसा से नफरत करने लगे हैं। अहिंसा के इस सामान्य जैन-संस्कृति के हृदय को समझने के लिये हमें थोड़े से संस्कार के ही कारण अनेक वैष्णव आदि जैनेतर परंपराओं उन आदर्शों का परिचय करना होगा जो पहिले से आज तक के आचार-विचार पुरानी वैदिक परम्परा से बिलकुल जुदा जैन-परम्परा में एक समान मान्य हैं और पूजे जाते हैं। सबसे हो गए हैं । तपस्या के बारे में भी ऐसा ही हुआ है। त्यागी हो पुराना आदर्श जैन-परम्परा के सामने ऋषभदेव और उनके या गृहस्थ सभी जैन तपस्या के ऊपर अधिकाधिक झुकते रहे परिवार का है। ऋषभदेव ने अपने जीवन का बहुत बड़ा भाग हैं । इसका फल पड़ोसी समाजों पर इतना अधिक पड़ा है कि उन जवाबदेहियों का बुद्धिपूर्वक अदा करने में बिताया जो उन्होंने भी एक या दूसरे रूप से अनेक विधि सात्विक तप- प्रजापालन की जिम्मेवारी के साथ उन पर आ पड़ी थीं। स्याएँ अपना ली हैं। और सामान्य रूप से साधारण जनता उन्होंने उस समय के बिल्कुल अपढ़ लोगों को लिखना-पढ़ना जैनों की तपस्या की ओर आदरशील रही है । यहाँ तक कि सिखाया, कुछ काम-धन्धा न जानने वाले वनचरों को उन्होंने अनेक बार मुसलमान सम्राट् तथा दूसरे समर्थ अधिकारियों खेती-बाड़ी तथा बढ़ई, कुम्हार आदि के जीवनोपयोगी धन्धे ने तपस्या से आकृष्ट होकर जैन-सम्प्रदाय का बहुमान ही सिखाए, आपस में कैसे बरतना, कैसे समाज-नियमों का पालन नहीं किया है बल्कि उसे अनेक सुविधाएँ भी दी हैं, मद्यमांस करना यह भी सिखाया। जब उनको महसूस हुआ कि अब आदि सात व्यसनों को रोकने के तथा उन्हें घटाने के लिए बड़ा पुत्र भरत प्रजाशासन की सब जबाबदेहियों को निवाह जैन-वर्ग ने इतना अधिक प्रयत्न किया है कि जिससे वह लेगा तब उसे राज्य-भार सौंपकर गहरे अध्यात्मिक प्रश्नों की व्यसनसेवी अनेक जातियों में सुसंस्कार डालने में समर्थ हआ छानबीन के लिये उत्कट तपस्वी होकर घर से निकल पड़े। है। यद्यपि बौद्ध आदि दूसरे सम्प्रदाय पूरे बल से इस ऋषभदेवकी दो पुत्रियाँ ब्राह्मी और सुन्दरी नाम की थीं। सुसंस्कार के लिए प्रयत्न करते रहे पर जैनों का प्रयत्न इस उस जमाने में भाई-बहन के बीच शादी की प्रथा प्रचलित थी। दिशा में आज तक जारी है और जहां जैनों का प्रभाव ठीक सुन्दरी ने इस प्रथा का विरोध करके अपनी सौम्य तपस्या से ठीक है वहाँ इस स्वैरविहार के स्वतन्त्र युग में भी मुसलमान भाई भरत पर ऐसा प्रभाव डाला कि जिससे भरत ने न केवल और दूसरे मांसभक्षी लोग भी खुल्लमखुल्ला मांस-मद्य का सुंदरी के साथ विवाह करने का विचार ही छोड़ा बल्कि वह उपयोग करने में संकुचाते हैं। लोकमान्य तिलक ने ठीक ही उसका भक्त बन गया । ऋग्वेद के यमीसूक्त में भाई यम ने कहा था कि, गुजरात आदि प्रान्तों में जो प्राणि-रक्षा और भगिनी यमी की लग्न-माँग को अस्वीकार किया जब कि निर्मास भोजन का आग्रह है वह जैन-परंपरा का ही प्रभाव है। भगिनी सुन्दरी ने भाई भरत की लग्न-माँग को तपस्या में जैन-विचारसरणी का एक मौलिक सिद्धांत यह है कि, प्रत्येक परिणत कर दिया और फलतः भाई-बहिन के लग्न की प्रतिवस्तु का विचारविनिमय अधिकाधिक पहलुओं और अधिका- ष्ठित प्रथा नाम-शेष हो गई। धिक दृष्टिकोणों से करना और विवादास्पद विषय में बिल- ऋषभ के भरत और बाहुबली नामक पुत्रों में राज्य के कुल अपने विरोधी पक्ष के अभिप्राय को भी उतना ही सहानु- निमित्त भयानक युद्ध शुरू हुआ। अन्त में द्वन्द्व-युद्ध का फैसला भूति अपने पक्ष की ओर हो, और अन्त में समन्वय पर ही हआ। भरत का प्रचण्ड प्रहार निष्फल गया। जब बाहुबली जीवन-व्यवहार का फैसला करना । यों तो यह सिद्धान्त सभी की बारी आई और समर्थतर बाहुबली को जान पड़ा कि मेरे विचारकों के जीवन में एक या दूसरे रूप से काम करता ही मुष्टि-प्रहार से भरत की अवश्य दुर्दशा होगी तब उसने उस रहता है। इसके सिवाय प्रजाजीवन न तो व्यवस्थित बन भ्रातृविजयाभिमुख क्षण को आत्मविजय में बदल दिया। सकता है और न शान्तिलाभ कर सकता है। पर जैन उसने यह सोचकर कि राज्य के निमित्त लड़ाई में विजय पाने विचारकों ने उस सिद्धांत की इतनी अधिक चर्चा की है और और वैर-प्रतिवैर तथा कुटुम्ब-कलह के बीज बोने की अपेक्षा उस पर इतना अधिक जोर दिया है कि जिससे कट्टर-से- सच्ची विजय अहंकार और तृष्णा-जय में ही है। उसने अपने
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बाहुबल को क्रोध और अभिमान पर ही जमाया और अवर से वैर के प्रतिकार का जीवन दृष्टान्त स्थापित किया। फल यह हुआ कि अन्त में भरत का भी लोभ तथा गर्व खर्व हुआ।
एक समय था जब कि केवल क्षत्रियों में ही नहीं पर सभी वर्गों में मांस खाने की प्रथा थी । नित्य प्रति के भोजन, सामाजिक उत्सव, धार्मिक अनुष्ठानों के अवसर पर पशु-पक्षियों का वध ऐसा ही प्रचलित और प्रतिष्ठित था जैसा आज नारियलों और फलों का चढ़ाना। उस युग में यदुनन्दन नेमिकुमार ने एक अजीब कदम उठाया। उन्होंने अपनी शादी पर भोजन के वास्ते कतल किए जाने वाले निर्दोष पशु-पक्षियों की आतं मूक वाणी से सहसा पिपलकर निश्चय किया कि वे ऐसी शादी न करेंगे जिसमें अनावश्यक और निर्दोष पशु-पक्षियों का वध होता हो । उस गम्भीर निश्चय के साथ वे सबकी सुनी अनसुनी करके बारात से शीघ्र वापिस लौट आये। द्वारका से सीधे गिरनार पर्वत पर जाकर उन्होंने तपस्या की । कौमारवय में राजपूती का त्याग और ध्यान तपस्या का मार्ग अपनाकर उन्होंने उस चिरप्रचलित पशु-पक्षी-वध की प्रथा पर आत्मदृष्टान्त से इतना सख्त प्रहार किया कि जिससे गुजरात भर में और गुजरात के प्रभाव वाले दूसरे प्रान्तों में भी वह प्रथा नाम शेष हो गई और जगह-जगह आज तक चली आनेवाली 'पिंजरापोलों' की लोकप्रिय संस्थाओं में परिवर्तित हो गई ।
पार्श्वनाथ का जीवन आदर्श कुछ और ही रहा है। उन्होंने एक बार दुर्वासा जैसे सहजकोपी तापस तथा उनके अनुयायियों की नाराजगी का ख़तरा उठा कर भी एक जलते साँप की गीली लकड़ी से बचाने का प्रयत्न किया। फल यह हुआ कि आज भी जैन प्रभाव वाले क्षेत्रों में कोई सांप तक को नहीं मारता ।
दीर्घ तपस्वी महावीर ने भी एक बार अपनी अहिंसावृत्ति की पूरी साधना का ऐसा ही परिचय दिया। जब जंगल में वे ध्यानस्थ खड़े थे एक प्रचण्ड विषधर ने उन्हें डस लिया, उस समय वे न केवल ध्यान में अचल ही रहे बल्कि उन्होंने मैत्री भावना का उस विषधर पर प्रयोग किया जिससे वह 'अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्संनिधौ वैरत्यागः ' इस योगसूत्र का जीवित उदाहरण बन गया अनेक प्रसंगों पर यज्ञयागादि धार्मिक कार्यों में होने वाली हिंसा को तो रोकने का भरसक - प्रयत्न वे आजन्म करते ही रहे। ऐसे ही आदशों से जनसंस्कृति उत्प्राणित होती आई है और अनेक कठिनाइयों के बीच भी उसने अपने आदर्शों के हृदय को किसी न किसी तरह संभालने
का प्रयत्न किया है, जो भारत के धार्मिक, सामाजिक और राजकीय इतिहास में जीवित है । जब कभी सुयोग मिला तभी त्यागी तथा राजा, मन्त्री तथा व्यापारी आदि गृहस्थों ने जैन संस्कृति के अहिंसा, तप और संयम के आदर्शों का अपने ढंग से प्रचार किया है।
संस्कृति मात्र का उद्देश्य है मानवता की भलाई की ओर आगे बढ़ना । यह उद्देश्य तभी वह साध सकती है जब वह अपने जनक और पोषक राष्ट्र की भलाई में योग देने की ओर सदा अग्रसर रहे। किसी भी संस्कृति के बाह्य अंग केवल अभ्युदय के समय ही पनपते हैं और ऐसे ही समय वे आकर्षक लगते हैं पर संस्कृति के हृदय की बात जुदी है। समय आफत का हो या अभ्युदय का अनिवार्य आवश्यकता सदा एक-सी बनी रहती है । कोई भी संस्कृति केवल अपने इतिहास और पुरानी यशोगाथाओं के सहारे न जीवित रह सकती है और प्रतिष्ठा पा सकती है जब तक वह भावी निर्माण में योग न दे। इस दृष्टान्त से भी जैन-संस्कृति पर विचार करना संगत है हम ऊपर बतला आए हैं कि यह संस्कृति मूलतः प्रवृत्ति अर्थात् पुनर्जन्म से छुटकारा पाने की दृष्टि से आविर्भूत हुई। इसके आचार-विचार का सारा ढाँचा उसी लक्ष्य के अनुकूल बना है । पर हम यह भी देखते हैं कि आखिर में वह संस्कृति व्यक्ति तक सीमित न रही । उसने विशिष्ट समाज का रूप धारण किया ।
निवृति और प्रवृत्ति
समाज कोई भी हो वह एक मात्र निवृत्ति की भूलभुलैयों पर न जीवित रह सकता है और न वास्तविक निवृत्ति ही साध सकता है। यदि किसी तरह निवृत्ति को न मानने वाले और सिर्फ़ प्रवृत्तिचक्र का ही महत्त्व मानने वाले आखीर में उस प्रवृत्ति के तूफान और आँधी में ही फँसकर मर सकते हैं तो वह भी उतना ही सच है कि प्रवृत्ति का आश्रय लिये बिना निवृत्ति हवा का किला ही बन जाता है। ऐतिहासिक और दार्शनिक सत्य यह है कि प्रवृत्ति और निवृत्ति एक ही मानवकल्याण के सिक्के के दो पहलू हैं । कोई भी बीमार केवल अपथ्य और कुपथ्य से निवृत्त होकर जीवित नहीं रह सकता। उसे साथ-ही-साथ पथ्यसेवन करना भी चाहिये। शरीर से दूषित रक्त को निकाल डालना जीवन के लिये अगर ज़रूरी है तो उतना ही जरूरी उसमें नये रुधिर का संचार करना भी है ।
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निवृत्तिलक्षी प्रवृत्ति
जैन-वर्ग का कर्तव्यऋषभ से लेकर आज तक निवृत्तिगामी कहलाने वाली १—देश में निरक्षरता, बहम और आलस्य व्याप्त है। जैन-संस्कृति भी जो किसी न किसी प्रकार जीवित रही है जहाँ देखो वहाँ फुट-ही-फुट है। शराब और दूसरी नशीली वह एक मात्र निवृत्ति बल पर नहीं किन्तु कल्याणकारी प्रवृत्ति चीजें जड़पकड़ बैठी हैं। दुष्काल, अतिवृष्टि और युद्ध के कारण , के सहारे पर । यदि प्रवर्तक-धर्मी ब्राह्मणों ने निवृत्ति-मार्ग के मानव-जीवन का एक मात्र आधार पशुधन नामशेष हो रहा सुन्दर तत्वों को अपनाकर एक व्यापक कल्याणकारी संस्कृति है। अतएव इस सम्बन्ध में विधायक प्रवृत्तियों की ओर सारे का ऐसा निर्माण किया है जो गीता में उज्जीवित होकर आज त्यागी वर्ग का ध्यान जाना चाहिये, जो वर्ग कुटुम्ब के बन्धनों नये उपयोगी स्वरूप में गांधीजी के द्वारा पुनः अपना संस्करण से बरी है, महावीर का आत्मौपम्य का उद्देश्य लेकर घर से कर रही है तो निवृत्तिलक्षी जैन-संस्कृति को भी कल्याणाभि- अलग हआ है, और ऋषभदेव तथा नेमिनाथ के आदर्शों को मुख आवश्यक प्रवृत्तियों का सहारा लेकर ही आज की बदली जीवित रखना चाहता है। हई परिस्थिति में जीना होगा। जैन-संस्कृति में तत्त्वज्ञान और २–देश में गरीबी और बेकारी की कोई सीमा नहीं है। आचार के जो मूल नियम हैं और वह जिन आदर्शों को आज खेती-बाड़ी और उद्योग-धंधे अपने अस्तित्व के लिए बुद्धि, तक पूंजी मानती आई है उनके आधार पर वह प्रवृत्ति का ऐसा धन, परिश्रम और साहस की अपेक्षा कर रहे हैं । अतएव मंगलमय योग साध सकती है, जो सबके लिये क्षेमंकर हो। गृहस्थों का यह धर्म हो जाता है कि वे संपत्ति का उपयोग
जैन-परंपरा में प्रथम स्थान है त्यागियों का, दूसरा स्थान तथा विनियोग राष्ट्र के लिए करें। वह गांधीजी के ट्रस्टी शिप है गहस्थों का । त्यागियों को जो पाँच महाव्रत धारण करने के सिद्धान्त को अमल में लावें। बुद्धिसंपन्न और साहसिकों का की आज्ञा है वह अधिकाधिक सद्गुणों में प्रवृत्ति करने की धर्म है कि वे नम्र बनकर ऐसे ही कार्यों में लग जायँ जो राष्ट्र सदगुण-पोषक-प्रवृत्ति के लिये बल पैदा करने की प्राथमिक के लिए विधायक हैं। यह विधायक कार्यक्रम उपेक्षणीय नहीं शर्त मात्र है। हिंसा, असत्य, चोरी, परिग्रह आदि दोषों से है। असल में वह कार्यक्रम जैन-संस्कृति का जीवन्त अंग है। बिना बचे सदगुणों में प्रवृत्ति हो ही नहीं सकती, और सद्गुण दलितों और अस्पृश्यों को भाई की तरह बिना अपनाए कौन पोषक प्रवत्ति को बिना जीवन में स्थान दिये हिंसा आदि से यह कह सकेगा कि मैं जैन हैं ? खादी और ऐसे दसरे उद्योग जो बचे रहना भी सर्वथा असम्भव है। इस देश में जो दूसरे अधिक से अधिक अहिंसा के नजदीक हैं और एकमात्र निवत्ति-पंथों की तरह जैन पंथ में भी एक मात्र निवृत्ति की आत्मौपम्य एवं अपरिग्रह धर्म के पोषक हैं उनको उत्तेजना ऐकान्तिक साधना की बात करते हैं वे उक्त सत्य भूल जाते दिये बिना कौन कह सकेगा कि मैं अहिंसा का उपासक हँ ? हैं। जो व्यक्ति सार्वभौम महाव्रतों को धारण करने की शक्ति अतएव उपसंहार में इतना ही कहना चाहता हूँ कि जैन लोग, नहीं रखता उसके लिये जैन-परंपरा में अणुव्रतों की सृष्टि निरर्थक आडम्बरों और शक्ति के अपव्ययकारी प्रसंगों में करके धीरे-धीरे निवत्ति की ओर बढ़ने का मार्ग भी रखा है। अपनी संस्कृति सुरक्षित है, यह भ्रम छोड़कर जैन संस्कृति के ऐसे गहस्थों के लिये हिंसा आदि दोषों से अंशतः बचने का हृदय की रक्षा का प्रयत्न करें। विधान किया है। उसका मतलब यही है कि गृहस्थ पहले दोषों से बचने का अभ्यास करे। पर साथ ही यह आदेश है सस्कृति का सकतकि जिस-जिस दोष को वे दूर करें उस-उस दोष के विरोधी संस्कृति-मात्र का संकेत लोभ और मोह को घटाने व सदगुणों को जीवन में स्थान देते जाय । हिंसा को दूर करना निर्मूल करने का है, न कि प्रवृत्ति को निर्मल करने का। हो तो प्रेम और आत्मौपम्य के सद्गुण को जीवन में व्यक्त वही प्रवृत्ति त्याज्य है जो आसक्ति के बिना कभी संभव ही करना होगा। सत्य बिना बोले और सत्य बोलने का बल बिना नहीं जैसे कामाचार व वैयक्तिक परिग्रह आदि ।जो प्रवृतियाँ पाये, असत्य से निवत्ति कैसे होगी? परिग्रह और लोभ से समाज का धारण, पोषण, विकसन करने वाली हैं वे आसक्तिबचनाहो तोसन्तोष और त्याग जैसी पोषक प्रवृत्तियों में अपने पूर्वक और आसक्ति के सिवाय भी सम्भव हैं। अतएव आपको खपाना ही होगा। इस बात को ध्यान में रखकर जैन- संस्कृति आसक्ति के त्यागमात्र का संकेत करती है। जैनसंस्कृति पर यदि आज विचार किया जाय तो आजकल संस्कृति यदि संस्कृति-सामान्य का अपवाद बने तो वह विकृत की कसौटी के काल में नीचे लिखी बातें फलित होती हैं :- बनकर अन्त में मिट जा सकती है।
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मित्र-त्रिपुटी
भगवान् महावीर प्रो० दलसुख मालवणिया
श्री शांतिभाई, श्री महासुखभाई, श्री पं० दलसुखभाई
श्रमण-संस्कृति और ईश्वर
नहीं और होगा भी नहीं। इसमें तो सदाकाल धर्मोद्धारक की श्रमण-संस्कृतिकी ही यह विशेषता है कि उसमें प्राकृतिक आवश्यकता है। सुधारक के लिये, क्रान्ति के झंडाधारी के आधिदैविक देवों या नित्यमुक्त ईश्वरको पूज्यका स्थान नहीं। लिये, इस संसार में हमेशा अवकाश है। समकालीनों को उस उसमें तो 'एक सामान्य ही मनुष्य अपना चरम विकास करके सुधारक या क्रान्तिकारी को उतनी पहचान नहीं होती जितनी आम-जनता के लिये ही नहीं किन्तु यदि किसी देवका आनेवाली पीढ़ी को होती है। जबतक वह जीवित रहता है अस्तित्व हो तो उसके लिये भी वह पूज्य बन जाता है। उसके भी काफी विरोधी रहते हैं । कालबल ही उन्हें भगवान, इसी लिये इन्द्रादि देवों का स्थान श्रमण-संस्कृतिमें पूजक का बुद्ध या तीर्थंकर बनाता है । गरज यह कि प्रत्येक महापुरुषों है, पूज्य का नहीं। भारतवर्ष में राम और कृष्ण जैसे मनुष्य को अपनी समकालीन परिस्थिति की बुराइयों से लड़ना की पूजा ब्राह्मण संस्कृति में होने तो लगी किन्तु ब्राह्मणों ने पड़ता है, क्रान्ति करनी पड़ती है, सुधार करना पड़ता है। जो उन्हें कोरा मनुष्य, शुद्ध मनुष्य न रहने दिया। उन्हें मुक्त जितना कर सके उतना ही उसका नाम होता है। ईश्वर के साथ जोड़ दिया, उन्हें ईश्वर का अवतार माना श्रमण-संस्कृति का मन्तव्य है कि जो भी त्याग और गया। किन्तु इसके विरुद्ध श्रमणसंस्कृति के बुद्ध और महावीर तपस्या के मार्ग पर चल कर अपने आत्म-विकास की परापूर्ण पुरुष या केवल मनुष्य ही रहे। उनको नित्यबुद्ध, नित्य- काष्ठा पर पहुँचता है, वह पूर्ण बन जाता है। भगवान् मुक्तरूप ईश्वर कभी नहीं कहा गया, क्योंकि नित्य ईश्वर को महावीर और बुद्ध के अलावा समकालीन अनेक पूर्ण पुरुष इस संस्कृति में स्थान ही नहीं।
हुए हैं, किन्तु आज उनका इतना नाम नहीं जितना उन दोनों
समकालीन महापुरुषों का है। कारण यही है कि दूसरोंने अवतारवादका निषेध
अपनी पूर्णता में ही कृतकृत्यता का अनुभव किया और उनको ___एक सामान्य मनुष्य ही ज बअपने कर्मानुसार अवतार
समकालीन समाज और राष्ट्र के उत्थान में उतनी सफलता लेता है तब
न मिली जितनी इन दो महापुरुषों को मिली। इन दोनों ने 'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अपनी पूर्णता में ही कृतकृत्यता का अनुभव नहीं किया किन्तु अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥' समकालीन समाज और राष्ट्र के उत्थान में भी अपना पूरा -इस सिद्धान्त को अवकाश नहीं। संसार कभी स्वर्ग हआ बल लगाया। स्वयं और उनके शिष्यों ने चारों ओर पाद
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विहार करके जनता को स्वतन्त्रता का सन्देश सुनाया और के देवताओं की स्तुति की है, प्रार्थना की है और अपनी आन्तर और बाह्य बन्धनों से अनेकों को मुक्त किया । आशा-निराशा को व्यक्त किया है। इन्हीं मन्त्रों के आधार
से यज्ञों की सृष्टि हुई है। अतएव मोक्ष या निर्वाण की, परिस्थिति
आत्यन्तिक सुख की, पुनर्जन्म के चक्र को काटने की बात को भगवान् महावीर को किस परिस्थितिका सामना करना । उसमें अवकाश नहीं। धर्म, अर्थ, और काम-इन तीन पड़ा-उसका संक्षेपसे कथन आवश्यक है। ब्राह्मणों ने परुषार्थों की सिद्धि के आसपास ही धार्मिक अनुष्ठानों की धार्मिक अनुष्ठानों को अपने हाथ में रख लिया था। मनुष्य सष्टि थी। और देवों का सीधा सम्बन्ध हो नहीं सकता था जब तक बीच इस परिस्थितिका सामना भगवान् महावीर से भी पहले में पुरोहित आकर उसकी मदद न कर दे। एक सहायक के शरू हो गया था, जिसका आभास हमें आरण्यकों और प्राचीन तौर पर यदि वे आते तो उसमें आपत्ति की कोई बात न थी, उपनिषदों से भी मिलता है। किन्तु भगवान् महावीर और किन्तु अपने स्थिर स्वार्थों की रक्षा के लिए प्रत्येक धार्मिक बुद्ध ने जो क्रान्ति की और उसमें जो सफलता पाई वह अद्भुत्त अनुष्ठानों में उनकी मध्यस्थता अनिवार्य कर दी गई थी। है। इसीलिये तत्कालीन इन्हीं दो महापुरुषों का नाम आज अतएव एक ओर धार्मिक अनुष्ठानों में अत्यन्त जटिलता कर तक लाखों लोगों की जबान पर है। दी गई थी कि जिससे उनके बिना काम ही न चले और दूसरी ओर अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिये अनुष्ठान विपुल सामग्रीसे स
२ संक्षिप्त चरित्र सम्पन्न होनेवाले बना दिये गये थे जिससे उनको काफी अर्थ- भगवान महावीर का जन्म क्षत्रियकुंडपुर में (वर्तमान प्राप्ति भी हो जाय । ये अनुष्ठान ब्राह्मण जाति के अलावा और बसाड़) पटना से कुछ ही माइल की दूरी पर हुआ था। उसके कोई करा न सकता था। अतएव उन लोगों में जात्यभिमान की पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशला था। मात्रा भी बढ़ गई थी। मनुष्यजातिकी समानता और एकता उनके पिता ज्ञातवंश के क्षत्रिय थे और वे काफी प्रभावशाली के स्थान में ऊँच-नीच भावना के आधार पर जातिवाद का व्यक्ति होंगे, क्योंकि उनकी पत्नी त्रिशला वैशाली के अधिभूत खड़ा कर दिया गया था और समाज के एक अंग शूद्र को पति चेटक की बहन थीं। इसी चेटक से सम्बन्ध के कारण धार्मिक आदि सभी लाभों से वंचित कर दिया गया था। तत्कालीन मगध, वत्स, अवन्ती आदि के राजाओं के साथ भी
उच्च जातिने अपने गौर वर्ण की रक्षा के लिये स्त्रियों उनका सम्बन्ध होना स्वाभाविक है, क्योंकि चेटक की की स्वतन्त्रता छीन ली थी, उनको धार्मिक अनुष्ठान का पत्रिओं का ब्याह इन सब राजाओं के साथ हुआ था । चेटक स्वातंत्र्य न था। अपने पतिदेव की सहचारिणी के रूप में ही की एक पुत्री की शादी भगवान महावीर के बड़े भाई के साथ धार्मिक क्षेत्र में उनको स्थान था।
हुई थी। संभव है, भगवान् के अपने धर्म के प्रचार में इस गणराज्यों के स्थानमें व्यक्तिगत स्वार्थों ने आगे आकर सम्बन्ध के कारण भी कुछ सहूलियत हुई हो। वैयक्तिक राज्य जमाने शुरू किये थे और इस कारण राज्यों माता-पिता ने उनका नाम वर्धमान रक्खा था, क्योंकि में परस्पर शंका का वातावरण फैला था।
उनके जन्म से उनकी सम्पत्ति में वृद्धि हुई थी। किन्तु
इसी सम्पत्ति की निःसारता से प्रेरित होकर उन्होंने त्याग धर्म-क्रान्ति
और तपस्या का जीवन स्वीकार किया। उनकी घोर धर्म का मतलब या धार्मिक अनुष्ठानों का मतलब इतना अत्युत्कट साधना के कारण उनका नाम 'महावीर' हो गया ही था कि इस संसार में जितना और जैसा सुख है उससे और उसी नाम से वे प्रसिद्ध हुए।वर्धमान नाम लोग भूल भी अधिक यहाँ और मृत्यु के बाद वह मिले। धार्मिक साधनों में गये । मुख्य 'यज्ञ' था, जिसमें वेदमन्त्र के पाठ के द्वारा अत्यधिक भगवान महावीर के माता-पिता पार्श्वनाथ के अनुयायी मात्रा में हिंसा होती थी। इसकी भाषा संस्कृत होने के कारण थे। अतएव बालकपन मे ही उनका संसर्ग त्यागी महात्माओं लोकभाषा प्राकृत का अनादर स्वाभाविक हुआ। वेद के से हआ, यही कारण है कि उनको सांसारिक वैभवों की मन्त्रों में ऋषियों ने काव्यगान किया है, सुखसाधन जुटा देने अनित्यता और निस्सारता का ज्ञान हुआ। संसार की वाली प्रकृति को धन्यवाद दिया है। ऋषियों ने नाना प्रकार अनित्यता और अशरणता के अनुभव ने ही उनको भी त्याग
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और वैराग्य की ओर झुकाया। उन्होंने सच्ची शांति, सुख और वैभवों के भोग में नहीं किन्तु त्याग में देखी। आखिरकार ३० वर्ष की युवावस्था में सब कुछ छोड़ कर त्यागी बन गये । ३० वर्ष तक भी जो उन्होंने गृहवास स्वीकार किया, उसका कारण भी अपने माता-पिता और बड़े भाई की इच्छा का अनुसरण है। संसार में रहते हुए भी उनका मन सांसारिक पदार्थों में लिप्त नहीं था, अंतिम एक वर्ष में तो उन्होंने अपना सब कुछ दीन-हीन लोगों को दे दिया था और अकिंचन हो करके अन्त में घर छोड़ करके निकल गये ।
तपस्या का रहस्य
भगवान पार्श्वनाथ ने समकालीन तामसी तपस्याओं का विरोध करके आत्मशोधन का सरल मार्ग बताया थाअहिंसा, सत्य, अस्तेय, और अपरिग्रह। उन्होंने वृक्ष पर लटकना, पंचाग्नि-तप, लोहे के कांटों पर सोना इत्यादि तामसी तपस्याओं के स्थान पर ध्यान, धारण, समाधि और उपवास अनशन आदि सात्विक तपस्या का प्रचार किया था। वर्धमान ने भी आत्मशुद्धि के लिये इन्हीं सात्त्विक उपायों का आश्रय लिया और अपनी उत्कट तथा सतत अप्रमत्त साधना के बल से आत्मशोधन करके कैवल्य' प्राप्त किया। भगवान् बुद्ध ने तपस्या को कायक्लेश बताकर आत्मशुद्धि में अनुपयोग बताया है। उन्होंने खुद दीर्घकाल पर्यन्त उत्कट तपस्याएँ कीं, किन्तु बोधिलाभ करने में असफल रहे । इसका कारण यह नहीं है कि तपस्या से आत्मशुद्धि होती नहीं, या तपस्या एक सदुपाय नहीं है ।
बात यह है कि तपस्याकी एक मर्यादा है और वह यह कि जब तक आत्मिक शांति बनी रहे- समाधि में बाधा न पड़े- तब तक ही तपस्या धेयस्कर है। ऐसी तपस्यायें, अमर्याद तपस्यायें निष्फल हैं जिनसे समाधि में भी बाधा आये । भगवान् बुद्ध ने अपनी शक्ति का ख्याल न करके ऐसी उत्कट तपस्या की जिसमें उनकी समाधि भंग ही हो गई। अतएव उनको तपस्या निष्फल दिखे इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। किन्तु भगवान् महावीर ने दीर्घ तपस्या करके भी सदा अपनी शान्ति का पूरा ख्याल रखा । अपनी शक्ति के बाहर अनयद तपस्या उन्होंने नहीं की यही अमर्याद । कारण है कि जिस तपस्या को बुद्ध ने निष्फल बताया उसी तपस्या के बलसे महावीर ने 'बोधिलाभ' किया। भगवान बुद्ध ने भी अपने उपदेशों में कुछ एक तपस्या का विधान किया है।
संयममार्ग
भगवान् महावीर की तपस्या की सफलता का रहस्य संयम में है । उनकी प्रतिज्ञा थी कि 'किसी प्राणी को पीड़ा न देना । सर्व सत्त्वों से मैत्री रखना । अपने जीवन में जितनी भी बाधाएँ उपस्थित हों उन्हें बिना किसी दूसरे की सहायता के समभाव पूर्वक सहन करना।' इस प्रतिज्ञा को एक बीर पुरुष की तरह उन्होंने निभाया, इसीलिए 'महावीर' कहलाये । संयम की इस साधना के लिये यह आवश्यक है कि अपनी प्रवृत्ति संकुचित की जाय, क्योंकि मनुष्य, चाहे तब भी, सभी जीवों के सुख के लिए चेष्टा अकेला नहीं कर सकता । अपने आस-पास के जीवों को भी वह बड़ी मुश्किल से सुखी कर सकता है। तब संसार के सभी जीवों के सुख की जिम्मे दारी अकेला कैसे ले सकता है ? किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि उसे कुछ न करना चाहिए। उसे अपनी मैत्रीभावना का विस्तार करना चाहिए। तथा अपने शारीरिक व्यवहार को अपनी आवश्यकताओं को इतना कम करना चाहिए कि उससे दूसरों को जरा भी कष्ट न हो वही व्यवहार किया जाय, उसी प्रवृत्ति और उसी चीज को स्वीकार किया जाय, जो अनिवार्य हो अपनी प्रवृत्ति को, अनिवार्य प्रवृत्ति को भी अप्रमाद-पूर्वक किया जाय। यही । संयम है और यही निवृत्ति-मार्ग है । भगवान की साधना
।
इस संयम मार्ग का अवलंबन भगवान् महावीर ने अप्रमत्त भाव से किया है । आत्मा को शुद्ध करने के लिये, विज्ञान, सुख और शक्ति से परिपूर्ण करने के लिये और दोषावरणों को हटाने के लिये उन्होंने जो पराक्रम किया है। उसकी गाथा आचारांग के अतिप्राचीन अंश - प्रथम श्रुतस्कंध में ग्रथित है। उसे पढ़ कर एक दीर्घ तपस्वी की साधना का साक्षात्कार होता है । उस चरित्र में ऐसी कोई दिव्य बात नहीं, ऐसा कोई चमत्कार वर्णित नहीं है जो अप्रतीतिकर हो या अंशत: भी असत्य या असंभव मालूम हो । वहाँ उनका शुद्ध मानवीय चरित्र वर्णित है अपूर्णता से पूर्णता की ओर प्रस्थित एक अप्रमत्त संयमी का चरित्र वर्णित है। उस चरित्र को और जैन धर्म के आचरण के विधिनिषेधों को मिलाने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवानने जिस प्रकार की साधना खुद की है उसी मार्ग पर दूसरों को ले जाने के लिये उनका उपदेश रहा है । जिसका उन्होंने अपने जीवन में पालन नहीं किया ऐसी कोई कठिन तपस्या या ऐसा कोई
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आचार का नियम दूसरों के लिए उन्होंने नहीं बताया। प्रतिभा और प्रज्ञा का दर्शन किया। जैन शास्त्रोंमें या जैन
गृहत्याग के बाद उन्होंने कभी वस्त्र स्वीकार नहीं धर्म में वेद का प्रामाणिक पुस्तक के रूप में कोई स्थान नहीं। किया। अतएव कठोर शीत, गरमी, डांस-मच्छर और नाना- धार्मिक पुरुषों की आध्यात्मिक भूख मिटाने का साधन वेदक्षुद्र-जन्तु-जन्य परिताप को उन्होंने समभावपूर्वक सहा। वेदांग नहीं, किन्तु भगवान महावीर के द्वारा दिये गये उपदेशों किसी घर को अपना नहीं बनाया । स्मशान और अरण्य, का जो संकलन गणधर कहलाने वाले उन बाह्मण पण्डितों खण्डहर और वृक्षछाया-ये ही इनके आश्रयस्थान थे। नग्न ने किया, वही है। यह संकलन 'जैन-आगम' नाम से प्रसिद्ध होने के कारण भगवान् को चपल बालकों ने अपने खेल का है। वेद को जैन धर्म में एकान्त मिथ्या नहीं बताया किन्तु साधन बनाया. पत्थर और कंकड़ फेंके। रात को निद्रा का सम्यग्दष्टि पुरुष अर्थात् जैन-धर्म के रहस्य का जिसने पान त्याग कर ध्यानस्थ रहे। और निद्रा से सताये जाने पर किया है, और जो उसमें तन्मय हो गया है ऐसे पुरुष के लिए थोडा चंक्रमण किया। कभी-कभी चौकीदारों ने उन्हें काफी वह सम्यक् श्रुत ही है। वेद-वेदांग उन मोघ पुरुषों के लिये तकलीफ दी। गरम पानी और भिक्षाचर्या से जैसा मिल गया मिथ्या सिद्ध होता है जिसने धर्म का असली स्वरूप नहीं उससे अपना काम चला लिया। किन्तु कभी भी अपने निमित्त पहचाना है। बना अन्न-पान स्वीकार नहीं किया। बारह वर्ष की कठोर तपश्चर्या में, परम्परा कहती है कि, उन्होंने सब मिलाकर समभाव का उपदेश ३५० से अधिक दिन भोजन नहीं किया। मान-अपमान को जिन ब्राह्मणों को अपनी जाति का, अपनी संस्कृत उस जितेन्द्रिय महापुरुष ने समभाव से सहा । उन्हें साधक भाषा का, अपनी विद्वत्ता का अभिमान था उनका वह जीवन में कभी औषध के प्रयोग की आवश्यकता ही प्रतीत अभिमान भगवान् के सामने चूर हो गया। वे भगवान् के नहीं हुई, इतने वे संयमी और मात्राज्ञ थे। अनार्य देश में समभाव के संदेश का लोकभाषा प्राकृत में प्रचार करने उन्होंने विहार किया तब वहाँ के अज्ञानी जीवों ने उनकी लगे। जिन शूद्रों को धार्मिक अधिकारों से वे पहले वंचित ओर कुत्ते छोड़े किन्तु वे दुःखों की कुछ भी परवाह न करके समझते थे उनको भी दीक्षा देकर श्रमण-संघ में स्थान देकर अपने ध्यान में अटल रहे।
उन्होंने गुरुपद का अधिकारी बनाया। इतना ही नहीं, किन्तु ____ इस प्रकार अपने कषायों पर विजय पाने के लिये, हरिकेशी जैसे चाण्डाल मुनि को इतनी उन्नत भूमिका पर अपने दोषों को निर्मल करने के लिये साढ़े बारह वर्ष दीर्घ पहँचने में वे सहायक हए कि वह चाण्डाल मुनि भी ब्राह्मणों तपस्या का अनुष्ठान करके उन्होंने ४२ वर्ष की उम्र में का गुरु हो गया। एक समय की बात है कि वह चाण्डाल वीतरागता पाई और 'जिन' हुए, तत्त्व का साक्षात्कार किया मुनि यज्ञवाटिका में भिक्षा के लिये चला गया। तिरस्कार
और 'केवली' हुए । तथा लोगों को हित का उपदेश देकर और अपमान, दण्डों की मार और धुत्कार को सम-भाव पूर्वक 'तीर्थकर' बने।
सहन करके भी उसने जब उन यज्ञ करने वाले ब्राह्मणों
को अहिंसक यज्ञ का रहस्य बतलाया तब उन ब्राह्मणों ने उपदेश
चाण्डाल ऋषि से क्षमा मांगी और उनकी तपस्या की प्रशंसा तीर्थकर होने के बाद सर्वप्रथम उन्होंने ब्राह्मण पंडितों की और जाति-वाद का तिरस्कार करके उनके अनुयायी बन को शिष्य बनाया। वेद के लौकिक अर्थ में तथा उसके गये। स्वाध्याय में ये निपुण थे। किन्तु उसका नया आध्यात्मिक भगवान् महावीर ने तीर्थकर होकर भी अपना अनियत अर्थ जब भगवान महावीर ने बताया तो उनको पारमाथिक वाम कायम रखा। वे और उनके शिष्य भारत में चारों ओर धर्म का स्वरूप ज्ञात हो गया। यज्ञ क्या है, यज्ञ-कुण्ड क्या पाद-विहार करके अहिंसा के सन्देश को फैलाने लगे। उनका है, समिध किसे कहते हैं, आहूति किसकी दी जाय, स्नान आदेश था कि लोगों को शांति, वैराग्य, उपशम, निर्वाण, कैसे किया जाय, इन बातों का अभूतपूर्व ही स्पष्टीकरण जब शौच, ऋजुता, निरभिमानता, अपरिग्रह और अहिंसा का भगवान् ने किया, वेद में आपाततः दिखने वाले कुछ विरोधों उपदेश द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से दिया जाए। को तथा उसमें होने वाली शंकाओं को भगवान् ने जब दूर यही कल्याणकारी धर्म है। लोगों को शान्ति और सुख, किया, तब वेद-निष्णात इन ब्राह्मणों ने भगवान् में एक नई विज्ञान और शक्ति इसी धर्म पर चल कर मिल सकती है।
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हिंसा और धर्म यह तो विरोध है-इसका भान लोगों को कृष्णादि महापुरुषों के पौराणिक चरित्र की प्रतिस्पर्धा में कराना यही उनके उपदेश का सार है।
आचार्यों ने उनके चरित्र में वर्णित की हैं। उनकी महत्ता का जैन-संघ
मापदण्ड ये बातें नहीं। किन्तु एक सामान्य मानवी से एक उनके उपदेश को सुन कर वीरांगक, वीरयश, संजय,
महापुरुष में उनका परिवर्तन जिन विशेषताओं से हुआ उन एणेयक, सेय, शिव, उदयन और शंख इन आठ समकालीन
विशेषताओं में ही उनकी महत्ता है। राजाओं ने प्रव्रज्या अंगीकार की थी। और अभयकुमार,
तत्कालीन धार्मिक समाज में छोटे-मोटे अनेक धर्ममेघकुमार आदि अनेक राजकुमारों ने भी घर-बार छोड़ कर
प्रवर्तक थे। किन्तु भगवान् बुद्ध और भगवान् महावीर का व्रतों को अंगीकार किया था। स्कंधक प्रमुख अनेक तापस
प्रभाव अभूतपूर्व था। उन दोनों के श्रमण-संघों ने ब्राह्मणतपस्या का रहस्य जानकर भगवान के शिष्य बन गये थे। धम म स हिसा का नाम मिटा देने का अत्यग्र प्रयत्न किया। अनेक स्त्रियाँ भी संसार की असारता को समझकर उनके ।
परिणाम यह है कि कालिका या दुर्गा के नाम जो कुछ बलि श्रमणी-संघ में शामिल हो गई थीं। उनमें अनेक तो राज- चढ़ाई जाता है उसका छाड़ कर धर्म के नाम पर हिसा का पुत्रियाँ भी थीं। उनके गृहस्थ अनुयायियों में मगधराज निमूलन हा हा गया। जिन यज्ञा का पशुवध के बिना पूर्णाहूति
णिक और कणिक मालिपति टक अवस्तिपति च. हो नहीं सकती थी ऐसे यज्ञ भारतवर्ष से नामशेष हो गये। प्रद्योत आदि मुख्य थे। आनन्द आदि वैश्य श्रमणोपासकों पुष्यमित्र-जैसे कट्टर हिन्दू राजाओं ने उन नामशेष यज्ञों को के अलावा शकडाल-पूत्र जैसे कभकार भी उपासक-संघ में जिलाने का प्रयत्न करके देखा, किन्तु यह तो श्रमण-संघों के शामिल थे। अर्जुन माली जैसे दुष्ट से दुष्ट हत्यारे भी उनके
अप्रतिहत प्रभाव, उनके त्याग और तपस्या का फल है कि वे
अप्रातहत प्रभाव, उनक त्य पास वैरका त्याग करके शान्तिरसका पान कर, क्षमा को ।
भी उन हिंसक यज्ञों का पुनर्जीवन दीर्घकालीन न रख सके। धारण कर दीक्षित हुए थे। शूदों और अतिशूद्रों को भी उनके कर्मवाद संघमें स्थान था। उनका संघ राढादेश, मगध, विदेह, काशी, कोशल,
भगवान् ने तो मनुष्य के भाग्य को ईश्वर और देवों के शूरसेन, वत्स, अवन्ती आदि देशों में फैला हआ था। उनके
हाथ में से निकाल कर खुद मनुष्य के हाथ में रखा है। किसी
देव की पूजा या भक्ति से या उनको खून से तप्त करके यदि विहार के मुख्य क्षेत्र मगध, विदेह, काशी, कोशल, राढादेश और वत्स देश थे।
कोई चाहे कि उसको सुख की प्राप्ति होगी तो भगवान् तीर्थकर होने के बाद ३० वर्ष पर्यन्त सतत विहार करके
महावीर ने उसे स्पष्ट ही कह दिया है कि हिंसा से तो प्रति
हिंसा को उत्तेजना मिलती है, लोगों में परस्पर शत्रुता बढ़ती लोगों को आदि में कल्याण, मध्य में कल्याण और अन्त में कल्याण ऐसे 'अहिंसक धर्म' का उपदेश कर इहजीवन-लीला
है और सुख की कोई आशा नहीं। सुख चाहते हो तो सब समाप्त करके ७२ वर्ष की आयु में मोक्ष-लाभ किया। लोगों
जीवों से मैत्री करो, प्रेम करो, सब दुःखी जीवों के ऊपर ने दीपक जलाकर उनको बिदाई दी। तब से दीपावली पर्व
करुणा रक्खो। ईश्वर में और देवों में यह सामर्थ्य नहीं कि वे
तुम्हें सुख या दुःख दे सकें। तुम्हारे कर्म ही तुम्हें सुखी और प्रारम्भ हुआ है, ऐसी परम्परा है।
दुःखी करते हैं। अच्छा कर्म करो, अच्छा फल पाओ। और चरित्र की विशेषता
बुरा करके बुरा नतीजा भुगतने के लिये तैयार रहो। भगवान महावीरके चरित्र की विशेषता-उनके जन्मके समय देवलोक से देव-देवियों ने आकर उनका जन्म-महोत्सव जीव ही ईश्वर है किया, स्नानक्रिया के समय बालक महावीर ने मेरुकम्पन और ईश्वर या देव-? वह तो तुम ही हो। तुम्हारी किया, साधना के समय अनेक इन्द्रादि देवों ने उसकी सेवा अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख प्रच्छन्न हैं । उनका
की मांग की, उनके समवसरण में देव-देवियों का आगमन आविर्भाव करके तुम ही ईश्वर हो जाओ। फिर तुममें और • हुआ, उनके शरीर में सफेद लोहू था, उनको दाढ़ी मूंछ होते मुझमें कोई भेद नहीं, हम सभी ईश्वर हैं। भक्ति या पूजा ही न थे- इत्यादि बातों में नहीं। ये बातें तो उनके मानवी करना ही है तो अपने आत्मा की करो। उसे राग और द्वेष, चरित्र को अलौकिक रूप देने के लिये, या भारत के अन्य मोह और माया, तृष्णा और भय से मुक्त करो-इससे बढ़कर
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कोई पूजा, कोई भक्ति श्रेष्ठ हो नहीं सकती। जिन ब्राह्मणों स्पष्ट ही कहा है कि सुबह-शाम स्नान करने से ही यदि मोक्ष को तुम मध्यस्थ बनाकर देवों को पुकारते हो वे तो अर्थशून्य मिलता है तो जलचर को शीघ्र ही मोक्ष मिलना चाहिए । वेद का पाठ मात्र जानते हैं। सच्चा ब्राह्मण कैसा होता है उसे मैं तुम्हें बताता हूँ
'सुख' की नई कल्पना
असली बात यह है कि यज्ञ-याग, पूजा-पाठ आदि सब सच्चा ब्राह्मण
धार्मिक कहे जाने वाले अनुष्ठानों का प्रयोजन सांसारिक जो अपनी संपत्ति में आसक्त नहीं, किसी इष्ट वियोग में वैभव की वृद्धि करना लोग समझते थे। कामजन्य सुख के शोकाकुल नहीं, तप्त सुवर्ण की भाँति निर्मल है, राग-द्वेष और अतिरिक्त किसी सुख के अस्तित्वकी और उसकी उपादेयता भय से रहित है, तपस्वी और त्यागी है, सब जीवों में सम- की कल्पना आरण्यक ऋषियों में प्रचलित थी। किन्तु उन भाव को धारण करता है-अतएव उनकी हिंसा से विरत है, आरण्यकों की आवाज़ आम जनता तक पहुँच पाई न थी। वह क्रोध-लोभ, हास्य और भय के कारण असत्य-भाषी नहीं है, कल्पना एक धार्मिक गूढ़ रहस्य था। उसके अधिकारी चुने हुए चोरी नहीं करता, मन वचन और काय से संयत है—ब्रह्म- तपस्वी लोग थे। किन्तु बुद्ध और महावीरने उस धार्मिक गूढ़ चारी है, अकिंचन है-वही सच्चा ब्राह्मण है। ऐसे ब्राह्मण रहस्य को जनता में ले जाना अच्छा समझा। उस धर्म-तत्त्व के सान्निध्य में रहकर अपनी आत्मा का चिन्तन, मनन और को गुहा के भीतर बंध न करके उसका प्रचार किया। निदिध्यासन करके उसका साक्षात्कार करो। यही भक्ति है-- भगवान महावीर ने स्पष्ट ही कहा है कि-सांसारिक सुख यही पजा है और यही स्तुति है।
या कामभोगजन्य सुख, सुख नहीं किन्तु दुःख है। जिसका
पर्यवसान दुःख में हो वह सुख कैसा? काम से विरक्ति में जो सच्चा यज्ञ
सुख मिलता है वह स्थायी है। वही उपादेय है। सब काम सच्चे यज्ञ का भी स्वरूप भगवान् ने बताया है- विषरूप हैं, शल्यरूप हैं । इच्छा अनन्त आकाश की तरह है,
जीव-हिंसा का त्याग, चोरी, झूठ और असंयमका जिसकी पूर्ति होना संभव नहीं। लोभी मनुष्य को कितना भी त्याग, स्त्री, मान और माया का त्याग, इस जीवन की मिले, सारा संसार भी उसके अधीन हो जाय, तब भी उसकी आकांक्षा का त्याग, शरीर के ममत्व का भी त्याग; इस प्रकार तृष्णा का कोई अन्त नहीं। अतएव अकिंचनता में जो सुख सभी बुराइयों को जो त्याग देता है वही महायाजी है। यज्ञ में है, वह कामों की प्राप्ति में नहीं। सभी जीवका भक्षण करनेवाली अग्नि का कोई प्रयोजन नहीं, जब सुख की यह नई कल्पना ही महावीर ने दी तो किन्तु तपस्यारूपी अग्नि को जलाओ। पृथ्वीको खोदकर कुण्ड क्षणिक सुख-साधनों को जुटा देने वाले उन यज्ञ-यागों का, बनाने की कोई आवश्यकता नहीं, जीवात्मा ही अग्निकुण्ड उन पूजा-पाठोंका धार्मिक अनुष्ठान के रूप में कोई स्थान न है। लकड़ी से बनी कुडछी की कोई जरूरत नहीं, मन, वचन, रहा। उसके स्थान में ध्यान, स्वाध्याय, अनशन, रसपरिकाय की प्रवृत्ति ही उसका काम दे देगी। ईंधन जलाकर क्या त्याग, विनय, सेवा इन नाना प्रकार की तपस्याओं का ही होगा? अपने कर्मों को, अपने पापकर्मों को ही, जला दो। धार्मिक अनुष्ठानों के रूप में प्रचार होना स्वाभाविक है। यही यज्ञ है जो संयम रूप है, शान्तिदाता है, सुखदायी है और ऋषियों ने भी इसकी प्रशंसा की है।
वैश्य-धर्म
वैश्यों को या व्यापारियों को उन्होंने उपदेश दिया कि शौच
यह अच्छा नहीं कि तुम अपना वैभव किसी भी प्रकार से बाह्य शौच का और उसके साधन तीर्थ-जल का इतना बढ़ाओ। वैभव न्यायसंपन्न होना चाहिए इतना ही पर्याप्त महत्त्व बढ़ गया था कि किसी तीर्थ के जल में स्नान करने से नहीं, किन्तु उसका परिमाण-मर्यादा नियत करनी चाहिए। लोग यह समझते थे कि हम पवित्र हो गये । वस्तुतः शौच क्या और प्रत्येक दिन यह भावना करनी चाहिए कि वह दिन धन्य है, उसका स्पष्टीकरण भी भगवान् ने कर दिया है-धर्म ही होगा जब मैं सर्वस्व का त्याग कर दूंगा। यह दलील कि मैं जलाशय है और ब्रह्मचर्य ही शांतिदायक तीर्थ है। उसमें ज्यादह कमाऊँगा तो ज्यादह दान दूँगा इसलिये किसी भी स्नान करने से आत्मा निर्मल और शान्त होती है। उन्होंने जायज या ना-जायज तरीके का अवलम्बन करके धन-दौलत
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प्राप्त करना कोई बुरा नहीं-अपनी आत्मा को पतनोन्मुख उसका युद्ध कभी पूरा नहीं हो सकता । वैर-प्रतिवैर की ही करती है। भगवान् ने दान की महिमा की है। किन्तु परम्परा बनी रहेगी। आत्मा को जीतने का मतलब क्या है ? इसका अर्थ यह नहीं कि दान से बढ़कर कोई चीज संसार में अपनी पांचों इन्द्रियों को वश करके जितेन्द्रिय बन जाना, नहीं। उन्होंने कहा है कि जो प्रत्येक मास में लाख गायों का क्रोध को क्षमासे पराजित करना, मान को नम्रता से पराभूत दान देता है उससे भी कुछ भी नहीं देने वाले अकिञ्चन पुरुष करना, मायाका ऋजुता के द्वारा पराभव करना और लोभ का संयम अधिक श्रेयस्कर है । इसलिये धन-दौलत अपनी को निर्मोह से दबा देना तथा दुर्जय वानर-प्रकृति मनको अपने मर्यादा में रहकर ही न्यायसंपन्न मार्ग से कमाना और अन्त वश में कर लेना, यही आत्म-विजय है। ऐसे विजय में विश्व में सर्वस्व का त्याग कर अकिञ्चन होना यही भगवान् का जब मस्त बनेगा तब ही स्थायी शांति की प्रतिष्ठा हो सकती मार्ग है।
है, अन्यथा एक युद्ध को दबाकर नये युद्ध का बीज बोना है।
वीरों की वीरता सुखशीलताके त्याग में और कामनाओंशूद्र-धर्म
को शान्त कर निरीह होकर विचरण करने में है। निर्दोष शद्रोंको उन्होंने यही उपदेश दिया कि-तुमारा जन्म प्राणों की हत्या कर वैभव बढ़ाने में पराक्रम करना बह बंधका भले ही शूद्र कुल में हुआ, किन्तु तुम भी अच्छे कर्म करो तो हेत है। इसी जन्म में द्विज-सबके पूज्य बन सकते हो। नीच कहे जाने वाले कुल में जन्म कोई बाधक नहीं है।
अहिंसक मार्ग
भगवान का यह उपदेश सीधा-सादा प्रतीत होता है। क्षत्रिय-धर्म
किन्तु पालन में उतना ही कठिन है । यही कारण है कि बारप्रायः क्षत्रिय लोंगों का तो यह कार्य है कि पराया माल बार होने वाले भयंकर युद्ध के परिणाम देख कर भी लोग अपना करके पारस्परिक ईर्षा, द्वेष और शत्रुता को बढ़ा कर युद्ध को छोड़ते नहीं और अहिंसा के मार्ग को अपनाने की आपस में कलह करना। भगवान् भी क्षत्रिय थे। अतएव बजाय सब झगड़ोंके निपटारे का साधन उसी को समझते उन्होंने जैसा क्षत्रियधर्म-संसार में स्थायी शांति की प्रतिष्ठा आये हैं। किन्तु एक-न-एक दिन इन हिंसक युद्धों के तरीकों करने वाला क्षात्रधर्म सिखाया उसका निर्देश भी आवश्यक को छोड़कर भगवान् के बताये उक्त अहिंसक मार्ग का अव
लम्बन जन-समुदाय को करना ही होगा। अन्यथा अब तो उनका कहना था कि युद्धमें लाखों जीवों की हत्या करके एटम बंब और उससे भी अधिक विघातक अस्त्रों से अपने यदि कोई अपने आप को विजयी समझता है, तो वह धोखे में नाश के लिये तय्यार रहना चाहिए। जितनी जल्दी अहिंसक है। मनुष्य बाहरी सभी शत्रु को जीत ले, किन्तु अपने आप युद्ध में विश्वास किया जायगा उतना ही जल्दी इस मानवको जीतना बड़ा कठिन कार्य है। स्वयं आत्मा जब तक समुदाय का उद्धार है। अविजित रहती है तब तक सब युद्धों की जड़ बनी हुई है।
अहिंसक मार्ग
"भगवान का यह उपदेश सीधा-सादा प्रतीत होता है। किन्तु पालन में उतना ही कठिन है। यही कारण है कि बार-बार होने वाले भयंकर युद्ध के परिणाम देखकर भी लोग युद्ध को छोड़ते नहीं और अहिंसा के मार्ग को अपनाने की बजाय सब झगड़ोंके निपटारे का साधन उसी को समझते आये हैं। किन्तु एक-न-एक दिन इन हिंसक युद्धों के तरीकों को छोड़कर भगवान् के बताये उक्त अहिंसक मार्ग का अवलम्बन जन-समुदाय को करना ही होगा। अन्यथा अब तो एटम बंब और उससे भी अधिक विघातक अस्त्रों से अपने नाश के लिए तय्यार रहना चाहिए। जितनी जल्दी अहिंसक यद्ध में विश्वास किया जायगा उतना ही जल्दी इस मानव-समुदाय का उद्धार है।"
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मोस्को में विश्व-शान्ति-परिषद्
विश्व-समस्या
और व्रत-विचार
स्व० प्रोफेसर बेणीप्रसाद एम. ए., पी-एच-डी., डी. एस-सी. (लंदन) प्रोफेसर-राजनीतिशास्त्र, इलाहाबाद युनिवर्सिटी
जैनधर्म के प्रतिनिधि श्री शान्तिभाई शेठ
धर्म की परिभाषा
संविभाग बताये गये हैं। एक दूसरी दृष्टि से धर्म-भाव के दस धर्म की व्याख्या विविध प्रकार से की गई है, परंतु मनो- लक्षणों-उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम वैज्ञानिक दृष्टि से हम कह सकते हैं कि व्यक्ति का समष्टि से शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, तथा आधारभूत आध्यात्मिक तत्त्वों से मेल ही धर्म है। अतएव उत्तम आकिंचन्य तथा उत्तम ब्रह्मचर्य पर बल दिया गया है। धर्म में एक ओर तो जीव और अजीव का और उनके परस्पर यदि हम यहाँ सभी व्रतों, अणुव्रत, गुणवत, शिक्षाव्रत तथा धर्म सम्बन्धों का विचार रहता है, और दूसरी ओर मनुष्य जिस के दस लक्षणों की चर्चा करने लगेंगे तो लेख का कलेवर बहत रीति से अपने स्वरूप का बोध तथा अपनी अभिव्यक्ति करता बढ़ जाएगा। अतएव हम यहाँ पर सामाजिक सम्बन्ध, वर्तन है, उसका निरूपण रहता है । इस दूसरी विचार-दृष्टि से हम तथा संगठन की दृष्टि से जैन आचारशास्त्रके पाँच मुख्य व्रतोंयह देखने का यत्न करेंगे कि धर्म में किन-किन सिद्धान्तों का अणुव्रतों की चर्चा करेंगे। हमारे प्राचीन मनीषियों की दृष्टि समावेश है, जिन्हें समग्र मनुष्य-जाति अपने विस्तृत अनुभव कितनी पैनी थी, इसका प्रमाण इससे बढ़ कर और क्या हो से संसार के लिये कल्याणकारी मानने लगी है। दूसरे शब्दों सकता है कि उन्होंने उच्च जीवन के लिये सबसे पहला तथा में हम यह देखने का यत्न करेंगे कि धर्म में कहाँ तक सामा- उत्कृष्ट सिद्धांत 'अहिंसा' माना है। जिक न्याय, हित तथा सुख के तत्त्वों का समावेश है?
सामाजिक सम्बन्धों में हिंसा का स्थान जैन आचार-नीति
अभी मनुष्यों के परस्पर सम्बन्धों का नियमन,यदि सर्वांइस सामाजिक विचार-दृष्टि से हम संक्षेप में जैन आचार- शत: नहीं तो अधिकांशतः पाशविक बलप्रयोग (हिंसा)से होता शास्त्र का सिंहावलोकन करेंगे। संक्षेप में उसमें पाँच व्रतों, आया है, अर्थात् व्यक्ति, दल, वर्ग, राष्ट्र अथवा जातियाँ अपने अणुव्रतों का विधान है—अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा श्रेष्ठ बल का प्रयोग करके ही दूसरे का शोषण करती रहीं, अपरिग्रह । इन अणुव्रतों का मूल्य बढ़ानेवाले तीन गुणव्रत- उन्हें अपने अधीन रखती रहीं तथा अपने स्वार्थ-साधन के लिये दिग्विरति, भोगोपभोग-परिमाण, अनर्थदंडविरति, तथा चार उनका उपयोग करती रही हैं। फलतः व्यक्ति के व्यक्तित्व शिक्षाव्रत-सामायिक, देशविरति, पौषधोपवास, तथा अतिथि- का, मनुष्य की मर्यादा का कोई मूल्य नहीं रह गया है। दूसरी
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ओर जिन पर बलप्रयोग हुआ है, उन्होंने धूर्तता अथवा छल- भावनाओं से ओतप्रोत जातियों, राष्ट्रों, वर्गों तथा सम्प्रदायों कपट का आश्रय लिया है । इस प्रकार बलप्रयोग और छल- ने कब्जा कर लिया है। अतः आज हम यह विरोधाभास देखते कपट एक दूसरे के पूरक हो गये हैं। सामाजिक सम्बन्धों का हैं कि वस्तुओं की बहुलता होते हुए भी मनुष्य गरीब है और विश्लेषण करने पर ये दोनों एक ही व्यापार के दो रूप प्रकट आत्मप्रकाश के अनेक साधन होते हुए भी वह अंधकार से होते हैं । छल-कपट का आश्रय शोषित ही नहीं लेते हैं, शोषक घिरा है। भी अपने प्रभुत्व तथा शोषण का चक्र पूरा करने में, जहाँ बलप्रयोग से त्रुटि रह जाती है, वहाँ छल-कपट का आश्रय स्वप्न-भङ्ग लेते हैं। दासता का व्यक्तित्व की मूल प्रेरणा, स्वाधीनता से यह समस्या सारे संसार के सामने उपस्थित है, और विरोध है, जिसकी ग्राहम वैलेस ने बड़ी ही सुंदर व्याख्या यह इसके हल के लिये दार्शनिकों तथा राजनीतिज्ञों ने विविध कह कर की है कि सम्पूर्ण उन्नति के पथ पर सदा अग्रसर योजनायें प्रस्तुत की हैं । आज से ४२ वर्ष पहले, जब पिछले रहने, उत्तिष्ठ बनने की सतत भीतरी प्रेरणा, एक शब्द में महायुद्ध (१९१४-१८) का अंत हुआ था, उस समय संसार के स्वानुभति ही स्वाधीनता है। अतः दासता प्रतिरोध को जन्म विचारशील पुरुषों का ध्यान लोकतंत्रवाद, आत्मनिर्णय, अंतदेती है। प्रभगण प्रतिरोध की चूल ढीली कर के तथा प्रचार राष्ट्रीय सहयोग तथा न्याय, निरस्त्रीकरण तथा स्थायी शांति द्वारा जीवन का मान गिरा कर, तथा भय, लोभ, जड़ता, की स्थापना करने के उपाय खोज निकालने की ओर प्रवृत्त स्वार्थपरता आदि अधोमुखी प्रवृत्तियों को उभाड़ कर स्थिति हुआ था। उस समय की युग-भावना ने जैसे अमेरिका के की स्वीकृति कराने की चेष्टा करते हैं। इस प्रकार आज के प्रेसीडेंट वडरो विल्सन में अपनी वाणी पा ली थी, जिनकी सामाजिक सम्बन्धों के मूल में बलप्रयोग तथा छल-कपट आदर्शवादिता तथा वाग्मिता ने पूर्व तथा पश्चिम के लोगों व्याप्त हैं, जिससे आधुनिक समाजशास्त्री यह निष्कर्ष निकालते को समान रूप से आकर्षित किया था । परंतु २० ही वर्षों के हैं कि ये ही सभ्यता के मूलाधार हैं।
भीतर सारे स्वप्न खंडित हो गये और वर्तमान युद्ध का श्री
गणेश हुआ। स्वप्न-भंग का प्रधान कारण हमारी यह गलती आधुनिक युग की मूल समस्या
है, जो राजनीति में बहुधा होती है कि हम राजनैतिक तथा यह आक्षेप सत्य है, विशेष रूप से आधुनिक युग के लिए आर्थिक क्षेत्र के रोगों के मूल कारणों का उपचार न करके, और अधिक सत्य है, जिसमें पिछले सौ वर्षों में दूरी का अन्त उनके लक्षणों का उपचार करने की चेष्टा करते हैं। राजनीति हो गया है, तथा भिन्न-भिन्न जातियाँ, संस्कृतियाँ तथा तथा कूटनीतिका वातावरण हमेशा जल्दबाजी तथा अशांति का विचार-दृष्टियाँ एक-दूसरे के निकट आगई हैं, ऐसी अवस्था रहता है। राजनीतिज्ञ बहुधा सतह की चीजों का निरीक्षण करके में नई व्यवस्था के लिये प्रयत्न होना अनिवार्य था, परंतु इन तथा ऊपरी शिकायतों का उपचार कर के संतुष्ट हो जाते हैं। प्रयत्नों के पीछे प्रायः वर्ग-विशेष का प्रभुत्व स्थापित करने यही १६१८-२० के संसार में घटित हुआ। फलतः पुरानी की भावना प्रधान रही है, जिसके कारण प्रसिद्ध वैज्ञानिक बीमारियाँ उभड़ आईं, अथवा जारी रहीं-शस्त्रीकरण में प्रतिऔर समाजशास्त्री बटैंड रसेल को कहना पड़ा है कि, बल- द्वन्द्विता चलती रही, गुप्त कूटनीति कायम रही, तथा उग्र प्रयोग राजनीति का मूलाधार है, जिस प्रकार शक्ति भौतिक राष्ट्रीयता, साम्राज्यवादिता, सबलों द्वारा निर्बलों का शोषण, विज्ञान का मूलाधार है। पिछले दो सौ वर्षों के इतिहास में जातिगत अहंकार तथा युद्धों का बोलबाला रहा। स्वप्न-भंग विज्ञान की प्रगति सबसे प्रधान रही है। उसने उत्पादन तथा का एक दुःखद परिणाम यहाँ विशेषरीति से उल्लेखनीय है। संगठन के नये यंत्र प्रदान किये हैं, जिससे संसार के सभी नर- इधर निराशाओं ने मनुष्य में सभी वातों का उपहास उड़ाने नारियों के लिये आनंद तथा सुख संस्कृति तथाज्ञान और शांति तथा उनमें दोष निकालने की एक विशेष प्रवृत्ति को जन्म तथा सुरक्षा के साधन सुलभ हो गये हैं। परंतु, अभी तक कुछ दिया है, जब कि इस समय उदात्त विचारों तथा अदम्य ही देशों में, और वहाँ भी कुछ ही वर्गों को ये साधन सुलभ हो उत्साह की पहले से भी अधिक आवश्यकता है। पश्चिमी राजसके हैं, सो भी बीच-बीच में युद्ध का व्यवधान पड़ता रहा है। नीति मौलिक पुनर्निर्माण से भय खाती है। मालूम पड़ता इसका कारण गूढ़ नहीं है। इसका मूल कारण यह है कि नये है कि उसने भविष्य के बारे में विश्वास खो दिया है। साधनों पर संघर्ष, घृणा, शोषण तथा पराजय की पुरातन
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युद्ध-वर्तमान समाज-व्यवस्था का एक अङ्ग
करने पर प्रकट होता है कि हमारी जाति-व्यवस्था तथा वर्ग___अत: इस समय यह निर्देश कर देना आवश्यक जान पड़ता व्यवस्था कुछ तो बल-प्रयोग और कुछ परम्परा तथा प्रकृति है कि युद्ध, शस्त्रीकरण तथा कुटिल कूटनीति-ये सब पर निर्भर करती है। प्राचीन समय में वस्तुओं की कमी के विच्छिन्न व्यापार नहीं हैं। इनके तात्कालीन कारणों पर दृष्टि- कारण इस व्यवस्थाके पक्ष में जो भी तर्क किये जा सकते थे, वे . पात न करें तो भी कहना पड़ेगा कि ये अपने दावों को स्वी- आधुनिक युग में वस्तुओं की बहुलता की सम्भावना हो जाने से कार करवाने तथा झगड़ों का निपटारा करने के उपाय बन खंडित हो जाते हैं । अब नये सूत्रों पर मानवीय सम्बन्धों की गये हैं; संक्षेप में ये ऐसी समाज-व्यवस्था में सर्वथा स्वाभाविक रचना करनेका मार्ग प्रशस्त हो गया है। अहिंसा के सिद्धांत हैं, जिसमें हिंसा उपादेय मानी जाती है तथा एक वर्ग दूसरे वर्ग का वस्तुतः यही अर्थ है कि प्रत्येक नर-नारी के हित-साधन पर बल-प्रयोग कर के उसका शोषण करता है। झगड़ों का निप- का समान विचार रखा जाय तथा अधिक से अधिक मात्रा में टारा बल-प्रयोग द्वारा इसी कारण किया जाता है कि हमारा आत्मानुभूति के अवसर प्रदान किये जाय । सामाजिक जीवन भी घृणा, नैराश्य तथा शोषण से ओतप्रोत है। ये भावनायें अंतर्राष्ट्रीय सम्बंधों में, आंतरिक संगठन में अहिंसा का विधेयात्मक रूप तथा जीवन-दृष्टिकोण में व्याप्त हैं। सामाजिक जीवन में भी इस प्रकार यह स्पष्ट हो गया होगा कि अहिंसा का अभी बलप्रयोग तथा छल-कपट का बोलबाला है, अतः सुधार सिद्धांत, जैसा कि नाम से इंगित होता है, कोई निषेधात्मक मूल से आरंभ होना चाहिये । संसार को यह समझाने के लिये सिद्धांत नहीं है, बल्कि एक क्रान्तिकारी विधेयात्मक सिद्धांत बहुत अधिक बौद्धिक तथा नैतिक प्रयत्न की आवश्यकता है। है। यह राष्ट्रों की आंतरिक शासन-प्रणाली में आमूल परिवर्तमान संघर्षों का अंत करने तथा विश्व शांति की स्थापना वर्तन तथा सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्थाओं में संशोधन करने का एकमात्र उपाय यह है कि हिंसा (बलप्रयोग) के की ओर संकेत करता है । इस सिद्धांत की दृष्टि से संस्थाओं बजाय अहिंसा की नींव पर सामाजिक संबंधों का संशोधन हो। का पुनर्गठन जितना महत्वपूर्ण है, उतना ही महत्वपूर्ण
दृष्टिकोण में परिवर्तन है। संक्षेप में संपूर्ण जीवन-दृष्टिकोण अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र के अनुभव
में परिवर्तन की आवश्यकता है । जैसा कि अफलातून और १६१६ में स्थापित राष्ट्र संघ तथा निरस्त्रीकरण कमी- अरस्तु का कहना है, 'प्रत्येक प्रकार की संस्था के तदनुकूल शनों तथा सम्मेलनों के अनुभव से, जो १६३४ तक होते आचार-नीति का होना आवश्यक है।' यदि अनुकूल आचाररहे, विदित होता है कि युद्ध का निराकरण, जो रोग का नीति का प्रादुर्भाव नहीं होता है तो संस्थाओं का पुनर्गठन लक्षण है, मूलगत कारण, हिंसा के निराकरण से ही हो सकता शक्तिहीन हो जाता है, वे यंत्रवत् बन जाती हैं, और कुछ है, जो सारे वर्गों में व्याप्त है । अहिंसा के ऊँचे तल पर आने । समय पश्चात् या तो प्रभावहीन या विकृत हो जाती हैं । अत का अर्थ होगा कि राजनैतिक तथा आर्थिक क्षेत्र में एक वर्ग एव अहिंसा का सिद्धांत जीवन-पथ के रूप में स्वीकार किया पर दूसरे वर्ग के प्रभुत्व के विचार को तिलांजलि देनी होगी, जाना चाहिये । यहाँ पर एक भ्रम से सावधान कर देना तथा युरोप अथवा अमेरिका, एशिया अथवा अफ्रीका की सभी उचित होगा। जातियों की अबाध उन्नति तथा उन्हें समान अवसर प्रदान
उपरोक्त कथनों का यह अर्थ नहीं है कि मानव-संबन्ध करने के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप में स्वीकार करना एक मात्र बल-प्रयोग (हिंसा) पर आधारित है। इस प्रकार होगा।
का वातावरण समाज में सह्य नहीं हो सकता। पारिवारिक,
कौटुम्बिक और जातीय जीवन के निर्माण में बहत मात्रा में आंतरिक व्यवस्था में अहिंसा
सहानुभूति, परस्पर सहायता, स्नेह, त्याग और एकनिष्ठा की इस प्रकार न केवल अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में, बल्कि आंत- भावनाओं का भी हाथ रहता है। कहने का तात्पर्य यही है कि ये रिक व्यवस्था में भी एक नये अध्याय का सूत्रपात होगा। यह भावनाएँ पर्याप्त मात्रा में विद्यमान नहीं हैं, हिंसा का प्राबल्य बात किसी स्थूलद्रष्टा को भी प्रकट होगी कि अधिकांश देशों है, और उसका पूर्णरूपेण निराकरण कर देने पर ही सामाकी आंतरिक आर्थिक व्यवस्था, अधिकांश जन-वर्ग को समान जिक गुणों के अंकुर पनप सकते हैं। दूसरी बात यह भी समझ रूप से सुविधायें न प्रदान करने पर अवलम्बित है। विश्लेषण लेनी चाहिये कि वैयक्तिक जीवन की आचार-नीति और
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सामाजिक वातावरण का निकट सम्बन्ध है। व्यक्तित्व का अतः यही कहना पड़ता है कि सत्य का मार्ग उतना ही निर्माण समाज में होता है, दूसरे शब्दों में व्यक्तित्व समाज पना है, जितना अहिंसा का। कहावत है 'सत्यमेव जयते'। की उपज है। उसका सामाजिक व्यवस्था से घनिष्ठ सम्बन्ध यदि इनका यह अर्थ लगाया जाय कि सत्य की अंत में विजय है। अनुभवों से प्रकट होता है कि जातीय जीवन में नैतिकता होती है तो ठीक है। परंतु यह कहना भ्रमकारी होगा कि लाने के लिए केवल उपदेश और विनति काफी नहीं होती। सफलता का सरल मार्ग मन, वचन, कर्म से सत्य का पालन बीज के पनपने के लिए अनुकूल खाद तथा मौसम अर्थात् करना है। आज सत्य का मार्ग कांटों से घिरा है । वह विरोध, वातावरण की आवश्यकता पड़ती है। इसी प्रकार समस्त उत्पीड़न तथा कष्ट-सहन से परिपूर्ण है। इस पथ पर चलने संसार में जीवन में वास्तविक रूप से अहिंसा का समावेश में साहस, धैर्य तथा सहनशीलता की आवश्यकता पड़ती है । तभी हो सकता है, जब सामाजिक संगठन तथा व्यवहार वस्तुतः मिथ्या का बलप्रयोग (हिंसा) से घनिष्ठ सम्बन्ध है, अहिंसा पर आधारित होगा। अत: अहिंसा के सिद्धांत का और उसके साथ ही इसका भी अंत किया जा सकेगा। आज वस्तुतः अर्थ यह है कि समस्त जीवन, बलप्रयोग (हिंसा) के मनुष्य के लिए निजी जीवन में सदा सत्य बोलना चाहे संभव स्तर से ऊँचा उठाकर विवेक, अनुनय, सहनशीलता तथा हो, परंतु समस्या इतने से ही तो हल नहीं हो सकती। इस पारस्परिक सेवा के स्तर पर प्रतिष्ठित किया जाय । समस्या के वस्तुतः दो रूप हैं। एक तो, कैसे औसत व्यक्ति के
लिये सत्यवादिता सम्भव बनाई जाय; तथा दूसरे, कैसे संघों, सत्य
राजनीतिक दलों और सरकारों के लिये भी सम्भव बनाया यह तो सभी को प्रकट होगा कि अहिंसा का सत्य से जाय कि वे भी सत्य का उतनी ही मात्रा में पालन कर सकें, निकट सम्बन्ध है। ऊपर संकेत किया जा चुका है कि जितनी मात्रा में निजी जीवन में किया जा सकता है। सामाअधिकारियों द्वारा बलप्रयोग किये जाने पर पराधीन लोग जिक हित की दृष्टि से ऐसे वातावरण का निर्माण आवश्यक छल-कपट का आश्रय लेते हैं । हम यह भी कह चुके हैं कि है, जिसमें सत्य अंततोगत्वा ही नहीं, बल्कि तात्कालिक रूप मात्र बलप्रयोग से बहुधा उद्देश्य की सिद्धि नहीं होती, और में भी लाभदायी सिद्ध हो । यहाँ हमें फिर कहना पड़ता है कि छल-कपट अथवा धूर्तता से सहायता लेने की भी आवश्यकता जीवन अखंड है, उसके विविध अंग परस्पर निर्भर हैं, और हम पड़ती है। इसी कारण कहा गया है कि युद्ध में सभी बातें न्याय- घूम-फिर कर फिर एक ही बात पर आते हैं। जीवन के दुश्चक्र संगत होती हैं । वस्तुतः युद्ध में सभी प्रकार की धूर्तता चलती को तोड़ने के लिये, उस पर सभी ओर से प्रहार आवश्यक है। है । आधुनिक काल में युद्ध समग्र शक्तियों से चलाया जाता यह सब मानते हैं कि राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय मामलों में है, अर्थात् सम्पूर्ण बौद्धिक, नैतिक तथा भौतिक साधनों से समान रूप से सत्य का ऊँचा आदर्श स्थापित करने की आवचलाया जाता है। आपाततः मालूम पड़ता है कि शस्त्रास्त्रों श्यकता है। सत्य का आदर्श जितना ही ऊँचा होगा उतना ही के बल के सामने जनमत दब जाता है, परंतु आधुनिक काल समाज को वर्तमान दुश्चक्र से निकालकर, विवेक तथा में सरकारें मनोवैज्ञानिक प्रचार (प्रोपेगैन्डा) द्वारा जनमत नैतिकता के ऊँचे स्तर पर स्थापित किया जा सकेगा। की स्वीकृति प्राप्त करने के लिए इतना विशाल संगठन करती है । अतः यह ठीक ही कहा जाता है कि युद्ध में सबसे पहले अ सत्य की हत्या होती है । १६वीं शताब्दी की तब से ठोस देन यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इस प्रकार के अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा मानी जाती है। परंतु प्रोपेगैंडा ने सामाजिक पुनर्गठन में प्रत्येक व्यक्ति दूसरे के अधिकारों का इसका महत्त्व शून्य कर दिया है, जो आज सम्पूर्ण वातावरण समूचित आदर करेगा। तीसरे अणुव्रत, अचौर्य अथवा अस्तेय में व्याप्त है, तथा जल, थल या आकाश में रेडियो का बटन कार्य ही मूलाधार है। इसका शब्दार्थ तो इतना ही है कि दबाकर सुना जा सकता है । राष्ट्रों की घरेलू राजनीति का चोरी नहीं करनी चाहिये, परंतु इसका मार्मिक अर्थ यह है कि वातावरण भी कुछ विशेष अच्छा नहीं रहता। यह सर्वविदित प्रत्येक व्यक्ति को दूसरे के अधिकारों पर आघात नहीं करना है कि चुनावों में सत्य की विशेष परवा नहीं की जाती है, चाहिये । यहाँ पर 'स्वत्व' की तात्त्विक चर्चा आवश्यक है, और कचहरियों तथा नौकरियों में तो सत्य की सबसे अधिक इतना ही संकेत कर देना पर्याप्त होगा कि व्यक्तित्व के विकास हत्या होती है।
के लिये जो भी सामाजिक परिस्थितियाँ अनिवार्य या अनुकूल
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हों, वे ही स्वत्व हैं । स्वत्वों अर्थात सामाजिक जीवनके अनुकल चारित्र-निर्माण अवस्थाओं का उपभोग सभी करते हैं। उनका उपभोग संयुक्त मानव-स्वभाव न तो अच्छा होता है, न बुरा । वह तो रूप में किया जाता है । स्वत्व पूर्णतया वैयक्तिक नहीं हो कच्ची गीली मिट्टी के समान है, जिससे चाहे जिस रूप में सकते, वे सामाजिक होते हैं। उनका प्रादुर्भाव सहकारिता से चारित्र-निर्माण कर लो। वातावरण से पूर्ण समन्वय स्थापित होता है, और सहकारिता पर ही वे टिके रहते हैं। यदि सभी करने की दृष्टि से समस्थिति की लब्धि ही 'विकास' है । इसका के लिये उत्तम जीवन की अवस्थायें बनाये रखना है तो सिर्फ मंतव्य यह है कि सभी प्रवृत्तियों को कम या अधिक मात्रा में अपने ही लिये उनकी आशा नहीं करनी चाहिये, परंतु प्रत्येक एक ही उद्देश्य से, अर्थात् बुद्धि तथा हृदय के मेल से निर्मित व्यक्ति को इस प्रकार कर्म करना चाहिये कि दूसरे के उप- नैतिक भावना से एकाग्र करना चाहिये । इसका एक दूसरा भोग में बाधा न पड़े। इतना ही नहीं, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति मंतव्य यह है कि सभी प्रवृत्तियों में सामंजस्य रहना चाहिये । को इस प्रकार कर्म करना चाहिये कि दूसरे को इस दिशा इसप्रकार समस्थिति तथा प्रवृत्तियों को एकाग्र करने से में प्रेरणा मिले । जो अपने लिए स्वत्व है, वही दूसरे के प्रति निश्चित दिशा में उद्यम करने की रुझान पैदा होती है, जिसे कर्तव्य है। इस प्रकार स्वत्व और कर्तव्य परस्पर सापेक्ष हैं। 'इच्छा' कह सकते हैं। विविध इच्छाओं के संयोग को ही इच्छावे एक ही वस्तु के दो रूप हैं। यदि अपनी दृष्टि से उन पर शक्ति' कहते हैं। अबतक चारित्र की सर्वोत्तम परिभाषा संपूर्ण विचार करें तो वे स्वत्व हैं। परंतु यदि उन्हें ही दूसरे की सुसंस्कृत इच्छाशक्ति' ही ठहरी है। चारित्र का मूलाधार दृष्टि से देखें तो वे कर्त्तव्य हैं। दोनों ही सामाजिक हैं और आत्माभिव्यक्ति नहीं है, जैसाकि कुछ तथाकथित मनोवैज्ञासार रूप में उत्तम जीवन बिताने की अवस्थायें हैं जो सभी के निकों ने रूढ़िगत दमन की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप कहा है। लिये हैं। यह विवाद निष्फल है कि 'स्वत्व' कर्त्तव्य से पहले आत्माभिव्यक्ति अशासन के निकट भी पहुँच सकती है, जो आते हैं या बाद में। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वत्वों के सभी सामाजिक मानों तथा सुखों का अंत करने वाला है। लिये आग्रह करने लगे और दूसरे के प्रति कर्तव्यों की अव- व्यक्तित्व के लाभ के लिए आत्माभिव्यक्ति सोद्देश्य, समन्वयहेलना करने लगे तो 'स्वत्व' रह ही नहीं जायेंगे। यह सामा- शील तथा सहिष्णुता पर आधारित होनी चाहिये, जिसे जिक जीवन की मल शिक्षा है, जिसे सबको नये सिरे से ग्रहण परोपकारिता, त्याग, सेवा आदि विभिन्न नामों से पूकारा करना चाहिये।
गया है, और जो समाज एव व्यक्ति का चरम विकास है । इस यह कहने की आवश्यकता नहीं कि दूसरे के अधिकारों लिए कहते हैं कि संयम की, आत्मसंयम की आवश्यकता है, जो का सम्मान करना भी अहिंसा का ही सक्रिय रूप है। बाहरी दबाव से बिलकुल भिन्न वस्तु है । बाहरी दबाव दमन
तथा नैराशय को जन्म देता है । संयम आत्मा को सौन्दर्यशील ब्रह्मचर्य
तथा विकासोन्मुख बनाता है, जिस प्रकार पौधे को कांटते
छांटते रहने से वह अधिक सुन्दर रूप में पल्लवित-पुष्पित दसरे के अधिकारों का सम्मान और कर्तव्यों का पालन होता है। अधिक समय तक ऊपर से दबाव डालकर नहीं कराया जा सकता। वास्तव में नैतिक आचरण का बलपूर्वक पालन परिष्करण करवाना ही एक विरोधसंगत बात है। नैतिक आचरण के यदि मनुष्य अपनी नाना प्रवृत्तियों तथा बाह्य उत्तेलिये अनुकूल अवस्थाओं का संयोजन करके अपरोक्ष रीति जनाओं के प्रवाह में अपने को निर्बध छोड़ दे तो वह जीवन से नैतिकता का पालन कराना सम्भव है। हम अभी देख चुके की परस्पर विरोधी, क्षुद्र तथा निरर्थक बातों में, अपने को हैं कि अहिंसा का पालन ऐसे ही वातावरण में हो सकता है, फंसा देगा। यह जीवन के मूल स्रोत को स्पर्श भी न कर जो हिंसा की गंध से मुक्त हो। परंतु आचार-नीति का पालन सकेगा, और शीघ्र ही एक व्यर्थता की भावना उसमें घर कर ऊपरी दबाव से नहीं कराया जा सकता। वह भीतर की ही लेगी। उसे अन्य दिशाओं के साथ आत्म-संयम की दिशा में प्रेरणा से हो सकता है। विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है भी अपना विकास करना चाहिये । उसे अनिष्टकारी विषयों कि सामाजिक जीवन अंततोगत्वा आत्मसंयम पर निर्भर है। का त्याग तथा इष्ट विषयों का चुनाव करना चाहिये, यही चौथे अणुव्रत, ब्रह्मचर्य का मर्म है।
तथा चुनाव करने की आदत डालनी चाहिये। उसे अपनी
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रति त्याज्य विषयों से हटाकर, स्वीकृत विषयों में लगानी स्थापित करता है। विरोधी प्रवतियों के निराकरण अथवा चाहिये। इस प्रकार विविध प्रलोभनों को अस्वीकार करते रूप-परिवर्तन से व्यक्तित्व अखंड बना रहता है, और हुए उसमें जो कर्मशक्ति अनुप्रेरित होती है, वह ग्राह्य उसका अबाध तथा सुचारू रीति से विकास होता रहता विषयों की ओर प्रवाहित होती है। उसके भीतर जो है। परिष्करण के फलस्वरूप व्यक्तित्व ऊँचे नैतिक स्तर पर नाना प्रकार की लालसाय तरंगित होती रहती हैं, जिनका ऊठ जाता है तथा बाहर और भीतरमें संघर्ष नहीं होने पाता। वह अनुसरण नहीं करता, वे रूप बदलकर उसकी इष्ट मन:- वह सुख-प्राप्ति का साधन है, क्योंकि वह विविध दिशाओं में कामनाओं से एकाकार हो जाती हैं, और संतोष-लाभ करती सामंजस्य रखते हए व्यक्तित्व का विकास सम्भव बनाता है। हैं। यह परिष्करण बालक जैसे ही सामाजिक आचारनीति को दःख. परस्पर विरोधी प्रवत्तियों तथा भावनाओं के संघर्ष का हृदयंगम कर लेता है, आरम्भ हो जाता है । शक्तिबुद्धि तथा ही परिणाम है। लालसाओं की वृद्धि और उसीकी तुलना में नैतिक भावना तथा आत्मसंयम की वद्धि के साथ-साथ परिष्करण की वत्ति भी बढ़ती जाती है। परिष्करण दमन की ठीक उल्टी वृति है। यदि परिष्करण संयम की कोटि की प्रक्रिया है, जिससे वासनाओं तथा लालसाओं का नियंत्रण न किया जाय तो वे शक्तियाँ संगठित होती हैं तथा सामाजिक लक्ष्यों की ओर मनुष्य की शक्ति को विविध दिशाओं में बिखेर देती हैं, उसका प्रवाहित होती हैं। हम यह देख चुके हैं कि संयम का पालन विकास रुक जाता है, और उसका स्वास्थ्य चौपट हो जाता है। अंतर से होता है, वह बाहरी दबाव की वस्तु नहीं है । संयम यदि वे शासित की जाती हैं तो भीतर गुत्थियाँ पैदा करती हैं, का पाठ पढ़ाया नहीं जाता, बल्कि वह जब मनुष्य अपना मानसिक संघर्ष को जन्म देती हैं, स्वप्न, चिन्ता तथा विकृ- तथा समाज का लाभ समझ जाता है तथा उसका अनुसरण तियों के रूप में प्रकट होती हैं। परिष्करण, व्यक्ति को अखंड करने लगता है तो अन्दर से उत्पन्न होता है। संयम एक रखते हुए, आत्मसंयम का राजमार्ग है। सभी व्यक्ति न्यूना- विधेयात्मक शक्ति है, निषेधात्मक नियंत्रण नहीं है। इससे धिक मात्रा में अपना परिष्करण करते हैं, परंतु उच्च विचारों अंतर की शक्तियाँ सुनिश्चित मार्गों में प्रवाहित होती हैं, तथा आदर्शों के बल के बिना, अथवा ऊँचे लक्ष्य तथा जीवन जीवन व्यवस्थित बनता है और उत्तरदायित्व की भावना की प्रेरणा के बिना वह अपूर्ण रहता है। परिष्करण, शक्ति, पैदा होती है। यह मन को समाजोन्मुख करता है तथा बुद्धि तथा नैतिक भावनाओं और महत्त्वाकांक्षाओं की वृद्धि को व्यक्तित्व को विशेषत्व भी प्रदान करता है। संयम में विवेक संतुलित रखता है, वह व्यक्तित्व के समग्र विकास का मार्ग का भी समावेश है । वह सूचित करता है कि मनुष्य प्रशस्त करता है। वह भीतर तनाव नहीं आने देता, और भले अपने विविध कार्यों का अर्थ, अपनी नाना प्रवत्तियों में चनाव तथा बरे के विवेक के सुचारु विकास में भी सहायता देता तथा इष्ट लक्ष्य और प्राप्य साधनों में सामंजस्य करना भलीहै। वह आदर्शों को समुज्ज्वल बनाता है तथा जातीय जीवन भाँति जानता है। संयम, बुद्धि तथा नीति के सम्मिश्रण का में उत्सहापूर्वक भाग लेने को प्रेरित करता है। वह व्यक्तित्व सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। सामाजिक लक्ष्यों, संगठनों तथा के सर्वतोमुखी निर्माण में सहायता देता है, जिस पर समस्त अवस्थाओं का मर्म इस प्रकार हृदयंगम होना चाहिए कि सामाजिक आचार-नीति निर्भर करती है। इसके बिना वह अपनी जीवनचर्या में प्रतिबिम्बित हो। संयमी पुरुष जिस मनुष्य ज्ञान, साधना तथा पवित्र आदर्शों की उस ऊँची भूमिका ऊंचे स्तर पर पहुँच चुका होता है, उससे वह स्वयं उदाहरण पर कभी न पहुँच पाता, जिस पर वह पहुँचने की क्षमता बनकर दूसरों को भी उस स्तर पर पहुँचने की सतत प्रेरणा रखता है। परिष्करण आंतरिक विकास की एक सीढ़ी है,
दिया करता है, तथा समाज के नैतिक जीवन में निरंतर योग क्योंकि वह जीवन का नैतिक मान ऊंचा करता है, और अर्द्ध- समाचार चेतन तथा अचेतन मन की अधोमुखी प्रवृत्तियों पर अंकुश रखता है। (जैसा कि कहा जाता है, यद्यपि यह पूर्णतः सत्य आत्मसयम नहीं है ) वह मन के चेतन तथा सषप्त भागों में सहयोग सामाजिक व्यवहार में इस प्रकार के संयम को आत्मबनाये रखता है, जीवन की एकता स्थिर रखता है, तथा संयम कहना ठीक होगा। आत्मसंयम सामाजिक, आर्थिक विविध प्रवतियाँ, भावनाओं तथा पवित्र आदर्शों में सामंजस्य और राजनैतिक जीवन के ऊंचे नैतिक स्तर का शिलाधार
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है। आत्मसंयम के अभाव में प्रथाओं या काननों का कोई बस जहाँ जीवन बड़ी जल्दबाजी में तथा एक कृत्रिम वातावरण नहीं चलता । सौभाग्य से प्रत्येक समाज में कुछ मात्रा में में बीतता है। मनुष्य एक अबुध दुश्चक्र में फंस जाता है। आत्मसंयम वर्तमान है। परतु उसे विकसित करना तथा वह मानसिक व्याधियों, तथा आंशिक अथवा पूर्ण रूप से प्रबुद्ध बनाना आवश्यक है, जिससे वह विश्व-कल्याणकारी शिरा-भंग (मानसिक थकावट का रोग) का शिकार बनता आर्थिक व्यवस्था का मूलाधार बन सके तथा उसके लिये है, जो आधुनिक युग का सबसे दुःखद पहलू है। 'जीवन-संग्राम आवश्यक प्रेरणा दे सके।
अथवा यों कहिये कि ऊंचे जीवन का संग्राम इतना विकट हो
गया है कि वह अपरिग्रह के अस्त्र से ही लड़ा जा सकता है। अपरिग्रह
एक दूसरे दृष्टिकोण से हम कह सकते हैं कि यह अणुव्रत संयम की शिक्षा का स्वाभाविक परिणाम 'अपरिग्रह' सम्यक् विवेक तथा वस्तुओं के समुचित मूल्यांकन की शिक्षा है। जैनधर्म का यह एक मौलिक सिद्धांत है। सांसारिक सखों देता है। का स्वेच्छा से त्याग, वासनाओं से विरक्ति, आडम्बरों से निलिप्त तथा वस्तुओं के संग्रह का मोहत्याग-यही अपरिग्रह
व्रतों की अखण्डता के लक्षण हैं । अपरिग्रह का मंतव्य समझाते हुए नीतिकारों ने अणव्रतों के उक्त विवेचन से स्पष्ट हो गया होगा कि वे कहा है कि 'मनुष्य को अपनी भौतिक सम्पत्ति का मोह नहीं परस्पर सापेक्ष तथा एक दूसरे के पूरक हैं। एक व्रत का रखना चाहिये तथा प्रलोभनों से सदा बचना चाहिये।' वह पालन न्यायतः दूसरे व्रत की ओर ले जाता है। और वस्तुतः अपनी आवश्यकता-पूर्ति के लिए सम्पत्ति तथा वस्तुयें रख वह अन्य व्रतों के पालन के बिना व्यर्थ सिद्ध होगा। इनमें सकता है, परंतु उसे अर्थप्राप्ति करने में 'अपने' को भूला केवल अहिंसा व्रत को ही सबसे प्रथम स्थान देना होगा। यह देना नहीं चाहिये । उसे राग, द्वेष, क्रोध, मान, लोभ, शोक, व्रत उच्च आध्यात्मिक जीवन का शिलाधार है। जैन तथा भय, जुगुप्सा आदि का त्याग करना चाहिये।
बौद्ध धर्म में अहिंसा का अर्थ केवल 'दया' नहीं है, बल्कि प्राणीयदि इस अणुव्रत का पालन किया जाय, तो इसे धन मात्र से 'मैत्रीभाव' भी है। अहिंसा का सिद्धांत स्वतः पूर्ण है। तथा साम्राज्य के लिये उस क्रूर तथा प्रचंड प्रतिद्वन्द्विता का यह इस बात का एक और प्रमाण है कि आचारयुक्त जीवन, अन्त हो जायगा, जो आधुनिक युग का शाप है तथा सभी मानसिक दृष्टिकोण का परिणाम होता है । अहिंसा की ही दु:खों की जननी है। आज अपरिग्रह की जितनी आवश्यकता भांति अस्तेय तथा अपरिग्रह भी ऊपर से निषेधात्मक सिद्धांत है, उतनी पहले कभी नहीं थी। यह अपरिग्रह, सर्वभक्षी विदित होते हैं, पर व्यवहार में वे विधेयात्मक सिद्धान्त हैं। भौतिकवाद का परिहार करने वाली है। विज्ञान ने वस्तुओं पाँचों अणुव्रत मिलकर समस्त नैतिक तथा आध्यात्मिक का उत्पादन कई गुना बढ़ा दिया है तथा जहाँ-तहाँ अनावश्यक जीवन के अखंड सिद्धान्त सिद्ध होते हैं तथा आत्मोन्नति का वस्तुओं का ढेर लगा दिया है। आधुनिक उद्योग-धंधों ने मार्ग निर्देशित करते हैं। तथा व्यवसाय ने बड़े-बड़े नगरों के विकास में योग दिया है,
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जैनधर्म का केन्द्रबिन्दु
'समता
(स्व०)-डॉ० इन्द्रचन्द्र शास्त्री
एम० ए०, पी-एच० डी०
एक शब्द में जैनधर्म का केन्द्रबिन्दु 'समता' है । इसी को और चारित्र-तीनों को आवश्यक मानता है ।श्रद्धा का अर्थ लक्ष्य में रखकर दर्शन और धर्म का विकास हुआ। दर्शन ने है दष्टि का सत्य पर केन्द्रित होना। जो व्यक्ति सत्य अथवा दृष्टि प्रदान की और धर्म ने उस पर चलने का मार्ग प्रस्तुत आत्मा के साक्षात्कार को सर्वोपरि मानता है वह 'सम्यग्किया।
दृष्टि' है। सम्यग् ज्ञान' सत्य की पहिचान कराता है और विषमता का कारण मोह है। विचारों का मोह एकांत 'सम्यक् चारित्र' उसे प्राप्त करने का बल प्रदान करता है। या दृष्टि-दोष है। व्यवहार में मोह चरित्न-दोष है। इन्हें दूर करके आत्मा परमात्मा बन सकता है। 'समता' को जीवन में ३. मनुष्य की श्रेष्ठता उतारने के निम्नलिखित १५ सूत्र हैं :--
जैनधर्म मनुष्य को सर्वोपरि मानता है। 'देवता भी
चरित्र-सम्पन्न मनुष्य के चरणों में सिर नमाते हैं। इस संदेश १. धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है
ने कल्पित शक्तियों से वरदान प्राप्त करने के लिये गिड़गिड़ाते उत्कृष्ट मंगल का अर्थ है जिसके द्वारा स्व और पर सभी मानव को ऊँचा उठाया है। राजनीतिक परिभाषा में यह का कल्याण हो । जो आदि, मध्य तथा अंत-तीनों अवस्थाओं लोकतंत्र का प्रथम तत्त्व है। में हितकारी हो। वैदिक परम्परा का स्वर है-'सत्यमेव जयते नानतम् ।' इसके विपरीत जैन पर परा का स्वर है- ४. सात तत्त्व"सच्चं लोगम्मि सारभूयं" अर्थात् दुनिया में सत्य ही सार है। साधना की दष्टि से सात तत्त्वों का विधान है। प्रथम जीत में दूसरे की हार छिपी है। ऐसा तत्त्व सबके लिये मंगल दो-जीव और अजीव विश्व के घटक हैं। शेष पाँच हैंनहीं हो सकता । जैन परम्परा उसके स्थान पर सारभूत शब्द १. आश्रव, २. बन्ध, ३. संवर, ४. निर्जरा, ५. मोक्ष । रखती है अर्थात् दुनिया में यही सार है, शेष निस्सार । आस्रव में पतन के पाँच कारण बताये गये हैं• निस्सार से लक्ष्य हटाकर उसे सार पर केन्द्रित करना ही (१) मिथ्यात्व–अर्थात विपरीत श्रद्धा । 'धर्म' है।
(२) अविरति-अर्थात् अनुशासन-हीनता।
(३) प्रमाद-अर्थात् आलस्य । २. रत्नत्रय
(४) कषाय-अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ । उपर्युक्त सत्य की प्राप्ति के लिये जैनधर्म श्रद्धा, ज्ञान (५) योग–अर्थात् मन, वचन और शरीर कीप्रवृत्ति ।
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इनके कारण होने वाली आत्मा की अशुद्धि एवं दुर्बलता में रुकावट डालना भी हिंसा है। व्यावहारिक जीवन को को 'बंधतत्व' से बताया गया है। शुद्धि के दो उपाय हैं। दृष्टि में रखकर इसमें एक परिष्कार किया गया है। यदि नवीन कुप्रवृत्तियों को रोकना और लगे हुए कुसंस्कारों को कल्याणबुद्धि से कोई कार्य किया जाता है और उससे किसी दूर करना । ये ही क्रमशः संवर और निर्जरा तत्त्व हैं। आत्मा को कष्ट पहुँचता है तो यह हिंसा नहीं है। उसे हिंसा तभी का पूर्णतया शुद्ध होना अंतिम मोक्षतत्व है।
कहा जायगा जब मनमें स्वार्थ या दुर्भावना हो। ५. अनेकांत- अर्थात् 'दृष्टि में समता'।
अहिंसा की भूमिकाएँप्रत्येक वस्तु को समझने के अनेक दृष्टिकोण होते हैं। भर्तहरि ने पर-हित की दृष्टि से मानवता की चार एक ही व्यक्ति किसी का पिता है, किसी का भाई और किसी भमिका बताई हैंका पुत्र वह अपनी अपेक्षा को सामने रखकर व्यवहार करता (१) सत्पुरुष-स्वार्थ का परित्याग करके भी दूसरे का है किन्तु यदि अन्य अपेक्षाओं का अपलाप करने लगे तो सत्य
हित करने वाले। से दूर चला जायेगा। सापेक्ष-दृष्टि को ही जैन परिभाषा में
(२) सामान्य पुरुष-स्वार्थ को बिना छोड़े, दूसरे का 'अनेकान्त' कहा गया है। इसके लिये स्थूल रूप में चार
हित करने वाले। अपेक्षाएँ बताई गई हैं (१) द्रव्य-वस्तु का निजी रूप (२) क्षेत्र
(३) मानवराक्षस-स्वार्थ के लिये दूसरे को हानि (३) काल और (४) भाव अर्थात् अवस्था।
___ पहुँचाने वाले। विभिन्न दृष्टियों को जैनपरिभाषा में 'नय' कहा गया है
(४) पशुराक्षस-स्वार्थ न होने पर भी दूसरे को हानि और सर्वग्राही दृष्टि को 'प्रमाण' । स्याद्वाद जैनतर्क-शास्त्र
पहुँचाने वाले। का मुख्य तत्व है। स्यात् का अर्थ है कथंचित्-किसी अपेक्षा
भर्तृहरि ने चतुर्थ कोटि के लिये कोई नाम नहीं दिया। से । प्रत्येक वाक्य, वह विधिरूप हो या निषेधरूप, किसी
उन्हें 'ते के न जानीमहे' कहकर छोड़ दिया। इनके साथ पंचम अपेक्षा को लेकर चलता है। भाषण में सापेक्षता का ध्यान
कोटि उन व्यक्तियों को जोड़ी जा सकती है जो स्वयं हानि रखना ही 'स्याद्वाद' है। अनेकांत जैनदर्शनकी आधार
उठाकर भी दूसरे को हानि पहुँचाना चाहते हैं, हम उन्हें शिला है।
'पिशाच' कह सकते हैं।
परहित के समान अहिंसा और हिंसा के आधार पर भी ६. अहिंसा
कई श्रेणियाँ हो सकती हैं। इनके तीन आधार हैं :___ अहिंसा-'व्यवहार में समता' । हम अपने जीवन तथा (क) स्वार्थ वृत्ति-किसी स्वार्थ से प्रेरित होकर दूसरे आवश्यकताओं को जितना महत्व देते हैं, प्रायः दूसरों को
को हानि पहुँचाना । नहीं देते । यहीं से व्यवहार में 'वैषम्य' प्रारम्भ हो जाता है। (ख) क्रूरता-स्वार्थ न होने पर भी दूसरे को हानि भगवान महावीर का कथन है कि 'जब तुम दूसरे को मारने
पहँचाना। ये दोनों तत्व हिंसा से सम्बन्ध या सताने जाते हो तो उसकी जगह अपने को रखकर सोचो।
रखते हैं। यदि यह व्यवहार तुम्हें अप्रिय है और चाहते हो कि दूसरा (ग) अपराध-हिंसा का अपराधी या निरपराध तुम्हारे साथ ऐसा न करे तो तुम भी वह व्यवहार दूसरे के
होना। साथ मत करो।'
(१) हिंसा की दृष्टि से निम्नतम भूमिका उन व्यक्तियों प्राण दस हैं—पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, मानसिक, वाचिक तथा की है जो स्वयं हानि उठाकर भी दूसरे को हानि पहुँचाना कायिक शक्तियाँ, श्वासोच्छ्वास और आयु। इनमें से किसी चाहते हैं। उनकी वत्तियाँ इतनी क्रूर होती हैं कि दूसरे को को नष्ट करना, क्षति पहुँचाना या उसकी स्वतन्त्रता में कष्ट में देखकर आनन्द आता है। अतः निजी स्वार्थ के न बाधा डालना हिंसा है। भाषण की शक्ति को आघात होने पर भी दूसरे को हानि पहुँचाना चाहते हैं। इतना ही पहुँचाना तो हिंसा है ही, उस पर प्रतिबंध लगाना भी हिंसा नहीं, उसके लिये हानि उठाने को भी तैयार रहते हैं । क्रोध, है। इसी प्रकार स्वतंत्र चिंतन, आवागमन, देखने-सुनने आदि या द्वेष-बुद्धि उनकी चेतना को अभिभूत कर लेती है। ऐसे
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व्यक्तियों को विक्षिप्त या उन्मुक्त कहा जायेगा। उनकी विवेक शक्ति लुप्त हो जाती है। दूसरे को हानि तो दूर रही, वे अपनी हानि भी नहीं देखते।
(२) दूसरी कोटि उन व्यक्तियों की है जो प्रयोजन न होने पर भी दूसरे को हानि पहुँचाना चाहते हैं किन्तु उसके लिये स्वयं हानि उठाने को तैयार नहीं हैं। ऐसे व्यक्तियों में क्रूर वृत्ति होने पर भी चेतना का सर्वथा लोप नहीं होता। दूसरे को कष्ट देकर उनका मनोरंजन होता है । किन्तु इसके लिये स्वयं कष्ट नहीं उठाना चाहते।
(३) तीसरी कोटि उन व्यक्तियों की है जो दूसरे को बिना स्वार्थ के हानि नहीं पहुँचाते किंतु स्वार्थ के लिये निरपराध होने पर भी हानि पहुँचाने में नहीं हिचकते । ऐसे व्यक्ति प्रायः अर्थलोलुप होते हैं। उनकी चेतना पर लोभ वृत्ति छाई रहती है। प्रत्येक प्रवृत्ति में उसी की प्रेरणा रहती है ।
चौथी कोटि उन व्यक्तियों की है जो स्वार्थ का प्रयोजन होने पर भी निरपराध को हानि नहीं पहुँचाते, किंतु अपराध का बदला लेना अपना कर्तव्य समझते हैं। यह भूमिका धावक की है । जो सभ्य नागरिक होता है ।
(५) पाँचवीं कोटि उन व्यक्तियों की है जो अपराधी को भी क्षमा कर देते हैं ।
(६) छठी कोटि उनकी है जो अपराधी के कल्याण की कामना करते हैं, किंतु उसके लिये स्वयं हानि उठाने या अपना स्वार्थ छोड़ने को तैयार नहीं होते ।
(७) सातवीं कोटि उनकी है जो स्वयं हानि उठाकर भी दूसरे का कल्याण करना चाहते हैं ।
जैन दृष्टि से प्रथम तीन भूमिकाएँ मिथ्यात्वी की हैं। चौथी और पांचवी गृहस्थ की और अन्तिम दो त्यागी की है। ७. स्वावलम्बन
आचारांग सूत्र में भगवान महावीर कहते हैं-"अरे मानव ! तू ही तेरा मित्र है। बाहर किसे खोज रहा है ?" जैनधर्म उद्धारक के रूप में ईश्वर या किसी अतीन्द्रिय शक्ति को नहीं मानता। प्रत्येक अपने ही पुरुषार्थं द्वारा ऊँचा उठता है और अपने ही कार्यों द्वारा नीचे गिरता है। यहाँ महापुरुषों । का वंदन एवं कीर्तन केवल आदर्श के रूप में किया जाता है, कृपा प्राप्त करने के लिये नहीं।
८. साधकों की श्रेणियाँ
कषाय अर्थात् मनोविकारों की तरतमता के आधार पर
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साधकों की चार श्रेणियाँ हैं । प्रथम श्रेणी अर्थात् सम्यग् दृष्टि के लिये आवश्यक है कि किसी प्रकार का मनोमालिन्य एक वर्ष से अधिक न रखे। द्वितीय श्रेणी धावक की है, उसके लिये यह अवधि चार महीनों की है। तृतीय श्रेणी साधु के लिये १५ दिन की। अंतिम अर्थात् केवली में वे सर्वथा समाप्त हो जाते हैं । इन्हीं का विभाजन १४ गुणस्थानों में किया गया है।
१. उपास्य (देव-गुरु )
जैनधर्म किसी उद्धारक को नहीं मानता उपास्य केवल आदर्श का काम करते हैं। उनकी दो श्रेणियाँ हैं जिन्होंने राग-द्वेष आदि दुर्बलताओं को पूर्णतया जीत लिया है वे 'देव' कहे जाते हैं । जो उस पर चल रहे हैं वे 'गुरु' । नमस्कारमंत्र में इन्हीं की वंदना की जाती है, व्यक्ति विशेष की नहीं। प्रत्येक युग में नये व्यक्ति त्याग और तपस्या का आदर्श लेकर आते हैं और प्रकाश देकर मोक्ष में चले जाते हैं, वे वापिस नहीं लौटते। युग परिवर्तन के साथ व्यक्ति भी बदल जाते हैं।
१०. सामायिक - समभाव धारण करना ।
जीवन में समता उतारने का अभ्यास 'सामायिक' है। यह जैन साधना का केन्द्रबिंदु है। मुनि इसे समस्त जीवन के लिये अपनाता है और गृहस्थ यथाशक्ति कुछ समय के लिये इसका अर्थ है कि स्व और पर में समता और मन, वाणी और क्रिया में समता। वाह्य और अभ्यंतर में समता प्रत्येक आत्मा अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख और अनंत वीर्य स्वरूप है । बाह्य विकार इस स्वरूप को ढक देते हैं और जीवन में वैषम्य आने लगता है । सामायिक स्वरूप को पुनः प्राप्त करने का अभ्यास है । चरित्र की समस्त श्रेणियाँ इसी में आ जाती है। इसी का दूसरा नाम 'संयम' है।
१९. तपस्या
सामायिक द्वारा नवीन विकारों को रोका जाता है और तपस्या द्वारा संचित विकारों को दूर किया जाता है । सामायिक को संवर भी कहा जाता है और तपस्या को निर्जरा । दोनों मिलकर जैन-साधना को परिपूर्ण बनाते हैं ।
१२. प्रतिक्रमण
दैनंदिन अनुष्ठान के रूप में प्रतिक्रमण का विधान है। । इसका अर्थ है पीछे मुड़ना साधक दैनंदिन जीवन में होने
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वाली भूलों का पर्यालोचन और पश्चात्ताप करता है। इसके १४. कर्मवाद छह अंग हैं
न्याय अर्थात् पुरुषार्थ और फल में समता । जैनदर्शन का
कथन है कि अपने भविष्य को बनाना या बिगाड़ना स्वयं (क) सामायिक-समभाव धारण करना।
व्यक्ति के हाथ में हैं । आँखें बन्द करके गड्ढे की ओर चलने (ख) चतुर्विंशतिस्तव -चौबीस तीर्थकरों की स्तुति । वाला उसमें गिर पड़ेगा। इसके लिये वह स्वयं उत्तरदायी है,
इसके द्वारा वर्तमान युग के उन महापुरुषों का कोई बाह्य शक्ति नहीं गिराती । अजीर्ण होने पर भी भोजन स्मरण किया जाता है,जिन्होंने तपस्या द्वारा पूर्णता करने वाला रोगों से घिर जायगा । वह स्वयं अपने को रोगी
प्राप्त करके दूसरों का पथ-प्रदर्शन किया। बनाता है। राग-द्वेष आदि विकृतियाँ हमारी आत्मा पर (ग) वंदन-पाँच महाव्रत धारी मुनियों को नमस्कार । विविध प्रकार के कुसंस्कार डालती हैं, उसे मलिन कर डालती यह वर्तमान आदर्श का स्मरण है।
हैं । यह मालिन्य उसके ज्ञान, सुख और वीर्य को ढक देता है। (घ) प्रतिक्रमण-आलोचना
फलस्वरूप वह अनंत ज्ञानी होने पर भी अल्पज्ञ, अनंत सुखी
होने पर भी दु:खी और अनंत शक्ति संपन्न होने पर भी दुर्बल (च) कायोत्सर्ग---इसका शब्दार्थ है-शरीर का परि
- बन जाता है। जैन परिभाषा में इस बाह्य प्रभाव को 'कर्म' त्याग । जैन साधना त्याग-लक्ष्यी है । साधक धन,
कहा गया है। संपत्ति, परिवार, पूजा, प्रतिष्ठा आदि का त्याग करता हुआ आगे बढ़ता है । कायोत्सर्ग अथवा १५. सामाजिक समताव्युत्सर्ग अन्तिम तप है। इससे शरीर अथवा जीवन
जैन संघ-रचना में जाति, लिंग आदि के आधार पर के परित्याग का अभ्यास किया जाता है । साधक
कोई वैषम्य नहीं रखा गया। स्त्री हो या पुरुष, ब्राह्मण हो अन्य वस्तुओं के साथ शरीर को भी छोड़कर आत्म
या शूद्र, प्रत्येक व्यक्ति साधना द्वारा उच्चतम स्थान प्राप्त चितन में लीन होता है। दूसरे शब्दों में यह जीवन
कर सकता है। परस्पर वंदन एवं शिष्टाचार में भी चरित्र की के मोह पर विजय प्राप्त करने का अभ्यास है।
उच्चता का ध्यान रखा जाता है। आयु, जाति अथवा लिंग (छ) प्रत्याख्यान-इसका शब्दार्थ है छोड़ना । साधक
का नहीं। प्रतिदिन कुछ-न-कुछ छोड़ने का अभ्यास करता है। कभी सूर्योदयके पश्चात अमुक समय तक निराहार रहने का निश्चय जैनधम और व्यक्तित्व करता है। कभी भोजन अथवा दैनंदिन जीवन में काम आने
जीवन-निर्माण की दृष्टि से जैनधर्म में वे सभी तत्व वाली वस्तुओं की मर्यादा करता है। छोटे-छोटे त्याग जीवन
मिलते हैं जो पूर्णतया विकसित एवं शक्तिशाली व्यक्तित्व में म अनुशासन और दृढ़ता लाते हैं।
होने चाहिए। हमारा व्यक्तित्व कितना दुर्बल या सबल है
इसकी कसौटी प्रतिकूल परिस्थिति है। जो मनुष्य प्रतिकूल १३. मैत्री की घोषणा
परिस्थितियों में घबरा जाता है, उसका व्यक्तित्व उतना ही प्रतिक्रमण के अंत में मैत्री की घोषणा की जाती है। दुर्बल समझना चाहिए । प्रतिकूल परिस्थिति को हम नीचे साधक पहले अपनी ओर से समस्त प्राणियों को क्षमा प्रदान लिखे तीन भागों में बाँट सकते हैंकरता है और उसके पश्चात् उनसे क्षमा माँगता है। इस (१) प्रतिकूल व्यक्ति--जो व्यक्ति हमारा शत्र है, हानि प्रकार शत्रुता समाप्त करके सबके साथ मित्रता की घोषणा पहुँचाना चाहता है या हमारी रुचि के अनुकूल नहीं है उसके करता है। जो व्यक्ति वर्ष में एक बार सच्चे हृदय से यह सम्पर्क में आने पर यदि हम घबरा जाते हैं या मन-ही-मन घोषणा नहीं करता, समस्त मनोमालिन्य एवं वैर-विरोध का कष्ट अनुभव करते हैं, तो यह व्यक्तित्व की पहली दुर्बलता अन्त नहीं करता उसे अपने को 'जैन' कहने का अधिकार है।जैन-दृष्टि से इसका अर्थ होगा हमने अहिंसा को जीवन में नहीं है। जैन धर्म का सबसे बड़ा सांवत्सरिक पर्व मित्रता की नहीं उतारा । सर्वमैत्री का पाठ नहीं सीखा। घोषणा का पर्व है।
(२) प्रतिकूल विचार-जमे हुए विश्वासों के विपरीत
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विचार उपस्थित होने पर यदि हम घृणा या तिरस्कार का व्यक्तित्व की तीसरी दुर्बलता है। जैन-दृष्टि से इसका अर्थ अनुभव करते हैं, उन विचारों को नहीं सुनना चाहते या उन होगा हमें कर्म-सिद्धान्त पर विश्वास नहीं है। व्याकुलता, पर सहानुभूति के साथ मनन नहीं कर सकते तो यह दूसरी घबराहट एवं उत्साहहीनता के दो कारण हैं। या तो हम दुर्बलता है । जैन-दृष्टि से इसका अर्थ होगा हमने अनेकांत को परावलम्बी हैं अर्थात् हम मानते हैं कि सुख की प्राप्ति आत्मा जीवन में नहीं उतारा।
को छोड़कर अन्य तत्वों पर अवलम्बित है, अथवा यह मानते (३) प्रतिकूल वातावरण-इसके तीन भेद हैं (क) हैं कि आत्मा दुर्बल होने के कारण प्रतिकूल परिस्थिति एवं इष्ट की अप्राप्ति-अर्थात् धन-संपत्ति, सुख-सुविधाएँ, परि- विघ्न-बाधाओं पर विजय प्राप्त कर नहीं सकता। जैन-धर्म जन आदि जिन वस्तुओं को हम चाहते हैं उनका न मिलना। में आत्मा को अनन्त चतुष्टयात्मक माना गया है। सुख को (ख) अनिष्ट की प्राप्ति--अर्थात् रोग, प्रियजन का वियोग, बाहर हूँढ़ने का अर्थ है हमें आत्मा के अनंत सुख में विश्वास सम्पत्तिनाश आदि जिन बातों को नहीं चाहते उनका उप- नहीं है। इसी प्रकार विघ्न-बाधाओं के सामने हार मानने स्थित होना । (ग) विघ्न-बाधाएँ—अभीष्ट लक्ष्य की सिद्धि का अर्थ है हमें आत्मा के अनन्त वीर्य में विश्वास नहीं है। में अड़चनें आना। इन परिस्थितियों में घबरा जाना
आचार्य श्री जिनविजय जी के नेतृत्व में जेसलमेर के प्राचीन ज्ञान-भण्डारों के हस्तलिखित प्रतों की प्रतिलिपि-लेखन और शोधकार्य के लिए कार्यरत विद्वद्गण ।
चित्र में आचार्य जिनविजय जी के साथ बायीं ओर बैठे हए श्री शान्तिभाई,
एवं महामहोपाध्याय पं० के० के० शास्त्री, आदि दिखाई देते हैं।
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LATERNITER सर्वोदयतीर्थ-जैनधर्म श्री जयसुखलाल वनमाली शेठ
कलकत्ता
ज्येष्ठ भ्राता श्री जयसुखभाई और श्री शान्तिभाई
सर्वोदयी-तीर्थ
जैनधर्म-जीवनधर्म सर्वापदामन्तकरं निरन्तं, सर्वोदयंतीर्थमिदं तवैव। धर्म, राष्ट्रधर्म, व्रतधर्म, कुलधर्म, गणधर्म, संघधर्म, सूत्रधर्म,
अर्थात्-हे भगवन् ! सबका कल्याण करनेवाला, चारित्रधर्म एवं अस्तिकाय धर्म का निरूपण करके जनसाधासबको सुख देनेवाला आपका धर्म वास्तव में सर्वोदय-तीर्थ है। रण को जैनधर्म क्रमशः कैसे 'जीवन धर्म' बन सकता है यह
भगवान महावीर के तीर्थ को 'सर्वोदय-तीर्थ' कहा गया स्पष्ट बताया है । जो धर्म जीवन में मूर्त नहीं होता है वह है । जहाँ सर्वोदय-अर्थात् सबका भला करने की भावना धर्म नामशेष हो जाता है। इसीलिए जैनधर्म, जीवन में अंतर में हो वहाँ भगवान महावीर का शासन-तीर्थ है ही। उतारने से ही 'जीवनधर्म' हो सकता है। अहिंसा,संयम और तपोमय धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है। मंगलमय इसी प्रकार भगवान महावीर ने जीवनधर्मरूप जैनधर्म भगवान महावीर का यही एकमात्र मंगलधर्म है। भगवान को बिना सोचे-समझे, आँखें मूंदकर, अंगीकार करने की बात महावीर ने धर्म के तत्व को रहस्यपूर्ण बताया नहीं है। उन्होंने कही नहीं है। उन्होंने स्पष्ट उद्घोषणा की है कि- हे भव्य तो 'एहि पस्सकं धम्म'-अर्थात् आओ, धर्म-तत्व को देखो और जीवो,तुम धर्म को अपनी प्रज्ञा-विवेक बुद्धि से बराबर परखकर पहिचानो। जैसा कि दूसरों ने कहा है कि-'धर्मस्य तत्त्वं अंगीकार करो और तत्त्व को भी अपनी बुद्धि की कसौटी पर निहितं गुहायाम्' अर्थात् धर्म का तत्त्व गूफा में छुपा हुआ कस करके ही स्वीकार करो । अंधश्रद्धा या गतानुगतिक वृत्ति है। इस प्रकार धर्म को रहस्यपूर्ण भगवान महावीर ने नहीं से किसी बात को स्वीकार न करो। बताया।
विश्व-ज्योति भगवान महावीर ने सभी जीवों के प्रति दूसरे महत्व की बात भगवान महावीर ने यह बताई समभावना, मानवजाति की समानता, ऊँच-नीच भावना का कि जो इस त्रिविध मंगल-धर्म का ठीक पालन करता है उस प्रतिकार, हिंसा के स्थान पर अहिंसा की प्रतिष्ठा, जातिवाद धर्मपुरुष को देव भी नमस्कार करते हैं। यहाँ पर देवों द्वारा के स्थान पर गुणवाद की प्रतिष्ठा, स्त्री और शूद्रों के प्रति भी धर्माराधक को 'पूज्य' बताकर भगवान महावीर ने मानव- सम्मान-भावना, भाषामोह का परित्याग और सभी जीवों धर्म की प्रतिष्ठा स्थापित की है। रूढ़ि या परम्परा से चले की कल्याण-भावना प्रगट कर समानता, सार्वजनिकता और आये सांप्रदायिक धर्म-जो धर्मभ्रमके रूप में मानवता का सार्वभौमता का आदर्श बताया है। जैनधर्म कोई संप्रदाय, हास करता है, ऐसे अधर्म का प्रतिकार किया है। वास्तव जाति या वर्ग विशेष का स्वायत्त धर्म नहीं है। यह तो समग्र में जैनधर्म वस्तुधर्म होने से विश्वधर्म है।
मानव-समाज क्या, जीवमान का अपना धर्म है। इसी कारण श्री स्थानांग सूत्र में भगवान महावीर ने 'ग्रामधर्म नगर- जैनधर्म को वीतराग-धर्म या विश्व-धर्म कहा गया है। ।
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जैन-आगम
प्रो. दलसुख मालवणिया मानद निदेशक, श्री द० ला० भारतीय विद्या-मंदिर, अहमदाबाद
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पौरुषेयता-अपौरुषेयता
'जिन' होकर उपदेश देगा वह आचार का सनातन सत्य ब्राह्मण-धर्म में वेद-श्रति का और बौद्धधर्म में त्रिपिटक सामायिक-समभाव-विश्ववात्सल्य-विश्वमैत्री का तथा का जैसा महत्त्व है वैसा ही जैनधर्म में श्रुत-आगम-गणिपिटक विचार का सनातन सत्य-स्याद्वाद-अनेकान्तवाद-विभज्यका महत्व है। ब्राह्मण दार्शनिक मीमांसकों ने वेद-विद्या वाद काही उपदेश देगा । ऐसा कोई काल नहीं जब उक्त सत्य को सनातन मानकर अपौरुषेय बताया और नैयायिक- का अभाव हो। अतएव जैन आगम को इस दृष्टि से अनादि वैशेषिक आदि दार्शनिकों ने उसे ईश्वर-प्रणीत बताया किन्तु अनन्त कहा जाता है, वेद की तरह अपौरुषेय कहा जाता है। वस्ततः देखा जाय तो दोनों के मत से यही फलित होता है कि एक जगह कहा गया है कि वाटि # वेदरचना का समय अज्ञात ही है। इतिहास उसका पता नहीं ।
शरीर-सम्पत्ति और वर्धमान की शरीरसम्पत्ति में अत्यन्त लगा सकता। इसके विपरीत बौद्ध त्रिपिटक और जैन गणि- वैलक्षण्य होने पर भी इन सभी के धृति, संघयण और शरीरपिटक पौरुषेय हैं, ईश्वरप्रणीत नहीं हैं और उनकी रचना के रचना का विचार किया जाय तथा उनकी आन्तरिक काल का भी इतिहास को पता है।
योग्यता केवलज्ञान का विचार किया जाय तो उन सभी मनुष्य पुराणप्रिय है। यह भी एक कारण था कि वेद की योग्यता में कोई भेद न होने के कारण उनके उपदेश में अपौरुषेय माना गया है। जैनों के सामने भी यह आक्षेप हुआ कोई भेद नहीं हो सकता। और दूसरी बात यह भी है कि होगा कि तुम्हारे आगम तो नये हैं, उसका कोई प्राचीन मूल- संसार के प्रज्ञापनीय भाव तो अनादि अनन्त हैं । अतएव जब आधार नहीं। उत्तर दिया गया कि द्वादशांगभूत गणिपिटक कभी सम्यग्ज्ञाता उनका प्ररूपण करेगा तो कालभेद से प्ररूपणा कभी नहीं था ऐसा भी नहीं, और कभी नहीं है ऐसा भी नहीं, में भेद नहीं हो सकता । इसीलिए कहा जाता है कि द्वादशांगी और कभी नहीं होगा ऐसा भी नहीं। वह तो था और होगा। अनादि अनंत है। सभी तीर्थंकरों के उपदेश की एकता का वह ध्रव है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, उदाहरण शास्त्र में भी मिलता है । आचारांग सूत्र में कहा अवस्थित है और नित्य है।
. गया है कि "जो अरिहंत प्रथम हो गए । जो अभी वर्तमान में जब यह उत्तर दिया गया तो उसके पीछे यह तर्क था कि हैं और जो भविष्य में होंगे उन सभी का एक ही उपदेश है पारमार्थिक दृष्टि से देखा जाय तो सत्य एक ही है। सिद्धांत एक कि- 'किसी भी प्राण, जीव, भूत और सत्त्व की हत्या मत ही है। नाना देश, काल और पुरुष की दृष्टि से उस सत्य का करो, उनके ऊपर अपनी सत्ता मत जमाओ, उनको गुलाम मत आविर्भाव नाना प्रकार से होता है किन्तु उन' आविर्भावों में बनाओ और उनको मत सताओ, यही धर्म ध्र व है, नित्य है. - एक ही सनातन सत्य अनुस्यूत है। उस सनातन सत्य की ओर शाश्वत है और विवेकी पुरुषों ने बताया हआ है।' दष्टि दी जाय और आविर्भाव के प्रकारों की उपेक्षा की जाय किन्तु यदि व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाय कि सत्य तब यही कहना होगा कि जो भी रागद्वेष की जय करके- का आविर्भाव किस रूप में हुआ, किसने किया, कब किया
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और कैसे किया, इत्यादि, तब जैनागम सोत्पत्तिक सिद्ध होते शास्त्र की रचना निष्प्रयोजन नहीं किन्तु श्रोता के हैं और इसी दृष्टि से पौरुषेय भी। अतएव कहा गया कि- अभ्युदय और श्रेयस्कर मार्ग का प्रदर्शन कराने की दृष्टि से "तप-नियम-ज्ञानमय वृक्ष के ऊपर आरूढ़ होकर अनन्त ज्ञानी है, यह सर्वसम्मत है। शास्त्र की उपकारता या अनउपकारता केवली भगवान् भव्यजनों के विबोध के लिए ज्ञान-कुसुम की उसके शब्दों पर निर्भर नहीं किन्तु उन शास्त्र-वचन को ग्रहण । वष्टि करते हैं। गणधर अपने बुद्धि पट में उन सफल कुसुमों करने वाले की योग्यता पर भी है। यही कारण है कि एक ही को झेलकर प्रवचन-माला गूंथते हैं।"
शास्त्रवचन के नाना और परस्पर विरोधी अर्थ निकाल कर इस प्रकार जैन-आगम के विषय में पौरुषेयता और दार्शनिक लोग नाना मतवाद खड़े कर देते हैं । एक भगवद् अपौरुषेयता का सुन्दर समन्वय सहज ही सिद्ध होता है और गीता या एक ही ब्रह्मसूत्र कितने विरोधी वादों का मूल बना आचार्य श्री हेमचन्द्र का
हुआ है ? अतः श्रोता की दृष्टि से किसी एक ग्रंथ को नियमत: 'आदीपमाव्योम-समस्वभावं'
सम्यक् या मिथ्या कहना, किसी एक ग्रंथ को ही जिनागम स्याद्वादमुद्राऽनतिभेदि वस्तु
कहना भ्रमजनक होगा। यही सोचकर जिनागम के मूल यह विचार चरितार्थ होता है।
ध्येय-जीवों की मुक्ति की पूर्ति जिस किसी शास्त्र से होती
है, वे सब सम्यक हैं, वे सब आगम हैं-ऐसा व्यापक दृष्टिश्रोता और वक्ता की दृष्टि से व्याख्या
बिंदु जैनों ने स्वीकार किया है। इसके अनुसार वेदादि सब जैन-धर्म में बाह्य रूपरंग की अपेक्षा आन्तरिक रूपरंग शास्त्र जैनों को मान्य हैं। जिस जीव की श्रद्धा सम्यक है उसके को अधिक महत्व है। यही कारण है कि जैन-धर्म को सामने कोई भी ग्रंथ आ जाय वह उसका उपयोग मोक्ष-मार्ग अध्यात्मप्रधान धर्मों में उच्च स्थान प्राप्त है। किसी भी वस्तु को प्रशस्त्र बनाने में ही करेगा अतएव उसके लिए सब शास्त्र की अच्छाई की जाँच उसकी आध्यात्मिक योग्यता के नाप प्रामाणिक हैं, सम्यक हैं। किंतु जिस जीव की श्रद्धा ही विपपर ही निर्भर है। यही कारण है कि निश्चय दृष्टि से तथा- रीत है अर्थात् जिसे मुक्ति की कामना ही नहीं, जिसे संसार कथित जैनागम भी मिथ्याश्रुत में गिना जाता है, यदि उसका में ही सुख का भंडार नजर आता है उसके लिए वेदादि तो उपयोग किसी दुष्ट ने अपने दुर्गुणों की वृद्धि में किया हो क्या तथाकथित जैन-आगम भी मिथ्या हैं, अप्रमाण हैं। और वेद भी सम्यक्श्रुत में गिना जाता है, यदि किसी मुमुक्षु आगम की इस व्याख्या में सत्य का आग्रह है, साम्प्रदाने उसका उपयोग मोक्ष-मार्ग को प्रशस्त करने में किया हो। यिक कदाग्रह नहीं।। व्यावहारिक दष्टि से देखा जाय तो भगवान् महावीर के अब वक्ता की दृष्टि से जो आगम की व्याख्या की गई है उपदेश का जो सार-संग्रह हुआ है वही 'जैनागम' हैं। उसका विचार करें-व्यवहार दृष्टि से जितने शास्त्र जैना
तात्पर्य यह है कि निश्चय दष्टि से आगम की व्याख्या गमान्तर्गत हैं उनको यह व्याख्या व्याप्त करती है। अर्थात में श्रोता की प्रधानता है और व्यवहार दृष्टि से आगम की जैन लोग वेदादि से पृथक ऐसा जो अपना प्रामाणिक शास्त्र ब्याख्या में वक्ता की प्रधानता है।
मानते हैं वे सभी लक्ष्यान्तर्गत हैं। शब्द तो निर्जीव हैं और सभी सांकेतिक अर्थ के प्रति- आगम की सामान्य व्याख्या तो इतनी ही है कि 'आप्त पादन की योग्यता रखने के कारण सर्वार्थक भी। ऐसी स्थिति का कथन आगम है। जैनसम्मत आप्त कौन हैं, इसकी में निश्चय दृष्टि से देखा जाय तो शब्द का प्रामाण्य या व्याख्या में कहा गया है कि-जिसने राग और द्वेष को जीत अप्रामाण्य स्वतः नहीं किन्तु उस शब्द के प्रयोक्ता के गुण या लिया है, ऐसे तीर्थंकर-जिन-सर्वज्ञ भगवान आप्त हैं अर्थात दोष के कारण शब्द में प्रामाण्य या अप्रामाण्य होता है। जिनोपदेश ही जैनागम है। उसमें वक्ता के साक्षात दर्शन इतना ही नहीं किन्तु श्रोता या पाठक के गुण-दोष के कारण और वीतरागता के कारण दोष की संभावना नहीं, पूर्वापर भी प्रामाण्य या अप्रामाण्य का निर्णय करना होगा। अत- विरोध नहीं और युक्तिबाध भी नहीं। अतएव मुख्यरूप से एव यह आवश्यक हो जाता है कि वक्ता और श्रोता-दोनों की जिनों का उपदेश-जैनागम प्रमाण माना जाता है और गौण दष्टि से आगम का विचार किया जाय। जैनों ने इन दोनों रूप से तदनुसारी कुछ शास्त्र । दष्टियों से जो विचार किया है उसे यहाँ दिया जाता है :-- प्रश्न होता है कि, जैनागम के नाम से 'द्वादशांगी' आदि
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शास्त्र प्रसिद्ध हैं, क्या वे जिनों का साक्षात् उपदेश हैं ? अर्थात् लिए हैं। इनका प्रामाण्य स्वतंत्रभाव से नहीं किन्तु गणधरक्या जिनों ने उनको ग्रंथबद्ध किया था ?
प्रणीत आगम के साथ अविसंवाद-प्रयुक्त है। इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले इतना स्पष्टीकरण संपूर्ण श्रतज्ञान जिसने हस्तगत किया हो उसका केवली आवश्यक है कि अभी उपलब्ध जो आगम हैं वे स्वयं गणधर- के वचन के साथ विरोध न होने में एक यह भी दलील दी ग्रथित आगमों की संकलना है। यहाँ जैनों की तात्त्विक जाती है कि सभी पदार्थ तो वचनगोचर होने की योग्यता मान्यता क्या है उसी को दिखाकर उपलब्ध जैनागम के विषय नहीं रखते । संपूर्ण ज्ञेय का कुछ अंश ही तीर्थंकर के वचन में आगे विशेष विचार किया जायगा।
का गोचर हो सकता है। उन वचन रूप द्रव्यागम श्रुतज्ञान जैन अनुश्रुति उक्त प्रश्नका उत्तर इस प्रकार देती है- को जो संपूर्ण हस्तगत कर लेता है वही तो 'श्रुतकेवली' होता जिन भगवान उपदेश देकर-तत्त्व और आचार के मूल ।
है अतएव जिस बात को तीर्थकर ने कही थी उसको श्रुतकेवली सिद्धान्त का निर्देश करके कृतकृत्य हो जाते हैं। उन उपदेश भी कह सकता है । इस दृष्टि से केवली और श्रतकेवली में को जैसा कि पूर्वोक्त रूपक में बताया गया है, गणधर या
कोई अन्तर न होने के कारण दोनों का प्रामाण्य समान रूप विशिष्ट प्रकार के साधक ग्रंथ रूप देते हैं। फलितार्थ यह है कि 'ग्रन्थबद्ध उपदेश का जो तात्पर्यार्थ है उसके प्रणेता जिन
कालक्रम से वीरनिर्वाण १७० वर्ष के बाद, मतान्तर से वीतराग-तीर्थकर हैं किन्तु जिस रूप में वह उपदेश ग्रन्थबद्ध
१६२ वर्ष के बाद, जैन संघ में उक्त श्रुतकेवली का भी अभाव या सूत्रबद्ध हुआ उस शब्द रूप के प्रणेता गणधर ही हैं।
हो गया और सिर्फ दशपूर्वधर ही रह गये तब उनकी विशेष जैनागम तीर्थंकर-प्रणीत" कहा जाता है इसका मतलब यह
योग्यता को ध्यान में रखकर जैन संघ ने दशपूर्वधर-ग्रथित
ग्रंथों को भी आगम में समाविष्ट कर लिया। इन ग्रंथों का भी कि ग्रन्थार्थ-प्रणेता वे थे, सूत्रकार नहीं।
प्रामाण्य स्वतंत्र भाव से नहीं किन्तु गणधर-प्रणीत आगम के पूर्वोक्त विवरण से स्पष्ट है कि सूत्र या ग्रंथ रूप में
साथ अविरोध प्रयुक्त है। उपस्थित गणधरप्रणीत जैनागम का प्रामाण्य गणधरकृत होने
जैनों की मान्यता है कि चतुर्दशपूर्वधर वे ही साधक हो मात्र से नहीं किन्तु उसके अर्थ के प्रणेता तीर्थकर की वीत
सकते हैं जिनमें नियमतः सम्यग्दर्शन होता है-(बृहत्-१३२) रागता और र्वार्थसाक्षात्कारिता के कारण ही हैं।
अतएव उनके ग्रंथों में आगम-विरोधी बातों की संभावना ही जैनथति के अनुसार तीर्थकर के समान अन्य प्रत्येक
नहीं। यही कारण है कि उनके ग्रंथ भी कालक्रम से आगमबुद्धोक्त आगम भी प्रमाण हैं।
अन्तर्गत कर लिए गये हैं। जैन परंपरा के अनुसार सिर्फ द्वादशांगी आगमान्तर्गत
आगे चलकर ऐसे कई आदेश जिनका समर्थन किसी नहीं क्योंकि गणधर-कृत द्वादशांगी के अतिरिक्त अंगबाह्य ।
त अगबाह्य शास्त्र से नहीं होता है किन्तु जो स्थविरों ने अपनी प्रतिभा रूप अन्यशास्त्र भी आगमरूप से मान्य हैं और वे गणधरकृत
के बल से किसी विषय में दी हुई सम्मति मात्र है-उनका नहीं क्योंकि गणधर सिर्फ द्वादशांगी की ही रचना करते हैं,
समावेश भी अंगबाह्य आगम में कर लिया गया है। इतना ही ऐसी अनुश्रुति है। अंगबाह्य रूप से प्रसिद्ध शास्त्र की रचना
- नहीं, कुछ मुक्तकों को भी उसी में स्थान प्राप्त है।६ अन्य स्थविर करते हैं।
___ आदेश और मुक्तक आगमान्तर्गत हैं कि नहीं ! इसके ऐसे स्थविर दो प्रकार के होते हैं-संपूर्ण श्रुतज्ञानी और विषय में दिगम्बर परम्परा मौन है किन्तु गणधर, प्रत्येकबुद्ध, दशपूर्वी संपूर्णश्रुतज्ञानी अर्थात् चतुर्दशपूर्वी या श्रुतकेवली चतुर्दशपूर्वी और दशपूर्वी-ग्रथित सभी शास्त्र आगमान्तर्गत गणधरप्रणीत संपूर्ण द्वादशांगी रूप जिनागम के सूत्र और हैं इस विषय में दोनों का ऐकमत्य है। अर्थ के विषय में विशेषतः निपुण होते हैं । अतएव उनकी ऐसी इस चर्चा से यह तो स्पष्ट ही है कि पारमार्थिक दष्टि योग्यता मान्य है कि वे जो कुछ कहेंगे या लिखेंगे, उनका से सत्य का आविर्भाव निर्जीव शब्द में नहीं किन्तु सजीव जिनागम के साथ कुछ भी विरोध नहीं हो सकता। जिनोक्त आत्मा में होता है अतएव किसी पुस्तक के पन्ने का महत्त्व विषयों का संक्षेप या विस्तार करके तत्कालीन समाज के तब तक ही है जब तक वह आत्मोन्नति का साधन बन सके। अनुकूल ग्रन्थ-रचना करना ही उनका प्रयोजन होता है। इस दृष्टि से संसार का समस्त साहित्य जैनों का उपादेय हो अतएव ऐसे ग्रंथों को सहज ही में संघ ने जिनागमान्तर्गत कर सकता है क्योंकि योग्य और विवेकी आत्मा के लिए अपने
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काम की चीज कहीं से भी खोज लेना आसान है। किन्तु रूप आज हमारे पास नहीं। उसकी भाषा में वह प्राकृत होने अविवेकी और अयोग्य के लिए यही मार्ग खतरे से खाली के कारण परिवर्तन होना स्वाभाविक ही है अतः ब्राह्मणों की नहीं। इसलिए जैन ऋषियों ने विश्व-साहित्य में से चुने हुए तरह जैनाचार्य और उपाध्याय-अंग ग्रंथों की अक्षरशः सुरक्षा अंश को ही जैनों के लिए व्यवहार में उपादेय बताया है और नहीं कर सके हैं। इतना ही नहीं किन्तु कई संपूर्ण गंथों को . उसी को जैनागम में स्थान प्राप्त है।
भूल चुके हैं और कई ग्रंथों की अवस्था विकृत कर दी है। चुनाव का मूल सिद्धान्त यह है कि उसी विषय का उप- फिर भी इतना अवश्य कहा जा सवता है कि अंगों का अधिदेश उपादेय हो सकता है जिसे वक्ता ने यथार्थ रूप में देखा कांश जो आज उपलब्ध है वह भगवान् के उपदेश से अधिक हो, इतना ही नहीं किन्तु यथार्थ रूप में कहा भी हो। ऐसी निकट है। उसमें परिवर्तन और परिवर्धन हुआ है किन्तु कोई भी बात प्रमाण नहीं मानी जा सकती जिसका मूल समूची नया ही मन-गढन्त है, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता। उपर्यक्त उपदेश में न हो या जो उससे विसंगत हो।
क्योंकि जैन संघ ने उस संपूर्ण श्रत को बचाने का बार-बार जो यथार्थदर्शी नहीं है किन्तु यथार्थ श्रोता (श्रुतकेवली- जो प्रयत्न किया है उसका साक्षी जो इतिहास है उसे मिटाया दशपूर्वी) हैं उनकी भी यही बात प्रमाण मानी जाती है जो नहीं जा सकता। उन्होंने यथार्थदर्शी से साक्षात् या परंपरा से सुनी है, अश्रत भूतकाल में जो बाधाएँ जैनश्रुत के नाश में कारण हुई, कहने का उनका अधिकार नहीं । तात्यर्य इतना ही है कि क्या वे वेद का नाश नहीं कर सकती थीं? क्या कारण है कि कोई भी बात तभी प्रमाण मानी जाती है, यदि उसका यथार्थ जैनश्रुत से भी प्राचीन वेद तो सुरक्षित रह सका और जैनअनुभव-यथार्थ दर्शन किसी न किसी को हुआ हो। आगम श्रुत संपूर्ण नहीं तो अधिकांश नष्ट हो गया? इन प्रश्नों का वही प्रमाण जो प्रत्यक्षमूलक है। आगमप्रामाण्य के इस सिद्धांत उत्तर सहज ही है। के अनुसार पूर्वोक्त आदेश आगमान्तर्गत नहीं हो सकते।
वेद की सुरक्षा में दोनों प्रकार की वंशपरंपराओं ने सहदिगंबरों ने तो अमुक समय के बाद तीर्थंकरप्रणीत आगम कार दिया है। जन्मवंश की अपेक्षा पिता को और उसने अपने का सर्वथा लोप ही माना इसलिए आदेशों को आगमान्तर्गत पुत्र को तथा विद्यावंश की अपेक्षा गुरु ने शिष्य को और उसने करने की उनकी आवश्यकता ही नहीं हुई किन्तु श्वेताम्बरों अपने शिष्य को वेद सिखाकर वेदपाठ की परंपरा अव्यवहित ने आगमों का संकलन करके यथाशक्य सुरक्षित रखने का गति से चाल रखी है किन्तु जैनागम की रक्षा में जन्मवंश को प्रयत्न किया तब प्रतीत होता है कि ऐसी बहुत-सी बातें उन्हें कोई स्थान नहीं। पिता अपने पुत्र को नहीं किन्तु अपने शिष्य मालूम हुई जो पूर्वाचार्यों से श्रुतिपरम्परा से आई हई तो थीं को ही पढ़ाता है । अतएव केवल विद्यावंश की अपेक्षा से ही किन्तु जिनका मूलाधार तीर्थंकरों के उपदेशों में नहीं था, जैनश्रुत की परम्परा को जीवित रखने का प्रयत्न किया गया ऐसी बातों को भी सुरक्षा की दृष्टि से आगम में स्थान दिया है। जैनश्रुत कीयही कमी अव्यवस्था में कारण हुई है। ब्राह्मणों गया और उन्हें आदेश और मुक्तक कह करके उनका अन्य को अपना सुशिक्षित पुत्र और वैसा ही सुशिक्षित ब्राह्मण प्रकार के आगम से पार्थक्य भी सूचित किया।
शिष्य प्राप्त होने में कोई कठिनाई नहीं किन्तु जैनथमण के
लिए अपना सुशिक्षित पुत्र जैनथ्रतका अधिकारी नहीं यदि वह (२) सुरक्षा में बाधाएँ
श्रमण नहीं, और अशिक्षितभी श्रमण, पुत्र न होने पर भी यदि __ ऋग्वेदादि वेदों की सुरक्षा भारतीयों का अद्भुत परा- शिष्य हो तो वही श्रुत का अधिकारी हो जाता है । वेद की क्रम है। आज भी भारतवर्ष में ऐसे सैकड़ों ब्राह्मण वेदपाठी सुरक्षा एक वर्ण-विशेष से हुई है जिसका स्वार्थ उसकी सुरक्षा मिलेंगे जो आदि से अंत तक वेदों का शुद्ध उच्चारण कर में ही था। जैनश्रुत की रक्षा वैसे किसी वर्ण-विशेष के अधीन सकते हैं। उनको वेद-पुस्तक की आवश्यकता नहीं। वेद के नहीं किन्तु चतुर्वर्ण में से कोई भी मनुष्य यदि जैनश्रमण हो अर्थ की परंपरा उनके पास नहीं किन्तु वेदपाठ की परंपरा जाता है तो वही जैनश्रुत का अधिकारी हो जाता है । वेद का तो अवश्य है।
अधिकारी ब्राह्मण अधिकार पाकर उससे बरी नहीं हो सकता जैनों ने भी अपने आगम-ग्रंथों को सुरक्षित रखने का अर्थात् उसके लिए जीवन की प्रथमावस्था में नियमतः वेदावैसा ही प्रबल प्रयत्न भूतकाल में किया है किन्तु जिस रूप ध्ययन आवश्यक था अन्यथा ब्राह्मण-समाज में उसका कोई में भगवान् के उपदेश को गणधरों ने ग्रथित किया था वह स्थान नहीं था। इसके विपरीत जैन-श्रमण को जैनश्रुत का
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अधिकार मिल जाता है किन्तु कई कारणों से वह उस अधि - कार के उपयोग में असमर्थ ही रहता है। ब्राह्मण के लिए वेदाध्ययन सर्वस्व था किन्तु जैन श्रमण के लिए आचारसदाचार ही सर्वस्व है। अतएव कोई मन्दबुद्धि शिष्य संपूर्ण श्रुत का पाठ न भी कर सके तब भी उसके मोक्ष में किसी भी प्रकार की रुकावट नहीं थी और ऐहिक जीवन भी निर्वाध रूप से सदाचार के बल से व्यतीत हो सकता था । जैन सूत्रों का दैनिक क्रियाओं में विशेष उपयोग भी नहीं एक सामायिक पद मात्रा से भी मोक्ष मार्ग सुगम हो जाने की शक्यता हो वहाँ विरले ही संपूर्ण श्रुतधर होने का प्रयत्न करें तो क्या आश्चर्य ? अधिकांश वैदिक सूक्तों का उपयोग अनेक प्रकार के क्रियाकाण्डों में होता है तब कुछ ही जैनसूत्रों का उपयोग श्रमण के लिए अपने दैनिक जीवन में है । शुद्ध ज्ञान-विज्ञान का रस हो तो जैनागम -समुद्र में मग्न होने की संभावना है अन्यथा आगम का अधिकांश बिना जाने ही श्रमणजीवन का रस मिल सकता है | अपनी स्मृति पर बोझ न बढ़ाकर पुस्तकों में जैनागमों को लिपिवद्ध करके भी जैन श्रमण आगमों को बचा सकते थे किन्तु ऐसा करने में अपरिग्रहव्रत का भंग असह्य था । उसमें उन्होंने असंयम देखा । " जब उन्होंने अपने अपरिग्रहव्रत को कुछ शिथिल किया तब वे आगमों का अधिकांश भूल चुके थे। पहले जिस पुस्तक-परिग्रह को असंयम का कारण समझा था उसीको संयम का कारण मानने लगे । " क्योंकि ऐसा न करते तो श्रुतविनाश का भय था । किन्तु अब क्या हो सकता था ! जो कुछ उन्होंने खोया वह तो मिल ही नहीं सकता था। लाभ इतना अवश्य हुआ कि जब से उन्होंने पुस्तक-परिग्रह को संयम का कारण माना, जो कुछ आगमिक संपत्ति उस समय थी, सुरक्षित रह गई । अधिक हानि नहीं हुई । आचार के नियमों को श्रुत की सुरक्षा की दृष्टि से शिथिल कर दिया गया । श्रुतरक्षा के लिए कई अपवादों की सृष्टि भी की गई। दैनिक आचार में भी श्रुतस्वाध्याय को अधिक महत्व दिया गया इतना करके भी जो मौलिक कमी थी उसका निवारण तो हुआ ही नहीं, क्योंकि गुरु अपने श्रमण शिष्य को ही ज्ञान दे सकता है, इस नियम का तो अपवाद हुआ ही नहीं । अतएव अध्येता श्रमणों के अभाव में गुरु के साथ ही ज्ञान चला जाय तो उसमें आश्चर्य क्या ? कई कारणों से, खासकर जैनश्रमण की कठोर तपस्या और अत्यन्त कठिन आचार के कारण अन्य बौद्धादि श्रमणसंघों की तरह जैन श्रमण संघ का संख्याबल शुरू से ही कम रहा है। ऐसी स्थिति में कण्ठस्थ की तो क्या, वल्लभी में लिखित सकल ग्रंथों की भी सुरक्षा न हो सके तो इसमें आश्चर्य क्या है ?
( ३ ) वाचनाएं
(अ) पाटलिपुत्र की प्रथम वाचना
बौद्ध इतिहास में भगवान बुद्ध के उपदेश को व्यस्थित करने के लिए भिक्षुओं ने कालक्रम से तीन संगितियां की थीं, यह प्रसिद्ध है । उसी प्रकार भगवान् महावीर के उपदेश को भी व्यवस्थित करने के लिए जैन आचार्यों ने भी मिलकर
तीन वाचनाएँ की हैं। जब-जब आचार्यों ने देखा कि श्रुत का ह्रास हो रहा है, उसमें अव्यवस्था हो गई है तब तब जैनाचार्यों ने एकत्र होकर जैनश्रुत को व्यवस्थित किया है।
"भगवान् महावीर के निर्वाण से करीब १६० वर्ष बाद पाटलिपुत्र में लम्बे समय के बाद जैन श्रमण संघ एकत्रित हुआ। उन दिनों मध्यप्रदेश में अनावृष्टि के कारण जैनश्रमण तितर-बितर हो गए थे अतएव अंगणास्त्र की दुरवस्था होना स्वाभाविक ही है। एकत्रित हुए श्रमणों ने एक-दूसरे से पूछ-पूछकर ११ अंगों को व्यवस्थित किया किन्तु देखा गया कि उनमें से किसी को भी संपूर्ण दृष्टिवाद का पता न था। उस समय दृष्टिवाद के ज्ञाता आचार्य भद्रबाहु ये किंतु उन्होंने १२ वर्ष के लिए विशेष प्रकार के योगमार्ग का अवलंबन किया था और वे नेपाल में थे । अतएव संघ ने स्थूलभद्र को कई साधुओं के साथ दृष्टिवाद की वाचना लेने के लिए भद्रबाहु के पास भेजे। उनमें से दृष्टिवाद को प्रण करने में सिर्फ स्थूलभद्र ही समर्थ सिद्ध हुए । उन्होंने दशपूर्व सीखने के बाद अपनी श्रुतलब्धि ऋद्धि का प्रयोग किया। इसका पता जब भद्रबाहु को चला तब उन्होंने आगे अध्यापन करना छोड़ दिया । स्थूलभद्र के बहुत कुछ समझाने पर वे राजी हुए किंतु स्थूलभद्र को कहा कि शेष चार पूर्वकी अनुशा मैं तुम्हें नहीं देता । तुमको मैं शेष चार पूर्व की सूत्र वाचना देता हूँ किंतु तुम इसे दूसरों को नहीं पढ़ाना
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परिणाम यह हुआ कि स्थूलभद्र तक चतुर्दशपूर्व का ज्ञान श्रमण संघ में रहा। उनकी मृत्यु के बाद १२ अंगों में से ११ अंग और दश पूर्व का ही ज्ञान शेष रह गया । स्थूलभद्र की मृत्यु" वीरनिर्वाण के २१५ वर्ष बाद ( मतान्तर से २२६ ) हुई ।
वस्तुतः देखा जाय तो स्थूलभद्र भी श्रुतकेवली न थे क्योंकि उन्होंने दशपूर्व तो सूत्रतः और अर्थतः पढ़े थे किंतु शेष चार पूर्व मात्र सूत्रतः पढ़े थे । अर्थ का ज्ञान भद्रबाहु ने उन्हें नहीं दिया था।
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जयसन
२१"
सुधर्मा४
४४ "
२३ "
१४ "डिया
अतएव श्वेताम्बरों के मत से यही कहना होगा कि क्षत्रिय १७ वर्ष सुहस्तिन् ४६ वर्ष भद्रबाह की मृत्यु के साथ ही अर्थात् वीरात १७० वर्ष के बाद
गुणसुन्दर ४४ श्रतकेवली का लोप हो गया। उसके बाद संपूर्ण श्रुत का ज्ञाता नागसेन १८” कालक (प्रज्ञापनाकर्ता) ४१" कोई नहीं हुआ। दिगम्बरों ने श्रुतकेवली का लोप १६२ वर्ष सिद्धार्थ
स्कंदिल (सांडिल्य) ३८ बाद माना है। दोनों की मान्यताओं में सिर्फ ७ वर्ष का
घृतिषण
रेवती मित्र अंतर है। आचार्य भद्रबाहु तक की दोनों की परंपरा इस विजय
आर्य मंग प्रकार है
बुद्धिलिंग
आर्य धर्म दिगम्बर
श्वेताम्बर२३ देव
भद्रगुप्त केवली-गौतम १२ वर्ष ।
२० वर्ष - धर्मसेन
श्रीगुप्त सुधर्मा १२" जम्बू
आर्य वज्र जम्बू
१८३ वर्ष
४१४ वर्ष श्रुतकेवली-विष्णु १४" प्रभव
+१६२३४५ +१७०५८४ नन्दिमित्र १६ शय्यंभव
आर्य वज्र के बाद आर्य रक्षित हुए। वे १३ वर्ष पर्यन्त अपराजित २२ यशोभद्र
युग-प्रधान रहे। उन्होंने भविष्य में मति-मेधा-धारणादि से गोवर्धन
संभूतिविजय " रहित ऐसे शिष्यों को जान करके अनुयोगों का विभाग कर भद्रबाहु २६" भद्रबाहु
दिया। अभी तक किसी एक सूत्र की व्याख्या चारों प्रकार १६२ वर्ष
१०० वर्ष के अनुयोगों से होती थी। उसके स्थान में उन्होंने विभाग कर सारांश यह है कि गणधरग्रथित १२ अंगों में से प्रथम दिया कि अमुक सूत्र की व्याख्या सिर्फ एक ही अनुयोग-परक वाचन के समय चार पूर्व न्यून १२ अंग श्रमणसंघ के हाथ
की जायगी । जैसे, चरणकरणानुयोग में कालिक श्रुत ग्यारह लगे क्योंकि स्थूलभद्र यद्यपि सूत्रतः संपूर्णश्रुत के ज्ञाता थे अंग, महाकल्पश्रुत और छेद सूत्रों का समावेश किया: धर्मकिंतु उन्हें चार पूर्व की वाचना दूसरों के देने का अधिकार कथानुयोग में ऋषिभाषितों का; गणितानयोग में सर्यनहीं था। अतएव तब से संघ में श्रुतकेवली नहीं किंतु दशपर्वी प्रज्ञप्ति का, और दृष्टिवाद का द्रव्यानयोग में समावेश कर हए और अंगों में से इतने ही श्रुत की सुरक्षा का प्रश्न था। दिया।"
जब तक इस प्रकार के अनुयोगों का विभाग नहीं था तब अनुयोगपृथक्करण और पूर्वो का विच्छेद
तक आचार्यों के लिए प्रत्येक सूत्रों में विस्तार से नयावतार श्वेताम्बरों के मत से दशपूर्वीओं की परंपरा का अंत करना भी आवश्यक था किंतु जब से अनुयोगों का पार्थक्य आचार्य वज्र के साथ हुआ । आचार्य वज्र को मृत्यु विक्रम किया गया तब से नयावतार भी अनावश्यक हो गया।८ ११४ में हुई अर्थात् वीरात् ५८४। इसके विपरीत दिगम्बरों आर्यरक्षित के बाद श्रुत का पठन-पाठन पूर्ववत नहीं की मान्यता के अनुसार अंतिम दशपूर्वी धर्मसेन हुए और चला होगा और उसमें पर्याप्त मात्रा में शिथिलता हुई होगी वीरात् ३४५ के बाद दशपूर्वी का विच्छेद हुआ अर्थात् यह उक्त बात से स्पष्ट है । अतएव श्रुत में उत्तरोत्तर ह्रास श्रतकेवली का विच्छेद दिगम्बरों ने श्वेताम्बरों से आठ वर्ष होना भी स्वाभाविक है। स्वयं आर्य रक्षित के लिए भी कहा पर्व माना और दशपूर्वी का विच्छेद २३६ वर्ष पूर्व माना। गया है कि वे संपूर्ण नवपूर्व और दशम पूर्व के २४ यविक मात्र तात्पर्य यह है कि श्रुत-विच्छेद की गति दिगम्बरों के मत से के अभ्यासी थे। अधिक तेज है।
आर्य रहित भी अपने सभी शिष्यों को यावत् ज्ञात श्रुत श्वेताम्बरों और दिगम्बरों के मत से दशपूर्वधरों की देने में असमर्थ ही हुए। उनकी कथा में कहा गया है कि उनके सूची इस प्रकार है :
शिष्यों में से सिर्फ दुर्बलिका पुष्पमित्र ही संपूर्ण नवपूर्व पढ़ने में दिगंबर५
श्वेतांबर२६ समर्थ हुआ किन्तु वह भी उसके अभ्यास के न कर सकने के विशाखाचार्य १० वर्ष स्थूलभद्र ४५ वर्ष कारण नवम पूर्व को भूल गया। उत्तरोत्तर पूर्वो के विशेषप्रोष्ठिल
महागिरि ३०" पाठियों का ह्रास होकर एक समय ऐसा आया जब पूर्वो का
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विशेषज्ञ कोई न रहा। यह स्थिति वीर निर्वाण के एक हजार श्रमणसमवसरण में दोनों वाचनाओं के सिद्धांतों का परस्पर वर्ष बाद हुई। किन्तु दिगम्बरों के कथनानुसार वीर निर्वाण समन्वय किया गया और जहाँ तक हो सका भेदभाव मिटाकर सं०६६८ के बाद हुई।
उन्हें एकरूप कर दिया । और जो महत्त्वपूर्ण भेद थे उन्हें
पाठान्तर के रूप में टीका-णिओं में संग्रहीत किया। (ब) माथुरी वाचना
कितनेक प्रकीर्णक ग्रन्थ जो केवल एक ही वाचना में थे वैसे-केनन्दी सूत्र की चूणि में उल्लेख है कि द्वादशवर्षीय दुप्काल वैसे प्रमाण माने गये।" के कारण ग्रहण-गुणन-अनुप्रेक्षा के अभाव में सूत्र नष्ट हो यही कारण है कि मूल और टीका में हम 'वायणंतरे गया। आर्य स्कंदिल के सभापतित्व में बारह वर्ष के दुष्काल पूण' या 'नागार्जुनीयास्तु पठन्ति' जैसे उल्लेख पाते हैं । ३५ के बाद साधसंघ मथुरा में एकत्र हुआ और जिसको जो याद यह कार्य वीरनिर्वाण सं० १६० में हुआ और वाचनान्तर था उसके आधार पर कालिकश्रुत को व्यवस्थित कर लिया के अनुसार ६६३ में हआ। वर्तमान में जो आगम ग्रंथ उपलब्ध गया। क्योंकि यह 'वाचना' मयुरा में हुई अतएव यह 'माथुरी हैं उनका अधिकांश इसी समय में स्थिर हुआ था। वाचना' कहलाई । कुछ लोगों का कहना है कि सूत्र तो नष्ट नन्दी सत्र में जो सूची है उसे ही यदि वलभी में नहीं हुआ किंतु प्रधान अनुयोगधरों का अभाव हो गया । सिर्फ पुस्तकारूढ सभी आगमों की सूची मानी जाय तब कहना स्कंदिल आचार्य ही बचे थे जो अनुयोगधर थे। उन्होंने होगा कि कई आगम उक्त लेखन के बाद भी नष्ट हुए हैं । क्योंकि मथुरा में अन्य साधुओं को अनुयोग दिया अतएव खास करके प्रकीर्णक तो अनेक नष्ट हो गये हैं। सिर्फ वीरमाथरी वाचना कहलाई।।
स्तव' नामक एक प्रकीर्णक और पिण्डनियुक्ति ऐसे हैं जो इससे इतना तो स्पष्ट है कि दुबारा भी दुष्काल के कारण नन्दीसूत्र में उल्लिखित नहीं हैं किन्तु श्वेताम्बरों का आगमश्रुत की दुरवस्था हो गई थी। इस बार की संकलना का श्रेय रूप से मान्य हैं। आचार्य स्कंदिल को है । मुनि श्री कल्याणविजयजी ने आचार्य स्कंदिल का यगप्रधानत्व-काल वीर निर्वाण संवत ८२७ से (४) पूवा के आधार से बने ग्रन्थ ८४० तक माना है। अतएव यह वाचना इसी बीच हुई दिगम्बर अऔर श्वेताम्बर दोनों के मत से पूर्वो का होगी। इस वाचना के फलस्वरूप आगम लिखे भी गये। विच्छेद हो गया है किन्तु पूर्वगत श्रुत का विषय सर्वथा लुप्त
हो गया हो यह बात नहीं क्योंकि दोनों संप्रदायों में कुछ ऐसे (क) वालभी वाचना
ग्रन्थ और प्रकरण मौजूद हैं जिनका आधार पूर्वो को बताया ___ जब मथुरा में वाचना हुई थी उसी काल में वलभी में जाता है । दिगम्बर आचार्यों ने 'पूर्व' के आधार पर ही षटभी नागार्जुन सूरि ने श्रमणसंघ को एकत्र करके आगमों को खण्डागम और कषायप्राभृत की रचना की है यह बताया व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया था। और वाचक नागार्जुन जायगा । इस विषय में श्वेताम्बर मान्यता का वर्णन किया और एकत्रित संघ को जो-जो आगम और उनके अनुयोगों के जाता है। उपरांत प्रकरण ग्रन्थ याद थे वे लिख लिये गये और विस्तृत श्वेताम्बरों के मत से दष्टिवाद में ही संपूर्ण वाङमय का स्थलों को पूर्वापर संबंध के अनुसार ठीक करके उसके अनुसार अवतार होता है किन्तु दुर्बलमति पुरुष और स्त्रियों के लिये वाचना दी गई।३३ इसमें प्रमुख नागार्जुन थे अतएव इस ही दृष्टिवाद के विषय को लेकर ही शेष ग्रन्थों की सरल वाचना को'नागार्जुनीय वाचना' भी कहते हैं ।
रचना होती है । इसी मत को मान करके यह कहा जाता है
कि गणधर सर्व प्रथम पूर्वो की रचना करते हैं और उन्हीं देवधिगणि का पुस्तकलेखन
पूर्वो के आधार से शेष अंगों की रचना करते हैं । "उपर्युक्त वाचनाओं के संपन्न हुए करीब देढ़ सौ वर्ष से यह मत ठीक प्रतीत होता है किन्तु इसका तात्पर्य इतना अधिक समय व्यतीत हो चका था, उस समय फिर वलभी ही समझना चाहिए कि वर्तमान आचारांगादि से पहले जो नगर में देवधिगणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में श्रमणसंघ शास्त्रज्ञान श्रुतरूप में विद्यमान था वही पूर्व के नाम से प्रसिद्ध इकट्ठा हआ और पूर्वोक्त दोनों वाचनाओं के समय लिखे हुआ और उसी के आधार पर भगवान् महावीर के उपदेशों गये सिद्धान्तों के उपरांत जो जो ग्रन्थ, प्रकरण, मौजूद थे को ध्यान में रख कर द्वादशांग की रचना हई और उन पूर्वो उन सब को लिखाकर सुरक्षित करने का निश्चय किया। इस को भी बारहवें अंग के एक देश में प्रविष्ट कर दिया गया।
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पूर्व के ही आधार पर जब सरल रीति से ग्रन्थ बने तब पूर्वो तीनों सम्प्रदायों के मतसे अन्तिम अंग दृष्टिवाद का के अध्ययन-अध्यापन की रुचि कम होना स्वाभाविक है और सर्वप्रथम लोप हो गया है। यही कारण है कि सर्वप्रथम विच्छेद भी उसी का हुआ। दिगम्बर मत से श्रत का विच्छेद
यह तो एक सामान्य सिद्धान्त हुआ। किन्तु कुछ ग्रन्थों दिगम्बरों का कहना है कि वीरनिर्वाण के बाद श्रुत का और प्रकरणों के विषय में तो यह स्पष्ट निर्देश है कि उनकी क्रमशः 'हास होते होते ६८३ वर्ष के बाद कोई अंगधर यारचना अमुक पूर्व से की गई है। यहाँ हम उनकी सूची देते पूर्वधर आचार्य रहा ही नहीं । अंग और पूर्व के अंशमात्र के हैं--जिससे पता चल जायगा कि सिर्फ दिगम्बर मान्य ज्ञाता आचार्य हुए। अंग और पूर्व के अंशधर आचार्यों की षट्खण्डागम और कषायप्राभूत ही ऐसे ग्रन्थ नहीं जिनकी परंपरा में होनेवाले पुष्पदंत और भूतबलि आचार्यों ने षट्रचना पूर्वो के आधार से की गई है किन्तु श्वेताम्बरों के खण्डागम की रचना दूसरे अग्रायणीय पूर्व के अंश के आधार आगमरूप से उपलब्ध ऐसे अनेक ग्रन्थ और प्रकरण हैं जिनका से की और आचार्य गणधर ने पांचवें पर्व ज्ञान प्रवाद के अंश आधार 'पूर्व' ही है।
के आधार से कषायपाहड की रचना की। इन दोनों ग्रंथों को १. महाकल्प श्रुत नामक आचारांग के निशीथाध्ययन दिगम्बर आन्नाय में आगम का स्थान प्राप्त है। उसके की रचना, प्रत्याख्यान पूर्व के तृतीय आचार वस्तु के बीसवें
मतानुसार अंग-आगम लुप्त हो गये हैं। पाहुड से हुई है।३८
दिगम्बरों के मत से वीर निर्वाण के बाद जिस क्रम से २. दशवकालिक सूत्र के धर्मप्रज्ञप्ति अध्ययनकी आत्म- श्रत का लोप हआ वह नीचे दिया जाता हैप्रवाद पूर्व से, पिण्डैषणाध्ययनकी कर्मप्रवाद पूर्व से, वाक्य
३. केवली-गौतमादि पूर्वोक्त- ६२ वर्ष शुद्धि अध्ययन की सत्यप्रवाद पूर्व से और शेष अध्ययनों की
५. श्रुतकेवली-विष्णु-आदि पूर्वोक्त- १०० वर्ष रचना नवम प्रत्याख्यान पूर्व के ततीय वस्तु से हुई है। इसके
११. दशपूर्वी--विशाखाचार्यादि पूर्वोक्त- १८३ वर्ष रचयिता शय्यंभव है।
५. एकादशांगधारी
नक्षत्र ३. आचार्य भद्रबाह ने दशाश्रतस्कंध,कल्प और व्यवहार
जसपाल सूत्र की रचना प्रत्याख्यान पूर्व से की है।
(जयपाल) ४. उत्तराध्ययन का परीषहाध्ययन कर्मवाद पूर्व से
पाण्डु
२२० वर्ष उद्धृत है।
ध्रुवसेन
कंसाचार्य इनके अलावा आगमेतर साहित्य में खास कर कर्म
४. आचारांगधारीसाहित्य का अधिकांश पूर्वोद्धत है किन्तु यहाँ अप्रस्तुत होने से
सुभद्र
यशोभद्र उनकी चर्चा नहीं की जाती है।
११८ वर्ष
यशोबाहु (५) जैनागमों की सूची
लोहाचार्य १२ अंग
दिगम्बरों के अंगबाह्य ग्रन्थ अब यह देखा जाय कि जैनों के द्वारा कौन-कौन से ग्रन्थ उक्त अंग के अतिरिक्त १४ अंगबाह्य आगमों की रचना वर्तमान में व्यवहार में आगमरूप से माने गये हैं ?
भी स्थविरों ने की थी, ऐसा मानते हुए भी दिगम्बरों का जैनों के तीनों सम्प्रदायों में इस विषय में तो विवाद है कहना है कि उन अंगबाह्यागम का भी लोप हो गया है। उन ही नहीं कि सकल श्रुत का मूलाधार ग्रथित 'द्वादशांग' है। चौदह अंगबाह्य आगमों के नाम इस प्रकार हैंतीनों सम्प्रदाय में बारह अंगों के नाम के विषय में भी प्रायः १ सामायिक २ चतुर्विशतिस्तव ३ वंदना ४ प्रतिऐकमत्य है । वे बारह अंग ये हैं
क्रमण ५ वैनयिक ६ कृतिक्रम ७ दशवकालिक ८ उत्तरा१ आचार, २ सूत्रकृत, ३ स्थान, ४ समवाय, ५ व्याख्या- ध्ययन ६ कल्पव्यवहार १० कल्पाकल्पिक ११ महाप्रज्ञप्ति, ६ ज्ञातृधर्मकथा, ७ उपासकदशा, ८ अंतकृद्दशा, कल्पिक १२ पुण्डरीक १३ महापुण्डरीक, १४ निशीथिका। ६ अनुत्तरौपपातिकदशा, १० प्रश्नव्याकरण, ११ विपाकसूत्र, श्वेताम्बरों के दोनों सम्प्रदायों के अंगबाह्म ग्रंथों की और १२ दृष्टिवाद ।
और तद्गत अध्ययनों की सूची को देखने से स्पष्ट हो जाता
६८३ वर्ष
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है कि उक्त १४ दिगम्बर-मान्य अंगबाह्य आगामों में से अधिकांश श्वेताम्बरों के मत से सुरक्षित हैं। उनका विच्छेद हुआ ही नहीं।
दिगम्बरों ने मूलागम का लोप मानकर भी कुछ ग्रंथों को 'आगम' जितना ही महत्त्व दिया है और उन्हें जैनवेद की संज्ञा देकर प्रसिद्ध चार अनुयोगों में विभक्त किया है। वह
इस प्रकार है :
-
पद्मपुराण ( रविषेण), हरिवंश पुराण ( जिनसेन), आदिपुराण (जिनसेन), उत्तरपुराण (गुणभद्र ) ।
२ - करणानुयोग पूर्वप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, जय
धवल ।
३ - द्रव्यानुयोग – प्रवचनसार, समयसार नियमसार, पंचास्तिकाय (ये चारों आ० कुन्द कुन्दकृत), तत्त्वार्थाधिगम सूत्र ( उमास्वामी) और उसकी समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक; विद्यानन्द आदिकृत टीकाएँ, आप्तमीमांसा (समन्तभद्र ) " और उसकी अकलंक, विद्यानन्द आदि कृत टीकाएँ ।
४- चरणानुयोग — मूलाचार (बटकेर ), त्रिवर्णाचार, रत्नकरण्ड श्रावकाचार ।
४३
१ - प्रथमानुषोष
इस सूची से स्पष्ट है कि इसमें दशवीं शताब्दी तक लिखे गए ग्रंथों का समावेश हुआ है।
स्थानकवासी के आगमग्रन्थ
श्वेताम्बर स्थानकवासी संप्रदाय के मत से दृष्टिवाद को छोड़कर सभी अंग सुरक्षित हैं । अंगबाह्य के विषय में इस संप्रदाय का मत है कि सिर्फ निम्नलिखित ग्रन्थ ही सुरक्षित हैं:
3
अंगबाह्य में १२ उपांग, ४ छेद ४ मूल और १ आवश्यक इस प्रकार सिर्फ २१ ग्रन्थ का समावेश है वह इस प्रकार से है :
१२ उपांग- १ औपपातिक, २ राजप्रश्नीय, ३ जीवा
भिगम, ४ प्रज्ञापना, ५ सूर्यप्रज्ञप्ति ६ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति ७ चन्द्रप्रज्ञप्ति ८ निरयावली ६ कल्पावतंसिका, १० पुष्पिका, ११ पुष्पचूलिका और १२ वृष्णिदशा ।
"
शास्त्रोद्वार-मीमांसा में (१०४१) आ० अमोलऋषि ने लिखा है कि, चन्द्रप्राप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति ये दोनों ज्ञाताधर्म के उपांग हैं। इस अपवाद को ध्यान में रखकर क्रमश: आचारांग का औपपातिक इत्यादि कम से अंगों के साथ उपांगों की योजना कर लेना चाहिए।
४ छेद – १ व्यवहार, २ बृहत्कल्प, ३ निशीथ, ४ दशाश्रुतस्कन्ध ।
४ मूल - १ दशवैकालिक, २ उत्तराध्ययन, ३ नंदीसूत्र ४ अनुयोग द्वार
१ आवश्यक, इस प्रकार सब मिलाकर २१ अंगबाह्यग्रंथ वर्तमान में हैं ।
२१ अंगबाह्य ग्रन्थों को जिस रूप में स्थानकवासियों ने माना है, श्वेताम्बर मूर्तिपूजक उन्हें उसी रूप में मानते हैं । इसके अलावा कई ऐसे ग्रंथों का भी अस्तित्व स्वीकार किया है जिन्हें स्थानकवासी प्रमाणभूत नहीं मानते या लुप्त मानते हैं ।
स्थानकवासी के समान उसी संप्रदाय का एक उपसंप्रदाय तेरहपंथ को भी ११ अंग और २१ अंगवाह्य ग्रन्थों का ही अस्तित्व और प्रामाण्य स्वीकृत है, अन्य ग्रंथों का नहीं ।
इन दोनों संप्रदायों में नियुक्ति आदि टीका ग्रन्थों का प्रामाण्य अस्वीकृत है ।
यद्यपि वर्तमान में कुछ स्थानकवासी साधुओं की, आगम के इतिहास के प्रति दृष्टि जाने से तथा आगमों की नियुक्ति जैसी प्राचीन टीकाओं के अभ्यास से, दृष्टि कुछ उदार हुई है। और वे यह स्वीकार करने लगे हैं कि दशवकालिक आदि शास्त्र के प्रणेता गणधर नहीं किंतु शय्यंभव आदि स्थविर हैं तथापि जिन लोगों का आगम टीका-टिप्पणियों पर कोई विश्वास नहीं तथा जिन्हें संस्कृत टीकाग्रंथों के अभ्यास के प्रति नफरत है ऐसे साम्प्रदायिक मनोवृत्ति वालों का यही विश्वास प्रतीत होता है कि अंग और अंगबाह्य दोनों प्रकार के आगम के कर्ता गणधर ही थे, अन्य स्थविर नहीं ।"
श्वेताम्बरों के आगम-ग्रंथ
यह तो कहा ही जा चुका है कि अंगों के विषय में किसी का भी मतभेद नहीं । अतएव श्वेताम्बरों को भी पूर्वोक्त १२ अंग मान्य हैं जिन्हें दिगम्बरादि ने माना है। फर्क यही है कि दिगम्बरों ने ११ अंगों का पूर्वोक्त क्रम से विच्छेद माना तब श्वेताम्बरों ने सिर्फ अंतिम अंग का विच्छेद माना । उनका
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कहना है कि भगवान महावीर के निर्वाण के १००० वर्ष बाद में सबसे प्राचीन अंश है। उसमें परिवर्धन और परिवर्तन ही सिर्फ पूर्वगत का विच्छेद हुआ है।
सर्वथा नहीं है यह तो नहीं कहा जा सकता। किंतु उसमें नया __ जब तक उसका विच्छेद नहीं हुआ था, तब तक सबसे कम मिलाया गया है यह तो निश्चयपूर्वक कहा ही जा आचार्यों ने पूर्व के विषयों को लेकर कई रचनाएँ की थीं। सकता है। वह भगवान् के साक्षात् उपदेश रूपन भी हो तब ऐसी अधिकांश रचनाओं का समावेश अंग-बाह्य में किया भी उसके अत्यन्त निकट तो हैं ही। ऐसी स्थिति में उसे हम गया है। कुछ ऐसी ही रचनाएँ हैं जिनका समावेश अंग में भी विक्रम पूर्व ३००के बाद की संकलना नहीं कह सकते। अधिक किया गया है।
संभव यही है कि वह प्रथम वाचना की संकलना है। आचादिगम्बर ने १४, स्थानकवासियों ने २१ और रांग का द्वितीय श्रुतस्कंध आचार्य भद्रबाह के बाद की रचना श्वेताम्बरों ने ३४ अंग-बाह्य ग्रंथ माने हैं।
होना चाहिए क्योंकि उसमें प्रथम श्रुतस्कंध की अपेक्षा श्वेताम्बरों के मत से उपलब्ध ११ अंग और ३४ अंग- भिक्षुओं के नियमोपनियम के वर्णन में विकसित भूमिका की बाह्य ग्रन्थों की सूची इस प्रकार है :
सूचना मिलती है। इसे हम विक्रमपूर्व दूसरी शताब्दी से ११ अंग-पूर्वोक्त आचारांग आदि।
इधर की रचना नहीं कह सकते । किंतु इसका मतलब यह १२ उपांग-औपपातिक आदि पूर्वोक्त ।
नहीं है कि उसमें जो कुछ संकलित है वह इसी शताब्दी का १० प्रकीर्णक-१ चतुःशरण, २ आतुरप्रत्याख्यान, है। वस्तु तो पुरानी है, वह गणधरों से परंपरा से चली ही
३ भक्त-परिज्ञत, ४ संस्तारक, आती थी। उसी को संकलित किया गया । इसका मतलब ५ तंदुलवैचारिक, ६ चन्द्रवेध्यक, यहभी नहीं समझना चाहिए कि विक्रम पूर्व दूसरी शताब्दी ७ देवेन्द्रस्तव, ८ गणिविद्या, के बाद इसमें कुछ नया नहीं जोड़ा गया है। स्थानांग जैसे ६ महाप्रत्याख्यान और १० अंग ग्रंथों में वीर निर्वाण की छठी शताब्दी की घटना का वीरस्तव'।६
उल्लेख आता है। किंतु ऐसे कुछ अंशों को छोड़ करके ६ छेदसूत्र-निशीथ, २ महानिशीथ, ३ व्यवहार, ४ बाकीसब भाव पुराने ही हैं। भाषा में यत्रतत्र काल की
दशाश्रुतस्कंध, ५ बृहत्कल्प, ६ जीतकल्प। गति और प्राकृत भाषा होने के कारण भाषा-विकास ४ मूल-उत्तराध्ययन, २ दशवैकालिक, ३ आवश्यक के नियमानुसार परिवर्तन होना अनिवार्य है। क्योंकि प्राचीन और ४ पिण्डनियुक्ति।
समय में इसका पठनपाठन लिखित ग्रंथोंमें नहीं किंतु कण्ठोपका सूत्र-१ नदी-सूत्र, २ अनुयोगद्वार। कण्ठ से होता था। प्रश्न-व्याकरण अंग का वर्णन जैसा (६) आगम की रचना का काल
नन्दीसूत्र में है उसे देखते हुए उपलब्ध प्रश्न-व्याकरण अंग जैसा पहले हमने देखा आगमशब्द वाच्य एक ग्रंथ नहीं समूचा ही बाद की रचना हो ऐसा प्रतीत होता है। वालभी किंतु अनेककर्तृक अनेक ग्रंथों का समुदाय है। अतएब आगम वाचनाके बाद कब यह अंग नष्ट हो गया, कब उसके स्थान की रचना का कोई एक काल बताया नहीं जा सकता।
में नया बनाकर जोड़ा गया इसके जानने का हमारे पास कोई भगवान महावीर का उल्लेख विक्रम पूर्व ८०० वर्षों में शुरू
साधन नहीं । इतना ही कहा जा सकता है कि अभयदेव की हुआ। अतएव उपलब्ध किसी आगम की रचना उसके पहले टीका, जो कि वि० १२ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में लिखी गई होना संभव नहीं और दूसरी ओर अंतिम वाचना के आधार है, से पहले वह कभी बन चुका था। पर पुस्तक-लेखन वलभी में विक्रम सं०८१० (मतांतर से उपांग के समय के बारे में अब विचार क्रम प्राप्त है। ५२३) में हुआ। अतएव तदन्तर्गत कोई शास्त्र विक्रम ५२५ प्रज्ञापना का रचनाकाल निश्चित ही है। प्रज्ञापना के कर्ता आर्य से बाद का नहीं हो सकता"। इस मर्यादा को ध्यान में रखकर श्याम हैं । उनका दूसरा नाम कालकाचार्य (निगोदव्याख्याता) हमें सामान्यतः आगमकी रचनाके कालका विचार करना है। हैं। इनको वीरनिर्वाण सं० ३३५ में युगप्रधान-पद मिला है। ___अंग-ग्रंथ गणधरकृत कहे जाते हैं किंतु उनमें सभी एक से और वे उस पद पर ३७६ तक बने रहे। इसी काल की रचना प्राचीन नहीं हैं। आचारांग के ही प्रथम और द्वितीय श्रुत- प्रज्ञापना है। अतएव यह रचना विक्रमपूर्व १३५ से १४ के स्कंध भाव और भाषा में भिन्न हैं यह कोई भी कह सकता है बीच की होनी चाहिए । शेष उपांगों के कर्ता का कोई पता प्रथम श्रतरबंध हितीय से ही नहीं वितु समस्त जैन वाङ्मय नहीं। किंतु इनके कर्ता गणधर तो माने नहीं जाते। अन्य
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स्थविर माने जाते हैं। ये सभी किसी एक काल की रचना में कोई बाधक नहीं। आवश्यक सूत्र अंगबाह्य होने से गणधर नहीं है।
कृत नहीं हो सकता किन्तु वह समकालीन किसी स्थविर की चंद्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति और जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति इन तीन रचना होना चाहिए । साधुओं के आचार में नित्योपयोग में उपांगों का समावेश दिगम्बरों ने दृष्टिवाद के प्रथम भेद परि- आनेवाला यह सूत्र है अतएव इसकी रचना दशवकालिक से कर्म में किया है। नन्दी-सूत्र में भी उनका नामोल्लेख है भी पहले मानना चाहिए। अंगों में जहाँ पठन का जिक्र अतएव ये ग्रंथ श्वेताम्बर-दिगम्बर के भेद से प्राचीन होने आता है वहाँ 'सामाइयाणि एकादसंगाणि' पढ़ने का जिक्र चाहिए। अतएव इनका समय विक्रम संवत् के प्रारम्भ से आता है। इससे प्रतीत होता है कि साधुओं को सर्वप्रथम इधर नहीं आ सकता। शेष उपांगों के विषय में भी।
आवश्यक सूत्र पढ़ाया जाता था, इससे भी यही मानना पड़ता सामान्यतः यही कहा जा सकता है। उपलब्ध चंद्रप्रज्ञप्ति में है कि इसकी रचना अंगकालीन ही होना चाहिए । अर्थात् और सूर्यप्रज्ञप्ति में कोई खास भेद नहीं है । अतएव संभव है यही मानना उचित है कि इसकी रचना विक्रमपूर्व ४७० के कि मूल चन्द्रप्रज्ञप्ति विच्छिन्न हो गया हो।
पहले हो चुकी थी । पिण्डनियुक्ति यह दशवैकालिक की प्रकीर्णकों की रचना के विषय में यही कहा जा सकता है नियुक्ति का अंश है अतएव वह भद्रबाहु द्वितीय की रचना कि उसकी रचना समय-समय पर हुई है । और अंतिम मर्यादा होने के कारण विक्रम पांचवी छठी शताब्दी की कृति होना वालभी वाचना तक खींची जा सकती है।
चाहिए। छेदसूत्र में दशाश्रुत, बृहत्कल्प और व्यवहार सूत्रों की चूलिका सूत्रों में नन्दी सूत्र की रचना तो देबधि गणि की रचना भद्रबाह ने की है अतएव उनका समय वीरनिर्वाण है अतएव उसका समय विक्रम की छठी शताब्दी का प्रारम्भ संवत १७० से इधर नहीं हो सकता अर्थात् विक्रम संवत् होना चाहिए। और अनुयोग द्वार सूत्र के कर्ता कौन थे यह ३०० के पहले वे बने थे। इनके ऊपर नियुक्ति भाष्यादि __ कहना कठिन है। किंतु वह आवश्यक सूत्र के बाद बना होगा टीकाएँ बनी हैं अतएव इन ग्रंथों में परिवर्तन की संभावना क्योंकि उसमें उसी सूत्र का अनुयोग किया गया है। संभव है नहीं है। निशीथसूत्र तो आचारांग की चूलिका है अतएव वह आर्यरक्षित के बाद बना हो या उन्हीं ने बनाया हो। वह भी प्राचीन है। किन्तु जीतकल्प तो आचार्य जिनभद्र की उसकी रचना का काल विक्रमपूर्व तो अवश्य है। उसमें यह रचना है। जब पञ्चकल्प नष्ट हो गया तब जीतकल्प को छेद संभव है कि परिवर्धन यत्र तत हआ हो।। में स्थान मिला होगा ऐसा कहने की अपेक्षा यही कहना ठीक आगमों के समय के विषय में यहाँ जो चर्चा की है वह होगा कि क्योंकि वह कल्प-व्यवहार और निशीथ के सारसंग्रह- अन्तिम नहीं है। जब प्रत्येक आगम का अन्तर्बाह्य निरीक्षण रूप है अतएव उसे छेद में स्थान मिला है। महानिशीथ सूत्र जो करके इस चर्चा को परिपूर्ण किया जायेगा तब उनका समयउपलब्ध है वह आचार्य हरिभद्र ने उस सूत्र को नष्ट होते जो निर्णय ठीक हो सकेगा। यहाँ तो सामान्य निरूपण करने का बचाया वही है । उसकी वर्तमान संकलना का श्रेय आचार्य प्रयत्न है। हरिभद्र को है । अतएव उसका समय भी वही मानना चाहिए
(७) आगमों का विषय जो हरिभद्र का है । वस्तु तो पुरानी है ही।
मलसूत्रों में दशवकालिक सूत्र आचार्य शय्यम्भव की जैनागमों में से कुछ तो ऐसे हैं जो जैन-आचार से संबंध कृति है। उनको युगप्रधान-पद वीर निर्वाण सं०७५ में मिला रखते हैं जैसे आचारांग, दशवैकालिक आदि । कुछ उपऔर वे उस पद पर मृत्यु तक अर्थात् वीर निर्वाण १८ तक देशात्मक हैं जैसे उत्तराध्ययन, प्रकीर्णक आदि । कुछ बने रहें । अर्थात् दशवकालिक की रचना विक्रम पूर्व ३६५ तत्कालीन भूगोल और खगोल आदि सम्बन्धी मान्यताओं का और ३७२ के बीच हुई है। दशवकालिक सूत्र के विषय में वर्णन करते हैं जैसे जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति आदि । हम इतना कह सकते हैं कि तद्गत चूलिकाएँ सम्भव है बाद छेदसूत्रों का प्रधान विषय जैनसाधुओं के आचार सम्बन्धी में जोड़ी गई हों। इसके अलावा कोई परिवर्तन या परि- औत्सर्गिक और आपवादिक नियमों का वर्णन व प्रायश्चित्तों वर्धन हआ हो ऐसा सम्भव नहीं। उत्तराध्ययन किसी एक का विधान करना है। कुछ ग्रंथ ऐसे हैं जिनमें जिन-मार्ग के आचार्य की कृति नहीं और न वह एक काल की कृति है। अनुयायियों का चरित्र दिया गया है जैसे उपासकदशांग, फिर भी उसे विक्रम पूर्व दूसरी या तीसरी शताब्दी का मानने अनुत्तरोपपातिक दशा आदि । कुछ में कल्पित कथाएँ देकर
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उपदेश दिया गया है जैसे ज्ञातृधर्म-कथा आदि । विपाक में (E) आगमों की टीकाएँ५२ शुभ और अशुभ कर्म का विपाक कथाओं द्वारा बताया गया है। भगवती सूत्र में भगवान महावीर के साथ हुए संवादों का इन आगमों की टीकाएँ प्राकृत और संस्कृत में हई हैं। संग्रह है । बौद्ध सुत्तपिटक की तरह नाना विषय के प्रश्नोत्तर प्राकृत टीकाएँ नियुक्ति, भाष्य और चूर्णिके नाम से लिखी भगवती में संग्रहीत हैं।
गई हैं। नियुक्ति और भाष्य पद्यमय हैं और चूणि गद्य में । दर्शन के साथ सम्बन्ध रखने वालों में खासकर सूत्रकृत, उपलब्ध निर्यक्तियाँ भद्रबाहु द्वितीय की रचना हैं । उनका प्रज्ञापना, राजप्रश्नीय, भगवती, नन्दी, स्थानांग, समवाय । समय विक्रम पाँचवी या छठी शताब्दी है। नियुक्तियोंमें और अनुयोग सूत्र मुख्य हैं।
भद्रबाहुने कई प्रसंगमें दार्शनिक चर्चाएँ बड़े ढंगसे की हैं। सूत्रकृत में तत्कालीन मन्तव्यों का निराकरण करके खासकर बौद्धों तथा चार्वाकों के विषय में नियुक्ति में जहाँ स्वमत की प्ररूपणा की गई है। भूतवादियों का निराकरण कहीं भी अवसर मिला, उन्होंने अवश्य लिखा है। आत्मा का करके आत्मा का पृथक् अस्तित्व बतलाया है । ब्रह्मवाद के लस्तित्व उन्होंने सिद्ध किया है। ज्ञान का सूक्ष्म निरूपण स्थान में नानात्मवाद स्थिर किया है। जीव और शरीर को तथा अहिंसा का तात्त्विक विवेचन किया है । शब्द के अर्थ पृथक बताया है। कर्म है और उसके फल की सत्ता स्थिर की करने की पद्धति के तो वे निष्णात थे ही। प्रमाण, नय और है। जगदुत्पत्ति के विषय में नाना वादों का निराकरण करके निक्षेप के विषय में लिखकर भद्रबाहु ने जैन दर्शन की भूमिका विश्व को किसी ईश्वर या ऐसी ही किसी व्यक्ति ने नहीं पक्की की है। बनाया, वह तो अनादि अनन्त है, इस बात की स्थापना की किसी भी विषय की चर्चा का अपने समय तक का पूर्णगई है। तत्कालीन क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और रूप देखना हो तो भाष्य देखना चाहिए । भाष्यकारों में अज्ञानवाद का निराकरण करके सुसंस्कृत क्रियावाद की प्रसिद्ध संघदास गणि और जिनभद्र हैं। इनका समय सातवीं स्थापना की गई है।
शताब्दी है। जिनभद्र ने विशेषावश्यक भाष्य में आगमिक प्रज्ञापना में जीव के विविध भावों को लेकर विस्तार से पदार्थों का तर्कसंगत विवेचन किया है। प्रमाण, नय और विचार किया गया है।
निक्षेप की संपूर्ण चर्चा तो उन्होंने की ही है। इसके अलावा राजप्रश्नीय में पार्श्वनाथ की परम्परा में हए केशीश्रमण तत्त्वों का भी तात्त्विक युक्तिसंगत विवेचन उन्होंने किया है। ने श्राबस्ती के राजा पएसी (प्रदेशी) के प्रश्नों के उत्तर में ऐसा कहा जा सकता है कि दार्शनिक चर्चा का कोई ऐसा विषय नास्तिकवाद का निराकरण करके आत्मा और तत्सम्बन्धी नहीं कि जिस पर जिनभद्र ने अपनी कलम न चलाई हो। अनेक बातों को दृष्टान्त और युक्तिपूर्वक समझाया है। बृहत्कल्प भाष्य में संघदासगणि ने साधुओं के आहार-विहारादि
भगवती सूत्र के अनेक प्रश्नोंत्तरों में नय, प्रमाण आदि नियमों के उत्सर्ग-अपवाद मार्ग की चर्चा दार्शनिक ढंग से की अनेक दार्शनिक विचार बिखरे पड़े हैं।
है। इन्होंने भी प्रसंग से ज्ञान, प्रमाण, नय और निक्षेप के नन्दीसूत्र जैन दृष्टिसे ज्ञान के स्वरूप और भेदों का विषय में लिखा है। विश्लेषण करनेवाली एक सुन्दर कृति है।
करीब सातवीं-आठवीं शताब्दी की चूर्णियाँ मिलती हैं। स्थानांग और समवायांग की रचना बौद्धों के अंगुत्तर- चणिकारों में जिनदास महत्तर प्रसिद्ध हैं। इन्होंने नंदी की निकाय के ढंग की है। इन दोनों में भी आत्मा, पुदगल, ज्ञान, चणि के अलावा और भी चूर्णियाँ लिखीं हैं । चूणियों में भाष्य नय और प्रमाण आदि विषयों की चर्चा की गई है। भगवान के ही विषय को संक्षेप में गद्य में लिखा गया है। जातक के महावोर के शासन में हुए निह्नवों का वर्णन स्थानांग में है। ढंग की प्राकृत-कथाएँ इनकी विशेषता है। ऐसे सात व्यक्ति बताये गये हैं जिन्होंने कालचक्र से भगवान जैन आगमों की सबसे प्राचीन संस्कृत टीका आचार्य महावीर के सिद्धांतों की भिन्न-भिन्न बात को लेकर अपना हरिभद्र ने की है। उनका समय वि०७५७ से ८५७ के बीच मतभेद प्रकट किया है । वे ही निह्नव कहे गये हैं।
का है। हरिभद्र ने प्राकृत चूर्णियों का प्रायः संस्कृत में अनुवाद अनुयोग में शब्दार्थ करने की प्रक्रिया का वर्णन मुख्य है ही किया है। यत्र-तत्र अपने दार्शनिक ज्ञानका उपयोग करना किंतु प्रसंग से उसमें प्रमाण और नय का तथा तत्त्वों का भी उन्होंने उचित समझा है । इसलिए हम उनकी टीकाओं में निरूपण भी अच्छे ढंग से हुआ है।
सभी दर्शनों की पूर्वपक्ष रूप से चर्चा पाते हैं । इतना ही नहीं
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किन्तु जैनतत्त्व को भी दार्शनिक ज्ञान के बल से सुनिश्चित है कि फिर उस विषय में दूसरा कुछ देखने की अपेक्षा नहीं रूप में स्थिर करने का प्रयत्न भी देखते हैं।
रहती। जैसे वाचस्पति मिश्र ने जो भी दर्शन लिया तन्मय हरिभद्र के बाद शीलांकसरि ने दशवीं शताब्दी में संस्कृत
होकर उसे लिखा, उसी प्रकार मलयगिरिने भी किया है। वे टीकाओं की रचना की। शीलांक के बाद प्रसिद्ध टीकाकार
आचार्य हेमचन्द्र के समकालीन थे । अतएव उन्हें बारहवीं शान्त्याचार्य हुए। उन्होंने उत्तराध्ययन की बृहत् टीका लिखी
लिनी शताब्दी का विद्वान् मानना चाहिए। है। इसके बाद प्रसिद्ध टीकाकार अभयदेव हुए, जिन्होंने नव संस्कृत-प्राकृत टीकाओं का परिमाण इतना बड़ा था अंगों पर संस्कृत में टीकाएँ रची। उनका जन्म वि०१०७२ और विषयों की चर्चा इतनी गहन-गहनतर हो गई थी कि में और स्वर्गवास विक्रम ११३४ में हुआ है। इन दोनों टीका- बाद में यह आवश्यक समझा गया कि आगमों की शब्दार्थ कारों ने पूर्व टीकाओं का पूरा उपयोग किया ही है और अपनी बतानेवाली संक्षिप्त टीकाएँ की जायं। समय की गति ने ओर से नई दार्शनिक चर्चा भी की है।
संस्कृत और प्राकृत भाषाओं को बोलचाल की भाषा से हटायहाँ पर ऐसे ही टीकाकार मलधारी हेमचन्द्र का भी कर मात्र साहित्यिक भाषा बना दिया था। तब तत्कालीन नाम उल्लेखनीय है। वे बारहवीं शताब्दी के विद्वान थे। अपभ्रश अर्थात् प्राचीन गुजराती भाषा में वालावबोधों की किन्तु आगमों की संस्कृत टीका करने वालों में सर्व श्रेष्ठ रचना हुई । इन्हें 'टबा' कहते हैं । ऐसे बालावबोधों की रचना स्थान तो मलयगिरि का ही है। प्रांजल भाषा में दार्शनिक करने वाले कई हुए हैं किन्तु १८वीं सदी में हुए लोंकागच्छ के चर्चा से प्रचर टीकाएँ यदि देखना हो तो मलयगिरि की धर्मसिंह मुनि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं क्योंकि इनकी टीकाएं देखनी चाहिए। उनकी टीका पढ़ने में शुद्ध दार्शनिक दृष्टि प्राचीन टीकाओं के अर्थ को छोड़ कर कहीं-कहीं स्वग्रंथ पढ़ने का आनंद आता है। जैनशास्त्र के कर्म, आचार, संप्रदाय संमत अर्थ करने की रही है। उनका संप्रदाय मूर्तिपूजा भूगोल, खगोल आदि सभी विषयों में उनकी कलम धारा- के विरोध में उत्थित हुआ था। प्रवाह से चलती है और विषय को इतना स्पष्ट करके रखती
पाद-टिप्पण
१. देखो समवायांग गत द्वादशांग-परिचय । नन्दी सूत्र-५७ २. बृहत्कल्पभाष्य २०२-२०३ ३. आचारांग-अ०४ सू० १२६ । सूत्रकृतांग २-१-१५ । २-२-४१ ४. "तवनियमनाणरुक्खं आरूढो केवली अभियनाणी। तो मुयइ नाणवुठ्ठि भवियजणविबोहणट्ठाए ॥७६।। तं बुद्धिमएण पडेण गणहरा गिहिउं निरवसेसं । तित्थयरभ सियाई गंथं ति तओ पवणयट्ठा 100"-आवश्यकनियुक्ति ५. अन्ययोगव्यवच्छेदिका-५। ६. देखो नंदीसूत्र, ४०, ४१ । बृहत० गा०८८ । ७. आप्तोपदेश: शब्द:-न्यायसूत्र १.१,७। तत्वार्थभाष्य १, २० । ८. नंदीसूत्र ४०। ६. अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गन्थन्ति गणहरा निउणं ।
सासणस्स हियठाए तो सुत्तं पवत्तेइ ॥१६२॥ आव०नि०।
१०. नन्दीसूत्र-४० ११. "सुत्तं गणहरकथिदं तहेव पत्तेयबुद्धकथिदं च ।
सुदकेवलिणा कथिदं अभिण्णदसपूव्वकथिदं च॥"-मूलाचार-५-८०।
जयधवला पृ०१५३ । ओघनियुक्तिटीका पृ० ३। १२ विशेषावश्यकभाष्य गा०५५० । बृहत्कल्पभाष्य गा०१४४ ।
तत्त्वार्थभा०१-२० । सर्वार्थसिद्वि १-२०॥ १३. जैनागम के पाठ्यक्रम में वारहवें अंग के अंशभूत चतुर्दश पूर्व को
उसकी गहनताके कारण अन्तिम स्थान प्राप्त है अतएव चतुर्दशपूर्वी का मतलब है संपूर्णश्रुतधर जैनानुश्रुति के अनुसार यह कि भद्रबाहु अन्तिम चतुर्दशधर थे। उनके पास स्थूलभद्र ने चौदहों पूर्वो का पठन किया किन्तु भद्र वाहु की आज्ञा के अनुसार वे दशपर्व ही अन्य को पढ़ा सकते थे। अतएव उनके बाद दशपूर्वी हुए। तित्थोगालीय ७४२ । आवश्यक चूणि भा० २ पृ० १८७।
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१४. बहत्कल्पभाष्यं गा०९६४ ।
३६. वही पृ० ११६। १५. वही ६६६।
३७. विशेष० गा०५५१-५५२ । बृहत् १४५-१४७ १६. बृहत्० १४४ और उसकी पादटीप। विशेषा० मा० ५५० । ३८. नन्दी चूणि पु० ५६ । आवश्यकनियुक्ति २६२-३ । इसके विपरीत १७. पोत्थएसु घेप्पंतएसु असंजमो भवइ । दशवै० चू० पृ० २१ । दूसरा मत है कि सर्वप्रथम आचारांग की रचना होती है और १८. काल पुण पडुच्च चरणकरणठ्ठा अवोच्छित्ति निमित्तं च गेण्हमाणस्स क्रमशः शेष अंगों की-आचा० नियु० ८,९ आचा० चूणि पृ० ३। पोत्थए संजमो भवइ । दशवै० चु० पृ० २१ ।
धवला० पु० १, पृ०६५ । १६. आवश्यक चूणि भा २, पृ १८७।
३६. आचा०नि० २६१ । २०. तित्थोगा०८०१-२। वीरनिर्वाणसंवत और जैनकालगणना पृ०६४ ४०. धावला पु०१प्रस्ता० पृ०७१ । जयधवला पृ० ८७। २१. आ. कल्याणविजयजी के मत से मृत्यु नहीं किन्तु युगप्रधानत्व ४१ देखो जयधवला प्रस्ता० ४६ । का अन्त, देखो, वीरनि० पृ० ६२ टिप्पणी।
४२. जयधवला पृ०२१ । धवला पु० १, प०६६ । गोमट्टसार जीव० २२. धवला पृ०१ प्रस्ता०पू० २६
३६७, ३०८। २३. इण्डियन अॅन्टी भा० ११ सप्टे०१० ४५-५६ । वीरनि०पृ०६२ ४३. अनुपलब्ध है। २४. सुधर्मा केवल्यावस्था में आठ वर्ष रहे, उसके पहले छद्मस्थ के रुप ४४. जैनधर्म प०१०७। हिस्टी ओफ इंडियन लिटरेचर भा०२ में रहे।
पृ०४७४ शास्त्रोद्धार-मीमांसा पृ० ४३, ४५, ४७ २५. धवला पु० १ प्रस्ता० पृ० २६ ।
४५. भगवती २०८ 1 तित्थोगा० २०१। सत्तरिसयठाण-३०७। २६. मेरुतुंग-विचारश्रेणी। वीरनि० पु० २४ ।
४६. दसप्रकीर्णक कुछ परिवर्तन के साथ भी गिनाये जाते हैं, देखो २७. आवश्यक नियुक्ति ७६३-७७७ । विशेषावश्यकभाष्य २२८४- केनोनिकल लिटरेचर ओफ जैन्स १० ४५.५१। २२६५
४७. किसी के मत से ओघनियुक्ति भी इसमें समाविष्ट है। कोई २८. आवश्यक नियुक्ति ७६२ । विशेषा०२२७६ ।
पिण्ड नियक्ति के स्थान में ओधनियुक्ति को मानते हैं। २६. विशेषा० टी० २५२१ ।
४८. चतुःशरण और भक्तपरिज्ञा जैसे प्रकीर्णक जिनका उल्लेख नन्दी में ३०. भगवती० २-८।
नहीं है वे इसमें अपवाद है । ये ग्रन्थ की आगमान्तर्गत कर लिये ३१. सत्तरिसयठाण-३२७॥
गये कहना कठिन है। ३२. नन्दी-चूणि पृ०८
४६. वीरनि० पृ० ६४ । ३३. वीरनि पृ० १०४
५०. धवला प्रस्तावना पु० २, पृ० ४३ । ३४. वीरनि० पृ० ११० ।
५१. देखो, प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ में मेरा लेख । ३५. वही पृ० ११०।
५२. वही।
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समाज, साधना और सेवा : जैनधर्म के परिप्रेक्ष्य में
डॉ. सागरमल जैन
निदेशक, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी
वैयक्तिकता और सामाजिकता दोनों ही मानवीय जीवन प्रधान है और उसका लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार है,किंतु इस के अनिवार्य अंग हैं। पाश्चात्य विचारक ब्रेडले का कथन है कि आधार पर यह मान लेना कि जैन धर्म असामाजिक है या 'मनुष्य मनुष्य नहीं है यदि वह सामाजिक नहीं है।" मनुष्य उसमें सामाजिक संदर्भ का अभाव है, नितांत भ्रमपर्ण होगा। समाजमें ही उत्पन्न होता है, समाज में ही जीता है और समाज जैन साधना यद्यपि व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की बात में ही अपनाविकास करता है। वह कभी भी सामाजिक जीवन करती है किंतु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वह सामाजिक से अलग नहीं हो सकता है। तत्वार्थ सूत्र में जीवन की कल्याण की उपेक्षा करती है। विशिष्टता को स्पष्ट करते हए कहा गया है कि पारस्परिक यदि हम मनुष्य को सामाजिक प्राणी मानते हैं और धर्म साधना ही जीवन का मूलभूत लक्षण है [परस्परोपग्रहो को 'वर्मो धारयते प्रजा' के अर्थ में लेते हैं तो उस स्थिति में जीवानाम ५/२१] व्यक्ति में राग के, द्वेष के तत्व अनिवार्य धर्म का अर्थ होगा--जो हमारी समाज-व्यवस्था को बनाये रूप से उपस्थित हैं किंतु जब द्वेष का क्षेत्र संकुचित होकर रखता है, वही धर्म है। वे सब बातें जो समाज-जीवन में राग का क्षेत्र विस्तृत होता है तब व्यक्ति में सामाजिक चेतना बाधा उपस्थित करती हैं और हमारे स्वार्थों को पोषण देकर का विकास होता है और यह सामाजिक चेतना वीत- हमारी सामाजिकता को खंडित करती हैं, समाज-जीवन में रागता की उपलब्धि के साथ पूर्णता को प्राप्त करती है, क्यों अव्यवस्था और अशांति के कारणभूत होती हैं, अधर्म हैं। कि वीतरागता की भूमिका पर स्थित ही होकर निष्काम की इसीलिए घृणा, विद्वेष, हिंसा, शोषण, स्वार्थपरता आदि को भावना और कर्तव्य बुद्धि से लोक-मंगल किया जा सकता अधर्म और परोपकार, करुणा, दया, सेवा आदि को धर्म कहा है। अत: जैन धर्म का, वीतरागता और मोक्ष का, आदर्श गया है। क्योंकि जो मूल्य हमारी सामाजिकता की स्वाभासामाजिकता का विरोधी नहीं है।
विक वृत्ति का रक्षण करते हैं वे धर्म हैं और जो उसे खंडित मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसके व्यक्तित्व का करते हैं वे अधर्म हैं । यद्यपि यह धर्म की व्याख्या दूसरों से निर्माण समाज-जीवन पर आधारित है। व्यक्ति जो कुछ हमारे संबंधों के संदर्भ में है। और इसलिए इसे हम सामाबनता है वह अपने सामाजिक परिवेश के द्वारा ही बनता जिक-धर्म भी कह सकते हैं। है। समाज ही उसके व्यक्तित्व और जीवन-शैली का निर्माता जैन धर्म सदैव यह मानता रहा है कि साधना से प्राप्त है। यद्यपि जैन-धर्म सामान्यतया व्यवितनिष्ठ और निवृत्ति सिद्धि का उपयोग सामाजिक कल्याण की दिशा में होना
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चाहिए। स्वयं भगवान महावीर का जीवन इस बात का साक्षी है कि वे वीतरागता और कैवल्य की प्राप्ति के पश्चात् जीवन पर्यन्त लोकमंगल के लिए कार्य करते रहे हैं। प्रश्नव्याकरण सूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि तीर्थकरों का यह सुकथित प्रवचन संसार के सभी प्राणियों की करुणा के लिए ही है'। जैन धर्म में जो सामाजिक जीवन या संघ जीवन के संदर्भ उपस्थित हैं वे यद्यपि बाहरसे देखने पर निषेधात्मक लगते हैं इसी आधार पर कभी-कभी यह मान लिया जाता है कि जैन धर्म एक सामाजिक निरपेक्ष धर्म है। जैनों ने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की व्याख्या मुख्यरूप से निषेधात्मक दृष्टि के आधार पर की है, किंतु उनको निषेधात्मक और समाज-निरपेक्ष समझ लेना भ्रांति पूर्ण ही है। प्रश्नव्याकरण सूत्र में ही स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि ये पांच महाव्रत सर्वथा लोकहित के लिए ही हैं । जैन धर्म में जो व्रत व्यवस्था है सामाजिक संबंधों की शुद्धि का प्रयास है। हिंसा, असत्यवचन, चौर्यकर्म, व्यभिचार और संग्रह (परिग्रह) हमारे सामाजिक जीवन को दूषित बनाने वाले तत्व है। हिंसा सामाजिक अस्तित्व की योतक है, तो असत्य पारस्परिक विश्वास को भंग करता है। चोरी का तात्पर्य तो दूसरों के हितों और आवश्यकताओं का अपहरण और शोषण ही है। व्यभिचार जहाँ एक और पारिवारिक जीवन को भंग करता है वही दूसरी ओर वह दूसरे को अपनी वासनापूर्ति का साधन मानता है और इस प्रकार से वह भी एक प्रकार का शोषण ही है। इसी प्रकार परिग्रह भी दूसरों को उनके जीवन की आवश्यकताओं और उपभोगों से वंचित करता है, समाज में वर्ग बनाता है और सामाजिक शान्ति को भंग करता है । संग्रह के आधार पर जहाँ एक वर्ग सुख, सुविधा और ऐश्वर्य की गोद में पलता है वहीं दूसरा जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी तरसता है । फलतः सामाजिक जीवन में वर्ग-विद्वेष और आकोण उत्पन्न होते हैं और इस प्रकार सामाजिक शान्ति और सामाजिक समत्व भंग हो जाते हैं । सूत्रकृतांग में कहा गया है कि यह संग्रह की वृत्ति ही हिंसा, असत्य, चोरी कर्म और व्यभिचार को जन्म देती है और इस प्रकार से वह सम्पूर्ण सामाजिक जीवन को विषाक्त बनाती है। यदि हम इस संदर्भ में सोचें तो यह स्पष्ट लगेगा कि जैन धर्म में अहिंसा, सत्य, आचार्य,
१. सब्बच जगजीव- रक्खण दयट्ठाए पावयणं भगवया सुकहियं प्रश्न व्याकरण २/१/२१
ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की जो अवधारणायें हैं, वे मूलतः सामाजिक जीवन के लिए ही है।
जैन साधना पद्धति की मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ की भावनाओं के आधार पर भी उसके सामाजिकसंदर्भ को स्पष्ट किया जा सकता है। आचार्य अमितगति कहते हैं—
सवेषु मैत्री गुणीषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा-परत्वं मध्यस्थभावं विपरीत वृत्तो सदा ममात्मा विदधातु देव ।
-सामयिक पाठ
,
"हे प्रभु । हमारे जीवन में प्राणियों के प्रति मित्रता, गुणजीनों के प्रति प्रमोद दुखियों के प्रति करुणा तथा दुष्ट जनों के प्रति माध्यस्य भाव विद्यमान रहे।" इस प्रकार इन चारों भावनाओं के माध्यम से समाज के विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों से हमारे सम्बन्ध किस प्रकार के हों इसे स्पष्ट किया गया है। समाज में दूसरे लोगों के साथ हम किस प्रकार जीवन जिये यह हमारी सामाजिकता के लिए अति आवश्यक है। उसने संघीय जीवन पर बल दिया है, वह संधीय या | सामूहिक साधना को श्रेष्ठ माना है । जो व्यक्ति संघ में विघटन करता है उसे हत्यारे और व्यभिचारी से भी अधिक पापी माना गया है और उसके लिए छेदमूत्रों में कठोरतम दण्ड की व्यवस्था की गई है। स्वानांग सूत्र में कुल धर्म, ग्रामधर्म, नगर धर्म राष्ट्रीय धर्म, गणधर्म आदि का निर्देश किया गया है, जो उसकी सामाजिक दृष्टि को स्पष्ट करते हैं । जैन धर्म ने सदैव ही व्यक्ति को समाज जीवन से जोड़ने का ही प्रयास किया है। जैन धर्म का हृदय रिक्त नहीं है । तीर्थकर की वाणी का प्रस्फुटन ही लोक की करुणा के लिए हुआ है। आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं "सर्वापदामन्तकर" निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवेव" -- हे प्रभु! आपका तीर्थ ( अनुशासन) सभी दुखों का अन्त करने वाला और सभी का कल्याण या सर्वोदय करने वाला है । उसमें प्रेम और करुणा की अटूट धारा बह रही है। स्थानांग में प्रस्तुत कुल धर्म, ग्रामधर्म, नगर धर्म, एवं राष्ट्र धर्म भी जैन धर्म की समाज सापेक्षता को स्पष्ट कर देते हैं। पारिवारिक और सामाजिक जीवन में हमारे पारस्परिक सम्बन्धों को सुमधुर एवं समायोजन पूर्ण बनाने तथा सामाजिक टकराव के कारणों का
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२. इमाणि सुव्वय महव्वयाई - सव्वयाई - प्रश्नव्याकरण २।१२।१ ३. स्थानांग, स्थान १०.७६०
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विश्लेषण कर उन्हें दूर करने के लिए जैनधर्म का योगदान करना, यही धर्म की मूल आत्मा हो सकती है। सन्त तुलसी महत्वपूर्ण है।
दास ने भी कहा हैवस्तुतः जैन धर्म ने आचार शुद्धि पर बल देखकर व्यक्ति पर हित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई। सुधार के माध्यम से समाज सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। अहिंसा, जिसे जैन परंपरा में धर्म सर्वस्व कहा गया है उसने व्यक्ति को समाज की इकाई माना और इसलिए प्रथमतः कि चेतना का विकास तभी संभव है, जब मनुष्य में 'आत्मवत् व्यक्ति चरित्र के निर्माण पर बल दिया। वस्तुतः महावीर के सर्वभूतेषु' की भावना का विकास होगा। जब हम दूसरों युगों पूर्व समाज रचना का कार्य ऋषभके द्वारा पूरा हो चुका के दर्द और पीड़ा को अपना दर्द समझेंगे तभी हम लोक-मंगल था अतः महावीर ने मुख्य रूप से सामाजिक जीवन की की दिशा में अथवा परपीड़ा के निवारण की दिशा में आगे बराइयों को समाप्त करने का प्रयास किया और सामाजिक बढ़ सकेंगे । पर पीड़ा की तरह आत्मानुभूति भी वस्तुनिष्ठ न सम्बन्धों की शुद्धि पर बल दिया ।
होकर आत्मनिष्ठ होनी चाहिए। हम दूसरों की पीड़ा के मूकसामाजिकता मनुष्य का एक बिशिष्ट गुण है। वैसे तो दर्शक न रहें। ऐसा धर्म और ऐसी अहिंसा, जो दूसरों की समह-जीवन पशुओं में भी पाया जाता है किन्तु मनुष्य की पीड़ा की मूक-दर्शक बनी रहती है वस्तुतः वह न धर्म है और यह समूह जीवन शैली उनसे कुछ विशिष्ट है। पशुओं में न अहिंसा । अहिंसा केवल दूसरों को पीड़ा न देने तक पारस्परिक सम्बन्ध तो होते हैं किन्तु उन सम्बन्धों की चेतना सीमित नहीं है, उसमें लोक-मंगल और लोक-कल्याण का नहीं होती है। मनुष्य जीवन की विशेषता यह है कि उसे उन अजस्त्र स्रोत भी प्रवाहित है। जब लोक पीड़ा अपनी पोड़ा बन पारस्परिक संबंधों की चेतना होती है और उसी चेतना के जाती है तभी धार्मिकता का स्रोत अन्दर से बाहर प्रवाहित कारण उसमें एक दूसरे से प्रति दायित्व-बोध और कर्तव्य- होता है। तीर्थंकरों, अर्हतों और बुद्धों ने जब लोकपीडा की बोध होता है। पशुओं में भी पारस्परिक हित साधना की यह अनुभूति आत्मनिष्ठ रूप में की, तो वे लोककल्याण के प्रवत्ति तो होती है किन्तु वह एक अन्धमूल प्रवृत्ति है। पशु लिए सक्रिय बन गये। जब दूसरों की पीड़ा और वेदना हमें विवश होता है, उस अन्ध प्रवृत्ति के अनुसार ही आचरण अपनी लगती है, तब लोक कल्याण भी दूसरों के लिए न करने में । उसके सामने यह विकल्प नहीं होता है कि वह कैसा होकर अपने ही लिए हो जाता है। उर्दूशायर अमीर ने कहा आचरण करे या नहीं करे । किन्तु इस सम्बन्ध में मानवीय हैचेतना स्वतंत्र होती है उसमें अपने दायित्व-बोध की चेतना खंजर चले किसी पै, तड़फते हैं हम अमीर । होती है। किसी उर्दू शायर ने कहा भी है
सारे जहां का दर्द, हमारे जिगर में हैं। वह आदमी ही क्या है, जो दर्द आशना न हो।
अब सारे जहां का दर्द किसी के हृदय में समा जाता है पत्थर से कम है, दिल शरर गर निहा नहीं ।।
तो वह लोक कल्याण के मंगलमय मार्ग पर चल पड़ता है और
तीर्थंकर बन जाता है। उसका यह चलना मात्र बाहरी नहीं जैसाकि हम पूर्व में ही संकेत कर चके हैं कि जैनाचार्य
होता है। उसके सारे व्यवहार में अन्तश्चेतना काम करती है उमास्वाति ने भी केवल मनुष्यका अपितु समस्त जीवन का
और यही अन्तश्चेतना धार्मिकता का मूल उत्स (Essence) लक्षण 'पारस्परिक हित साधन' को माना है। दूसरे प्राणियों का
है। इसे ही दायित्व-बोध की सामाजिक चेतना कहा जाता हित साधन व्यक्ति का धर्म है। धार्मिक होने का एक अर्थ यह
है। जब यह जागृत होती है तो मनुष्य में धार्मिकता प्रकट है कि हम एक दूसरे के कितने सहयोगी बने हैं, दूसरे के दुख
होती है। आपको यह ज्ञात होना चाहिए कि तीर्थकर नामऔर पीड़ा को अपनी पीड़ा समझें और उसके निराकरण का
कर्म का उपार्जन वही साधक करता है जो धर्म-संघ की सेवा प्रयत्न करें। यही धर्म है। धर्म की लोक कल्याणकारी चेतना
में अपने को समर्पित कर देता है। तीर्थंकर नाम-कर्म उपाजित का प्रस्फुटन लोक की पीड़ा निवारण के लिए ही हआ है
करने के लिए जिन बीस बोलों की साधना करनी होती है, और यही धर्म का सार तत्व है। कहा भी है
उनके विश्लेषण से यह लक्ष्य स्पष्ट हो जाता है। यही है इबादत, यही है दीनों इमां
दूसरों के प्रति आत्मीयता के भाव का जागृत होना ही कि काम आये दुनिया में, इंसां के इंसां।
धार्मिक बनने का सबसे पहला उपक्रम है। दूसरों की पीड़ा को समझकर उसके निवारण का प्रयत्न यदि हमारे जीवन में दूसरों की पीड़ा, दूसरों का दर्द
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अपना नहीं बना है तो हमें यह निश्चित ही समझ लेना आवश्यक चूर्णि में सेवा के महत्व को स्पष्ट करते हुए कहा है चाहिए कि हमारे धर्म का अवतरण नहीं हुआ है। दूसरों की कि एक व्यक्ति भगवान का नाम-स्मरण करता है, भक्ति पीड़ा आत्मनिष्ठ अनुभूति से जागृत दायित्व-बोध की अन्तश्- करता है, किन्तु दूसरा वृद्ध और रोगी की सेवा करता है, चेतना के बिना सारे धार्मिक क्रियाकाण्ड पाखण्ड या ढोंग है। उन दोनों में सेवा करने वाले को ही श्रेष्ठ माना गया है, उनका धार्मिकता से दूर का रिश्ता नहीं है। जैन धर्म में क्योंकि वह सही अर्थों में भगवान की आज्ञा का पालन करता सम्यक-दर्शन (जो कि धार्मिकता की आधार-भूमि है) के जो है, दूसरों शब्दों में धर्ममय जीवन जीता है। पांच अंग माने गये है, उनमें समभाव और अनुकम्पा सबसे जैन समाज का यह दुर्भाग्य है कि निवृत्तिमार्ग या अधिक महत्वपूर्ण हैं । सामाजिक दृष्टि से समभाव का अर्थ संन्यास पर अधिक बल देते हुए उसमें, सेवा की भावना गौण है, दूसरों को अपने समान समझना। क्योंकि अहिंसा एवं लोक- होती चली गई—उसकी अहिंसा मात्र 'मत मारो' का निषेधक कल्याण की अंतश्चेतना का उद्भव इसी आधार पर होता है। उद्घोष बन गई। किन्तु यह एक भ्रान्ति ही है। बिना 'सेवा' आचारांग सूत्र में कहा गया है कि जिस प्रकार मैं जीना चाहता के अहिंसा अधूरी है और संन्यास निष्क्रियता है। जब संन्यास हैं,मरना नहीं चाहता, उसी प्रकार संसार के सभी प्राणी जीवन और अहिंसा में सेवा का तत्व जुड़ेगा तभी वे पूर्ण बनेंगे। के इच्छुक हैं और मृत्यु से भयभीत हैं, जिस प्रकार मैं सुख की प्राप्ति का इच्छुक हूं और दुख से बचना चाहता हूं उसी प्रकार संन्यास और समाज : संसार के सभी प्राणी सुख के इच्छुक हैं, और दुख से दूर रहना सामान्यतया भारतीय दर्शन के संन्यास के प्रत्यय को चाहते हैं। यही वह दृष्टि है जिस पर अहिंसा का, धर्म का
समाज-निरपेक्ष माना जाता है किन्तु क्या संन्यास की धारणा और नैतिकता का विकास होता है।
समाज निरपेक्ष है ? निश्चय ही संन्यासी पारिवारिक जीवन ___ जब तक दूसरों के प्रति हमारे मन में समभाव अर्थात्
का त्याग करता है किन्तु इससे क्या वह असामाजिक हो समानता का भाव जागत नहीं होता, अनुकम्पा नहीं आती, जाता है ? संन्यास के संकल्प में वह कहता है कि "वित्तेषणा अर्थात उनकी पीड़ा हमारी पीड़ा नहीं बनती तब तक सम्यक्- पूतषणा लोकेषणा मया परित्यक्ता" अर्थात् मैं अर्थकामना, दर्शन का उदय भी नहीं होता, जीवन में धर्म का अवतरण मन्तान कामना और यणः कामना का
सन्तान कामना और यशः कामना का परित्याग करता हैं। नहीं होता। असर लखनवी का यह निम्न शेर इस सम्बन्ध में
जैन परम्परा के अनुसार वह सावद्ययोग या पापकर्मों को कितना मौजूं है
त्याग करता है। किन्तु क्या धन-सम्पदा, सन्तान तथा यशईमां गलत उसूल गलत, इदुआ गलत ।
कीति की कामना का या पापकर्म का परित्याग समाज का इंसां की दिलदिही, अगर इंसां न कर सके ।। परित्याग है ? वस्तुतः समस्त एषणाओं का त्याग या पाप जब दूसरों की पीड़ा अपनी बन जाती है तो सेवा की कर्मों का त्याग स्वार्थ का त्याग है, वासनामय जीवन का भावना का उदय होता है । यह सेवा न तो प्रदर्शन के लिए त्याग है। संन्यास का यह संकल्प उसे समाज-विमुख नहीं होती है और न स्वार्थबुद्धि से होती है, यह हमारे स्वभाव का बनाता है, अपितु समाज कल्याण की उच्चतर भूमिका पर ही सहज प्रकटन होती है। तब हम जिस भाव से हम अपने अधिष्ठित करता है क्योंकि सच्चा लोकहित निस्वार्थता एवं शरीर की पीडाओं का निवारण करते हैं उसी भाव से दूसरों विराग की भूमि पर स्थित होकर ही किया जा सकता है। की पीड़ाओं का निवारण करते हैं, क्योंकि जो आत्म-बुद्धि भारतीय चिन्तन संन्यास को समाज-निरपेक्ष नहीं अपने शरीर के प्रति होती है वही आत्म-बुद्धि समाज के मानता। भगवान बुद्ध का यह आदेश "चरत्थ भिक्खवे चारिक सदस्यों के प्रति भी हो जाती है क्योंकि सम्यक् दर्शन के बहजन-हिताय बहजन-सुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय पश्चात आत्मवत् दृष्टि का उदय हो जाता है । जहाँ आत्मवत् देव मनस्सानं" (विनय पिटक महावग्ग) इस बात का प्रमाण दष्टि का उदय होता है वहाँ हिंसक बुद्धि समाप्त हो जाती है कि संन्यास लोकमंगल के लिए होता है। सच्चा संन्यासी है और सेवा स्वाभाविक रूप सेसाधना का अंग बन जाती है। वह है जो समाज से अल्पतम लेकर उसे अधिकतम देता है। जैन धर्म में ऐसी सेवा को निर्जरा या तप का रूप माना गया वस्तुतः वह कुटुम्ब, परिवार आदि का त्याग इसलिए करता है। इसे 'वैयावच्च' के रूप में जाना जाता है । मुनि नन्दिसेन है कि समष्टि होकर रहे, क्योंकि जो किसी का है, वह सबका की सेवा का उदाहरण तो जैन परम्परा में सर्वविश्रुत है। नहीं हो सकता, जो सबका है वह किसी का नहीं है । संन्यासी
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निःस्वार्थ और निष्काम रूप से लोकमंगल का साधक होता है। संन्यास शब्द सम पूर्वक व्यास शब्द से बना है, न्यासशब्द का अर्थ देखरेख करना भी है। संन्यासी वह व्यक्ति है जो सम्प रूप से एक न्यासी (ट्रस्टी) की भूमिका अदा करता है और न्यासी वह है जो ममत्व भाव और स्वामित्व का त्याग करके किसी ट्रस्ट ( सम्प्रदा) का रक्षण एवं विकास करता है । संन्यासी सच्चे अर्थों में एक ट्रस्टी है । जो ट्रस्टी या ट्रस्ट का उपयोग अपने हित में करता है, अपने को उसका स्वामी समझता है तो वह सम्यक् ट्रस्टी नहीं हो सकता है। इस प्रकार वह यदि ट्रस्ट के रक्षण एवं विकास का प्रयत्न न करे तो भी सच्चे अर्थ में ट्रस्टी नहीं है। इसी प्रकार यदि संन्यासी लोकेषणा से युक्त है, ममत्व-बुद्धि या स्वार्थ- बुद्धि से काम करता है तो वह संन्यासी नहीं है और यदि लोक की उपेक्षा करता है, लोक मंगल के लिए प्रयास नहीं करता है तो भी वह संन्यासी नहीं है । उसके जीवन का मिशन तो "सर्वभूतहिते रतः " का है ।
संन्यास में राम से ऊपर उठना आवश्यक है। किन्तु इसका तात्पर्य समाज की उपेक्षा नहीं है । संन्यास की भूमिका में स्वत्व एवं ममत्व के लिए निश्चय ही कोई स्थान नहीं है। फिर भी वह पलायन नहीं, समर्पण है। ममत्व का परित्याग कर्तव्य की उपेक्षा नहीं है, अपितु कर्तव्य का सही बोध है । संन्यासी उस भूमिका पर खड़ा होता है, जहां व्यक्ति अपने में समष्टि को और समष्टि में अपने को देखता है उसकी चेतना अपने और पराये के भेद से ऊपर उठ जाती है । यह अपने और पराये के विचार से ऊपर हो जाना समाज विमु खता नहीं है, अपितु यह तो उसके हृदय की व्यापकता है, महानता है। इसीलिए भारतीय चिन्तकों ने कहा है
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।। संन्यास की भूमिका न तो आसक्ति की भूमिका है और न उपेक्षा की । उसकी वास्तविक स्थिति 'धाय' (नर्स) के समान ममत्वरहित कर्तव्य भाव की होती है । जैन धर्म में कहा भी गया है। :–
समदृष्टि जीवड़ा करे कुटुम्ब प्रतिपाल । अन्तर सूं न्यारा रहे जूँ धाय खिलावे बाल || वस्तुतः निर्ममत्व एवं निस्वार्थ भाव से तथा वैयक्तिकता और स्वार्थ से ऊपर उठकर कर्तव्य का पालन ही संन्यास की सच्ची भूमिका है। संन्यासी वह व्यक्ति है जो लोकमंगल के लिए अपने व्यक्तित्व एवं शरीर को समर्पित कर देता है।
वह जो कुछ भी त्याग करता है वह समाज के लिए एक आदर्श बनता है। समाज में नैतिक चेतना को जागृत करना तथा सामाजिक जीवन में आने वाली दुःप्रवृत्तियों से व्यक्ति को बचाकर लोक मंगल के लिए उसे दिशा-निर्देश देना संन्यासी का सर्वोपरि कर्तव्य माना जाता है। अतः हम कह सकते हैं कि भारतीय दर्शन में संन्यास की जो भूमिका प्रस्तुत की गई है वह सामाजिकता की विरोधी नहीं है। संन्यासी क्षुद्र स्वार्थ से ऊपर उठकर खड़ा हुआ व्यक्ति होता है, जो आदर्श समाजरचना के लिए प्रयत्नशील रहता है ।
अतः संन्यासी को न तो निष्क्रिय होना चाहिए और न हि समाज विमुख । वस्तुतः निष्काम भाव से संघ की या समाज की सेवा को ही उसे अपनी साधना का अंग बनाना चाहिए।
गृहस्थ धर्म और सेवा
न केवल संन्यासी अपितु गृहस्थ की साधना में भी सेवा " को अनिवार्य रूप से जुड़ना चाहिए। दान और सेवा गृहस्थ के आवश्यक कर्तव्य है। उसका अतिथि संविभागवत सेवा संबंधी उसके दायित्व को स्पष्ट करता है । इसमें भी दान के स्थान पर 'संविभाग' शब्द का प्रयोग अत्यन्त महत्वपूर्ण है, वह यह बताता है कि दूसरे के लिए हम जो कुछ करते हैं, वह हमारा उसके प्रति एहसान नहीं है, अपितु उसका ही अधिकार है, जो हम उसे देते हैं। समाज से जो हमें मिला है, वही हम सेवा के माध्यम से उसे लौटाते हैं। व्यक्ति को शरीर, सम्पत्ति, ज्ञान और संस्कार जो भी मिले हैं, वे सब समाज और सामाजिक व्यवस्था के परिणाम स्वरूप मिले हैं। अतः समाज की सेवा उसका कर्तव्य है। धर्म साधना का अर्थ है निष्काम भाव से कर्त्तव्यों का निर्वाह करना । इस प्रकार साधना और सेवा न तो विरोधी हैं और न भिन्न ही । वस्तुतः सेवा ही साधना है ।
अहिंसा का हृदय रिक्त नहीं है
कुछ लोग अहिंसा को मात्र निषेधात्मक आदेश मान लेते हैं। उनके लिए अहिंसा का अर्थ होता है 'किसी को नहीं मारना' किन्तु अहिंसा चाहे शाब्दिक रूप में निषेधात्मक हो किन्तु उसकी आत्मा निषेधमूलक नहीं है, उसका हृदय रिक्त नहीं है । उसमें करुणा और मैत्री की सहस्रधारा प्रवाहित हो रही है। वह व्यक्ति जो दूसरों की पीड़ा का मूक दर्शक बना रहता है वह सच्चे अर्थ में अहिंसक है ही नहीं। जब हृदय में मंत्री और करुणा के भाव उमड़ रहे हों, जब संसार
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के सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् भाव उत्पन्न हो गया है, का प्रकटन सहज होगा और धर्म साधना का क्षेत्र सेवा का तब यह संभव नहीं है कि व्यक्ति दूसरों की पीड़ाओं का मूक क्षेत्र बन जायेगा। दर्शक रहे । क्योंकि उसके लिए कोई पराया रह ही नहीं गया जैन धर्म के उपासक सदैव ही प्राणी-सेवा के प्रति है। यह एक आनुभाविक सत्य है कि व्यक्ति जिसे अपना मान समर्पित रहे हैं। आज भी देश भर में उनके द्वारा संचालित । लेता है, उससे दुख और कष्टों का मूक दर्शक नहीं रह सकता पशु सेवा सदन (पिंजरापोल, चिकित्सालय) शिक्षा संस्थाएँ है । अतः अहिंसा और सेवा एक दूसरे से अभिन्न हैं । अहिंसक और अतिथि-शालाएं उनकी सेवा-भावना का सबसे बड़ा होने का अर्थ है-सेवा के क्षेत्र में सक्रिय होना। जब हमारी प्रमाण है। उसका श्रमण-वर्ग भी इनका प्रेरक तो रहा है धर्म साधना में सेवा का तत्व जुड़ेगा तब ही हमारी साधना किन्तु यदि वह भी सक्रिय रूप से इन कार्यों से जुड़ सके तो में पूर्णता आयेगी। हमें अपनी अहिंसा का हृदय शून्य नहीं भविष्य में जैन समाज मानव सेवा के क्षेत्र में एक मानदण्ड बनने देना है अपितु उसे मैत्री और करुणा से युक्त बनाना स्थापित कर सकेगा। है। जब अहिंसा में मंत्री और करुणा के भाव जड़ेगे तो सेवा
सादा जीवन और उच्च विचार :: श्री शान्तिभाई का व्यक्तित्व
श्री शान्तिभाई वनमाली शेठ उच्च जीवन-मूल्यों के लिए समर्पित मूक समाजसेवी रहे हैं। उनके जीवन में विद्या, सेवा और साधना की त्रिवेणी का संगम हुआ है। व्यक्ति अपने श्रम और साधना से कितना ऊपर उठ सकता है, इसका प्रमाण उनका और उनके परिवार का जीवन है। आज सरस्वती और लक्ष्मी दोनों की उन पर पूर्ण कृपा है। फिर भी वे आज वैसे ही सरल, सहज और सहृदय हैं, जैसे पहले थे। पार्श्वनाथ विद्याश्रम का यह सौभाग्य रहा है कि अपने निर्माण-काल में उसे शान्तिभाई जैसा निष्ठावान व्यवस्थापक मिला था। विद्याश्रम परिवार आज भी उन दिनों को अपने स्मृतिपटल में संजोये हुए हैं । आज जब उनका यह अमृतमहोत्हव मनाया जा रहा है हम सब अत्यन्त प्रफुल्लित हैं। विद्याश्रम परिवार यही कामना करता है कि वे शतायु हो और उनका आशीर्वाद और मार्गदर्शन हमें सदैव उपलब्ध होता रहे।
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सुप्रसिद्ध उद्योगपति श्री नवल मलजी फिरोदिया ने 'सत्यं शिवं सुन्दर' के प्रतीक कहकर श्री शान्तिभाई का अभिनंदन पिया।
समारोह के मुख्य अभिवक्ता सुप्रसिद्ध गांधीवादी साहित्यकार श्री यशपालजी जैन ने 'समन्वयदर्शी शान्तिभाई को अपने जीवनादर्श अहिंसावतार भ० महावीर, महात्मा बुद्ध और महात्मा गांधी के अहिंसा-पथ के अग्रगामी पथिक, सामाजिक व मठ कार्यकर्ता असाम्प्रदायिक प्रबुद्ध विचारक और योजनाबद्ध समाजसेवा करनेवाले अथक परिश्रमी सर्वोःयी सेवक के रूप में उनका हार्दिक अभिनंदन किया।
भारत जैन महामंडल के अध्यक्ष श्री नपराजजी जैन ने कहा कि श्री शान्तिभाई महामंडल के आदर्शों के अनुरूप जीवन व्यतीत करनेवाले संप्रदायातीत अखंड जन-समाज के प्रतिनिधि हैं । ऐसे जैनत्व के प्रहरी श्री शान्तिभाई का मैं अभिवंदन के साथ अभिनंदन करता हूं। पार्श्वनाथ विद्याश्रम के उपाध्यक्ष स्वातंत्र्य-सेनानी श्री गुलाबचंदजी जैन ने साल, ताम्रपत्र आदि भेंट देकर श्री शान्तिभाई का सन्मान किया।
श्री अ०भा० श्वे. स्थानकवासी जैन कान्फरेन्स के महामंत्री श्री हीरालाल जी जैन ने श्री शान्तिभाई को स्या जैन समाज के प्राण-प्रतिष्ठापक, समाज के एक वरिष्ठ हितचित क नेता और जैन प्रकाश' के यशस्वी संपादक के रूप में उनका हार्दिक अभिनंदन किया और पू० श्री आत्मारामजी सुवर्णचन्द्रक, शील्ड आदि समपित कर सन्मान किया और जन प्रकाश के वर्तमान संपादक और कॉन्फरेन्स के मानद मत्री श्री अजितराज सुराणा ने साल पहनाकर शान्तिभाई का सम्मान करते हुए कहा कि श्रद्धेय श्री शान्तिभाई हमारे लिए प्राणिमित्र पू० सुराणा जी जैसे ही आदरणीय हैं ।
श्री आत्मवल्लभ स्मारक शिक्षण-निधि के महामंत्री श्री राजकुमारजी जैन ने सहृदयी सौम्यमूर्ति शान्तिभाई को 'आचार में हिंसा और विचार में अनेकान्तवाद' के प्रखर पक्षपाती, कर्मठ सामाजिक कार्यकर्ता और प्रज्ञा-पुरुष के रूप में संबोधित किया और सामाजिक सौहार्द के प्रतीक के रूप में इस प्रसंग की पुण्यस्मृति में ‘महत्तरा साध्वी मगावती जी फाउन्डे गन' की ओर से श्री शान्तिभाई के सन्मानार्थ श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम को ५१ हजार रु० की धनराशि छात्रवृत्ति के लिए समर्पित की।
जिन अन्य व्यक्तियों ने श्री शान्तिलाल वनमाली शेठ के प्रति अपने उद्गार व्यक्त किये उनमें सर्वश्री भूपराज जैन, हीरालाल जैन, सुभाष ओसवाल, वीरायतन के अध्यक्ष श्री नवलमल फिरोदिया, सन्मति प्रतिष्ठान के निदेशक श्री धन्यकुमार जैन, अहिंसा जैन इन्टरनेशनल के मंत्री श्री सतीशकूमार जैन, श्री इन्द्रचन्द्र जैन, प्रगतिशील समाजसेवी श्री पन्नालाल नाहटा, शान्तिभाई के अग्रज श्री जयसुखलाल वनमाली शेठ, एवं जैन प्रकाश के सम्पादक श्री अजितराज सुराणा आदि प्रमुख थे।
अन्त में श्री शान्तिभाई ने अमृत महोत्सव को अपने जीवन-काल में मत्यू-महोत्सव को सफल बनाने में जिन्होंने सक्रिय सहयोग, शुभाशीर्वाद और स्नेह-सद्भाव का अमृत-जीवन-दान दिया है उन सभी का कृतज्ञता-ज्ञापन करते हुए हार्दिक आभार माना और अपनी अन्तर्भावना-'सरमति साहित्य प्रकाशन योजना' एवं 'जनविद्या-संस्थान' की स्थापना को सफ नीभूत करने में शुभाशीष और सक्रिय सहयोग देने की प्रार्थना की।
आभार विधि करते हुए समिति के महामंत्री श्री भूपेन्द्रनाथ जैन ने सभी का हार्दिक आभार माना और क्षतियों को माफ कर देने का अनुरोध किया।
श्री शान्ति लाल वनमाली शेठ का यह अमत महोत्सव जन-जन को अमतदान करते हए उन्हें अमर एवं यशस्वी बनाये, यही हम सबकी अन्तर्भावना और प्रार्थना है।
श्री शान्तिभाई के परिवार की ओर से भोजन की यथोचित व्यवस्था की गई। सुश्री चंदनबहिन के मंगलगीत के पश्चात आनंद और उल्लास के वातावरण में समारोह का समापन हुआ।
-इन्द्रचन्द्र जैन
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