________________
प्राप्त करना कोई बुरा नहीं-अपनी आत्मा को पतनोन्मुख उसका युद्ध कभी पूरा नहीं हो सकता । वैर-प्रतिवैर की ही करती है। भगवान् ने दान की महिमा की है। किन्तु परम्परा बनी रहेगी। आत्मा को जीतने का मतलब क्या है ? इसका अर्थ यह नहीं कि दान से बढ़कर कोई चीज संसार में अपनी पांचों इन्द्रियों को वश करके जितेन्द्रिय बन जाना, नहीं। उन्होंने कहा है कि जो प्रत्येक मास में लाख गायों का क्रोध को क्षमासे पराजित करना, मान को नम्रता से पराभूत दान देता है उससे भी कुछ भी नहीं देने वाले अकिञ्चन पुरुष करना, मायाका ऋजुता के द्वारा पराभव करना और लोभ का संयम अधिक श्रेयस्कर है । इसलिये धन-दौलत अपनी को निर्मोह से दबा देना तथा दुर्जय वानर-प्रकृति मनको अपने मर्यादा में रहकर ही न्यायसंपन्न मार्ग से कमाना और अन्त वश में कर लेना, यही आत्म-विजय है। ऐसे विजय में विश्व में सर्वस्व का त्याग कर अकिञ्चन होना यही भगवान् का जब मस्त बनेगा तब ही स्थायी शांति की प्रतिष्ठा हो सकती मार्ग है।
है, अन्यथा एक युद्ध को दबाकर नये युद्ध का बीज बोना है।
वीरों की वीरता सुखशीलताके त्याग में और कामनाओंशूद्र-धर्म
को शान्त कर निरीह होकर विचरण करने में है। निर्दोष शद्रोंको उन्होंने यही उपदेश दिया कि-तुमारा जन्म प्राणों की हत्या कर वैभव बढ़ाने में पराक्रम करना बह बंधका भले ही शूद्र कुल में हुआ, किन्तु तुम भी अच्छे कर्म करो तो हेत है। इसी जन्म में द्विज-सबके पूज्य बन सकते हो। नीच कहे जाने वाले कुल में जन्म कोई बाधक नहीं है।
अहिंसक मार्ग
भगवान का यह उपदेश सीधा-सादा प्रतीत होता है। क्षत्रिय-धर्म
किन्तु पालन में उतना ही कठिन है । यही कारण है कि बारप्रायः क्षत्रिय लोंगों का तो यह कार्य है कि पराया माल बार होने वाले भयंकर युद्ध के परिणाम देख कर भी लोग अपना करके पारस्परिक ईर्षा, द्वेष और शत्रुता को बढ़ा कर युद्ध को छोड़ते नहीं और अहिंसा के मार्ग को अपनाने की आपस में कलह करना। भगवान् भी क्षत्रिय थे। अतएव बजाय सब झगड़ोंके निपटारे का साधन उसी को समझते उन्होंने जैसा क्षत्रियधर्म-संसार में स्थायी शांति की प्रतिष्ठा आये हैं। किन्तु एक-न-एक दिन इन हिंसक युद्धों के तरीकों करने वाला क्षात्रधर्म सिखाया उसका निर्देश भी आवश्यक को छोड़कर भगवान् के बताये उक्त अहिंसक मार्ग का अव
लम्बन जन-समुदाय को करना ही होगा। अन्यथा अब तो उनका कहना था कि युद्धमें लाखों जीवों की हत्या करके एटम बंब और उससे भी अधिक विघातक अस्त्रों से अपने यदि कोई अपने आप को विजयी समझता है, तो वह धोखे में नाश के लिये तय्यार रहना चाहिए। जितनी जल्दी अहिंसक है। मनुष्य बाहरी सभी शत्रु को जीत ले, किन्तु अपने आप युद्ध में विश्वास किया जायगा उतना ही जल्दी इस मानवको जीतना बड़ा कठिन कार्य है। स्वयं आत्मा जब तक समुदाय का उद्धार है। अविजित रहती है तब तक सब युद्धों की जड़ बनी हुई है।
अहिंसक मार्ग
"भगवान का यह उपदेश सीधा-सादा प्रतीत होता है। किन्तु पालन में उतना ही कठिन है। यही कारण है कि बार-बार होने वाले भयंकर युद्ध के परिणाम देखकर भी लोग युद्ध को छोड़ते नहीं और अहिंसा के मार्ग को अपनाने की बजाय सब झगड़ोंके निपटारे का साधन उसी को समझते आये हैं। किन्तु एक-न-एक दिन इन हिंसक युद्धों के तरीकों को छोड़कर भगवान् के बताये उक्त अहिंसक मार्ग का अवलम्बन जन-समुदाय को करना ही होगा। अन्यथा अब तो एटम बंब और उससे भी अधिक विघातक अस्त्रों से अपने नाश के लिए तय्यार रहना चाहिए। जितनी जल्दी अहिंसक यद्ध में विश्वास किया जायगा उतना ही जल्दी इस मानव-समुदाय का उद्धार है।"
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org