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________________ 1 इस विश्व विजयी जैनत्व' के विकास में अनेक धर्माचायों, राष्ट्रनेताओं और समाजनायकों ने मुझे मार्गदर्शन दिया है, उन सभी का मैं कृतज्ञ हूँ जिन्होंने मुझे प्रेरणा पियूष का रसपान कराया है उनमें पू० जवाहिराचार्य, पू० चौथमलजी, आचार्य प्रवर आत्मारामजी, शतावधानी रत्नचंद्रजी, मानवता के उद्बोधक नानचंद्रजी अहिंसक समाज रचना के प्रेरक संतवालजी, स्पष्टवक्ता पू. काशीरामजी, श्री प्रेमचंद्रजी, आत्मार्थी मोहन ऋषिजी, सेवाव्रती चैतन्यजी शास्रोद्धारक अमोलऋषिजी प्रखर वक्ता प्राणलालजी सरलात्मा भावनाशील ज्ञानतपस्वी, आचार्य श्री आनंदऋषिजी शास्त्रज्ञ और समयज्ञ उपा० कवि अमरचंद्र जी विश्वधर्म के सत्प्रेरक सुशील मुनिजीयुवाचार्य श्री मधुकरजी, स्वाध्याय प्रेरक आचार्य हस्तिमलजी, धर्मपालोद्धारक आचार्य श्री नानालालजी आदि अनेक स्था० मुनिवयों के उपरांत तेरापंथी धर्म के अनुशास्ता आ० श्री तुलसीजी, बहुश्रुत प्रज्ञामूर्ति नथमलजी, विद्याव्यासंगी एलाचार्य विद्यानंदजी, साम्प्रदायिक एकता के पक्षपाती विद्याविजयजी, सर्वोदयी पू० जनकविजयजी, पुरातत्वविद् पुण्यश्लोक पुण्यविजय ती आदि अनेक नामी अनामी संतों का जीवन परिचय और प्रभाव पड़ा है लेकिन आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी का जो आध्यात्मिकता का प्रभाव पड़ा वह तो आजतक जीवन को उजागर कर रहा है । धर्मपिता श्री दुर्लभजी भाई, निर्भीक साहित्यकार वा० मो० शाह, धर्म और समाज में समन्वय करने वाले श्री चीमनलाल चकूभाई शाह, प्रामाणिक व्यापारी सूरजमल लल्लूभाई, समाजनिष्ठ राष्ट्रसेवक श्री दुर्लभ जीभाई, प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजी, आ० जिनविजयजी, पं० बेचरदासजी - की असाम्प्रदायिक पारगामी विद्वत्ता, सन्मित्र पं०दलसुखभाई की मित्रता को मैं कभी भूल ही नहीं सकता। पू० काकासाहेब, पू. विनोबाजी, श्री जयप्रकाशजी, श्री जैनेन्द्रजी, डॉ० श्री कोठारी जी, श्री सिद्धराजजी आदि महानुभावों की सर्वोदय दृष्टिने मुझे मानवता का सही मार्ग बताया । जिन्होंने मुझे साम्प्रदायिक के बंधनों से मुक्त किया, सामाजिकता और राष्ट्रीयता से बढ़कर मानवता का मूल्यांकन करने का शिक्षापाठ पढ़ाया और जैन जीवन जीने की 'धर्मकला सिखाई—उन सभी का मैं हृदय से कृतज्ञ हूँ। मैं उनके उपकार को कभी भूल ही नहीं सकता — लेकिन सेवामूर्ति पूज्य पिताजी, श्रद्धामूर्ति पू० मातुश्री एवं वात्सल्य मूर्ति ज्येष्ठभाई पू० श्री जयसुखभाई - जिनकी छत्रछाया में मैं इतना आगे बढ़सका उन सभी हितैषी आप्तजनों के उपकार का ऋण कैसे चुका सकूंगा ! मेरी दयामूर्ति धर्मपत्नी और कुटुम्ब के सभी छोटे-बड़े आत्मीय जनों के सहयोग के लिए मैं मौन ही रहना उचित समझता हूँ । जिन्होंने मेरा जीवन-पथ प्रशस्त किया है उन सभीनामी अनामी, परिचित अपरिचित सभी का हृदय से आभार मानता हूँ। मैं उन सभी के उपकारों के लिए मैं कृतज्ञ हूँ और नतमस्तक है। - 'मिती से सम्बभूवेरं मन केणइ' इस सूत्रानुसार मुझे सभी के साथ मैत्रीभाव है, किसी के साथ वैरभाव नहीं है । मेरी ज्ञात-अज्ञात क्षतियों के लिए हृदय से मैं क्षमाप्रार्थी हूँ । Jain Education International 0000 1000000050 GEODOLOR DOOD For Private & Personal Use Only - विनीत शान्तिलाल www.jainelibrary.org
SR No.012073
Book TitleShantilal Vanmali Sheth Amrut Mahotsav Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherSohanlal Jain Vidya Prasarak Samiti
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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