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________________ है। आत्मसंयम के अभाव में प्रथाओं या काननों का कोई बस जहाँ जीवन बड़ी जल्दबाजी में तथा एक कृत्रिम वातावरण नहीं चलता । सौभाग्य से प्रत्येक समाज में कुछ मात्रा में में बीतता है। मनुष्य एक अबुध दुश्चक्र में फंस जाता है। आत्मसंयम वर्तमान है। परतु उसे विकसित करना तथा वह मानसिक व्याधियों, तथा आंशिक अथवा पूर्ण रूप से प्रबुद्ध बनाना आवश्यक है, जिससे वह विश्व-कल्याणकारी शिरा-भंग (मानसिक थकावट का रोग) का शिकार बनता आर्थिक व्यवस्था का मूलाधार बन सके तथा उसके लिये है, जो आधुनिक युग का सबसे दुःखद पहलू है। 'जीवन-संग्राम आवश्यक प्रेरणा दे सके। अथवा यों कहिये कि ऊंचे जीवन का संग्राम इतना विकट हो गया है कि वह अपरिग्रह के अस्त्र से ही लड़ा जा सकता है। अपरिग्रह एक दूसरे दृष्टिकोण से हम कह सकते हैं कि यह अणुव्रत संयम की शिक्षा का स्वाभाविक परिणाम 'अपरिग्रह' सम्यक् विवेक तथा वस्तुओं के समुचित मूल्यांकन की शिक्षा है। जैनधर्म का यह एक मौलिक सिद्धांत है। सांसारिक सखों देता है। का स्वेच्छा से त्याग, वासनाओं से विरक्ति, आडम्बरों से निलिप्त तथा वस्तुओं के संग्रह का मोहत्याग-यही अपरिग्रह व्रतों की अखण्डता के लक्षण हैं । अपरिग्रह का मंतव्य समझाते हुए नीतिकारों ने अणव्रतों के उक्त विवेचन से स्पष्ट हो गया होगा कि वे कहा है कि 'मनुष्य को अपनी भौतिक सम्पत्ति का मोह नहीं परस्पर सापेक्ष तथा एक दूसरे के पूरक हैं। एक व्रत का रखना चाहिये तथा प्रलोभनों से सदा बचना चाहिये।' वह पालन न्यायतः दूसरे व्रत की ओर ले जाता है। और वस्तुतः अपनी आवश्यकता-पूर्ति के लिए सम्पत्ति तथा वस्तुयें रख वह अन्य व्रतों के पालन के बिना व्यर्थ सिद्ध होगा। इनमें सकता है, परंतु उसे अर्थप्राप्ति करने में 'अपने' को भूला केवल अहिंसा व्रत को ही सबसे प्रथम स्थान देना होगा। यह देना नहीं चाहिये । उसे राग, द्वेष, क्रोध, मान, लोभ, शोक, व्रत उच्च आध्यात्मिक जीवन का शिलाधार है। जैन तथा भय, जुगुप्सा आदि का त्याग करना चाहिये। बौद्ध धर्म में अहिंसा का अर्थ केवल 'दया' नहीं है, बल्कि प्राणीयदि इस अणुव्रत का पालन किया जाय, तो इसे धन मात्र से 'मैत्रीभाव' भी है। अहिंसा का सिद्धांत स्वतः पूर्ण है। तथा साम्राज्य के लिये उस क्रूर तथा प्रचंड प्रतिद्वन्द्विता का यह इस बात का एक और प्रमाण है कि आचारयुक्त जीवन, अन्त हो जायगा, जो आधुनिक युग का शाप है तथा सभी मानसिक दृष्टिकोण का परिणाम होता है । अहिंसा की ही दु:खों की जननी है। आज अपरिग्रह की जितनी आवश्यकता भांति अस्तेय तथा अपरिग्रह भी ऊपर से निषेधात्मक सिद्धांत है, उतनी पहले कभी नहीं थी। यह अपरिग्रह, सर्वभक्षी विदित होते हैं, पर व्यवहार में वे विधेयात्मक सिद्धान्त हैं। भौतिकवाद का परिहार करने वाली है। विज्ञान ने वस्तुओं पाँचों अणुव्रत मिलकर समस्त नैतिक तथा आध्यात्मिक का उत्पादन कई गुना बढ़ा दिया है तथा जहाँ-तहाँ अनावश्यक जीवन के अखंड सिद्धान्त सिद्ध होते हैं तथा आत्मोन्नति का वस्तुओं का ढेर लगा दिया है। आधुनिक उद्योग-धंधों ने मार्ग निर्देशित करते हैं। तथा व्यवसाय ने बड़े-बड़े नगरों के विकास में योग दिया है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012073
Book TitleShantilal Vanmali Sheth Amrut Mahotsav Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherSohanlal Jain Vidya Prasarak Samiti
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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