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कहना है कि भगवान महावीर के निर्वाण के १००० वर्ष बाद में सबसे प्राचीन अंश है। उसमें परिवर्धन और परिवर्तन ही सिर्फ पूर्वगत का विच्छेद हुआ है।
सर्वथा नहीं है यह तो नहीं कहा जा सकता। किंतु उसमें नया __ जब तक उसका विच्छेद नहीं हुआ था, तब तक सबसे कम मिलाया गया है यह तो निश्चयपूर्वक कहा ही जा आचार्यों ने पूर्व के विषयों को लेकर कई रचनाएँ की थीं। सकता है। वह भगवान् के साक्षात् उपदेश रूपन भी हो तब ऐसी अधिकांश रचनाओं का समावेश अंग-बाह्य में किया भी उसके अत्यन्त निकट तो हैं ही। ऐसी स्थिति में उसे हम गया है। कुछ ऐसी ही रचनाएँ हैं जिनका समावेश अंग में भी विक्रम पूर्व ३००के बाद की संकलना नहीं कह सकते। अधिक किया गया है।
संभव यही है कि वह प्रथम वाचना की संकलना है। आचादिगम्बर ने १४, स्थानकवासियों ने २१ और रांग का द्वितीय श्रुतस्कंध आचार्य भद्रबाह के बाद की रचना श्वेताम्बरों ने ३४ अंग-बाह्य ग्रंथ माने हैं।
होना चाहिए क्योंकि उसमें प्रथम श्रुतस्कंध की अपेक्षा श्वेताम्बरों के मत से उपलब्ध ११ अंग और ३४ अंग- भिक्षुओं के नियमोपनियम के वर्णन में विकसित भूमिका की बाह्य ग्रन्थों की सूची इस प्रकार है :
सूचना मिलती है। इसे हम विक्रमपूर्व दूसरी शताब्दी से ११ अंग-पूर्वोक्त आचारांग आदि।
इधर की रचना नहीं कह सकते । किंतु इसका मतलब यह १२ उपांग-औपपातिक आदि पूर्वोक्त ।
नहीं है कि उसमें जो कुछ संकलित है वह इसी शताब्दी का १० प्रकीर्णक-१ चतुःशरण, २ आतुरप्रत्याख्यान, है। वस्तु तो पुरानी है, वह गणधरों से परंपरा से चली ही
३ भक्त-परिज्ञत, ४ संस्तारक, आती थी। उसी को संकलित किया गया । इसका मतलब ५ तंदुलवैचारिक, ६ चन्द्रवेध्यक, यहभी नहीं समझना चाहिए कि विक्रम पूर्व दूसरी शताब्दी ७ देवेन्द्रस्तव, ८ गणिविद्या, के बाद इसमें कुछ नया नहीं जोड़ा गया है। स्थानांग जैसे ६ महाप्रत्याख्यान और १० अंग ग्रंथों में वीर निर्वाण की छठी शताब्दी की घटना का वीरस्तव'।६
उल्लेख आता है। किंतु ऐसे कुछ अंशों को छोड़ करके ६ छेदसूत्र-निशीथ, २ महानिशीथ, ३ व्यवहार, ४ बाकीसब भाव पुराने ही हैं। भाषा में यत्रतत्र काल की
दशाश्रुतस्कंध, ५ बृहत्कल्प, ६ जीतकल्प। गति और प्राकृत भाषा होने के कारण भाषा-विकास ४ मूल-उत्तराध्ययन, २ दशवैकालिक, ३ आवश्यक के नियमानुसार परिवर्तन होना अनिवार्य है। क्योंकि प्राचीन और ४ पिण्डनियुक्ति।
समय में इसका पठनपाठन लिखित ग्रंथोंमें नहीं किंतु कण्ठोपका सूत्र-१ नदी-सूत्र, २ अनुयोगद्वार। कण्ठ से होता था। प्रश्न-व्याकरण अंग का वर्णन जैसा (६) आगम की रचना का काल
नन्दीसूत्र में है उसे देखते हुए उपलब्ध प्रश्न-व्याकरण अंग जैसा पहले हमने देखा आगमशब्द वाच्य एक ग्रंथ नहीं समूचा ही बाद की रचना हो ऐसा प्रतीत होता है। वालभी किंतु अनेककर्तृक अनेक ग्रंथों का समुदाय है। अतएब आगम वाचनाके बाद कब यह अंग नष्ट हो गया, कब उसके स्थान की रचना का कोई एक काल बताया नहीं जा सकता।
में नया बनाकर जोड़ा गया इसके जानने का हमारे पास कोई भगवान महावीर का उल्लेख विक्रम पूर्व ८०० वर्षों में शुरू
साधन नहीं । इतना ही कहा जा सकता है कि अभयदेव की हुआ। अतएव उपलब्ध किसी आगम की रचना उसके पहले टीका, जो कि वि० १२ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में लिखी गई होना संभव नहीं और दूसरी ओर अंतिम वाचना के आधार है, से पहले वह कभी बन चुका था। पर पुस्तक-लेखन वलभी में विक्रम सं०८१० (मतांतर से उपांग के समय के बारे में अब विचार क्रम प्राप्त है। ५२३) में हुआ। अतएव तदन्तर्गत कोई शास्त्र विक्रम ५२५ प्रज्ञापना का रचनाकाल निश्चित ही है। प्रज्ञापना के कर्ता आर्य से बाद का नहीं हो सकता"। इस मर्यादा को ध्यान में रखकर श्याम हैं । उनका दूसरा नाम कालकाचार्य (निगोदव्याख्याता) हमें सामान्यतः आगमकी रचनाके कालका विचार करना है। हैं। इनको वीरनिर्वाण सं० ३३५ में युगप्रधान-पद मिला है। ___अंग-ग्रंथ गणधरकृत कहे जाते हैं किंतु उनमें सभी एक से और वे उस पद पर ३७६ तक बने रहे। इसी काल की रचना प्राचीन नहीं हैं। आचारांग के ही प्रथम और द्वितीय श्रुत- प्रज्ञापना है। अतएव यह रचना विक्रमपूर्व १३५ से १४ के स्कंध भाव और भाषा में भिन्न हैं यह कोई भी कह सकता है बीच की होनी चाहिए । शेष उपांगों के कर्ता का कोई पता प्रथम श्रतरबंध हितीय से ही नहीं वितु समस्त जैन वाङ्मय नहीं। किंतु इनके कर्ता गणधर तो माने नहीं जाते। अन्य
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