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पूर्व के ही आधार पर जब सरल रीति से ग्रन्थ बने तब पूर्वो तीनों सम्प्रदायों के मतसे अन्तिम अंग दृष्टिवाद का के अध्ययन-अध्यापन की रुचि कम होना स्वाभाविक है और सर्वप्रथम लोप हो गया है। यही कारण है कि सर्वप्रथम विच्छेद भी उसी का हुआ। दिगम्बर मत से श्रत का विच्छेद
यह तो एक सामान्य सिद्धान्त हुआ। किन्तु कुछ ग्रन्थों दिगम्बरों का कहना है कि वीरनिर्वाण के बाद श्रुत का और प्रकरणों के विषय में तो यह स्पष्ट निर्देश है कि उनकी क्रमशः 'हास होते होते ६८३ वर्ष के बाद कोई अंगधर यारचना अमुक पूर्व से की गई है। यहाँ हम उनकी सूची देते पूर्वधर आचार्य रहा ही नहीं । अंग और पूर्व के अंशमात्र के हैं--जिससे पता चल जायगा कि सिर्फ दिगम्बर मान्य ज्ञाता आचार्य हुए। अंग और पूर्व के अंशधर आचार्यों की षट्खण्डागम और कषायप्राभूत ही ऐसे ग्रन्थ नहीं जिनकी परंपरा में होनेवाले पुष्पदंत और भूतबलि आचार्यों ने षट्रचना पूर्वो के आधार से की गई है किन्तु श्वेताम्बरों के खण्डागम की रचना दूसरे अग्रायणीय पूर्व के अंश के आधार आगमरूप से उपलब्ध ऐसे अनेक ग्रन्थ और प्रकरण हैं जिनका से की और आचार्य गणधर ने पांचवें पर्व ज्ञान प्रवाद के अंश आधार 'पूर्व' ही है।
के आधार से कषायपाहड की रचना की। इन दोनों ग्रंथों को १. महाकल्प श्रुत नामक आचारांग के निशीथाध्ययन दिगम्बर आन्नाय में आगम का स्थान प्राप्त है। उसके की रचना, प्रत्याख्यान पूर्व के तृतीय आचार वस्तु के बीसवें
मतानुसार अंग-आगम लुप्त हो गये हैं। पाहुड से हुई है।३८
दिगम्बरों के मत से वीर निर्वाण के बाद जिस क्रम से २. दशवकालिक सूत्र के धर्मप्रज्ञप्ति अध्ययनकी आत्म- श्रत का लोप हआ वह नीचे दिया जाता हैप्रवाद पूर्व से, पिण्डैषणाध्ययनकी कर्मप्रवाद पूर्व से, वाक्य
३. केवली-गौतमादि पूर्वोक्त- ६२ वर्ष शुद्धि अध्ययन की सत्यप्रवाद पूर्व से और शेष अध्ययनों की
५. श्रुतकेवली-विष्णु-आदि पूर्वोक्त- १०० वर्ष रचना नवम प्रत्याख्यान पूर्व के ततीय वस्तु से हुई है। इसके
११. दशपूर्वी--विशाखाचार्यादि पूर्वोक्त- १८३ वर्ष रचयिता शय्यंभव है।
५. एकादशांगधारी
नक्षत्र ३. आचार्य भद्रबाह ने दशाश्रतस्कंध,कल्प और व्यवहार
जसपाल सूत्र की रचना प्रत्याख्यान पूर्व से की है।
(जयपाल) ४. उत्तराध्ययन का परीषहाध्ययन कर्मवाद पूर्व से
पाण्डु
२२० वर्ष उद्धृत है।
ध्रुवसेन
कंसाचार्य इनके अलावा आगमेतर साहित्य में खास कर कर्म
४. आचारांगधारीसाहित्य का अधिकांश पूर्वोद्धत है किन्तु यहाँ अप्रस्तुत होने से
सुभद्र
यशोभद्र उनकी चर्चा नहीं की जाती है।
११८ वर्ष
यशोबाहु (५) जैनागमों की सूची
लोहाचार्य १२ अंग
दिगम्बरों के अंगबाह्य ग्रन्थ अब यह देखा जाय कि जैनों के द्वारा कौन-कौन से ग्रन्थ उक्त अंग के अतिरिक्त १४ अंगबाह्य आगमों की रचना वर्तमान में व्यवहार में आगमरूप से माने गये हैं ?
भी स्थविरों ने की थी, ऐसा मानते हुए भी दिगम्बरों का जैनों के तीनों सम्प्रदायों में इस विषय में तो विवाद है कहना है कि उन अंगबाह्यागम का भी लोप हो गया है। उन ही नहीं कि सकल श्रुत का मूलाधार ग्रथित 'द्वादशांग' है। चौदह अंगबाह्य आगमों के नाम इस प्रकार हैंतीनों सम्प्रदाय में बारह अंगों के नाम के विषय में भी प्रायः १ सामायिक २ चतुर्विशतिस्तव ३ वंदना ४ प्रतिऐकमत्य है । वे बारह अंग ये हैं
क्रमण ५ वैनयिक ६ कृतिक्रम ७ दशवकालिक ८ उत्तरा१ आचार, २ सूत्रकृत, ३ स्थान, ४ समवाय, ५ व्याख्या- ध्ययन ६ कल्पव्यवहार १० कल्पाकल्पिक ११ महाप्रज्ञप्ति, ६ ज्ञातृधर्मकथा, ७ उपासकदशा, ८ अंतकृद्दशा, कल्पिक १२ पुण्डरीक १३ महापुण्डरीक, १४ निशीथिका। ६ अनुत्तरौपपातिकदशा, १० प्रश्नव्याकरण, ११ विपाकसूत्र, श्वेताम्बरों के दोनों सम्प्रदायों के अंगबाह्म ग्रंथों की और १२ दृष्टिवाद ।
और तद्गत अध्ययनों की सूची को देखने से स्पष्ट हो जाता
६८३ वर्ष
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