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जयसन
२१"
सुधर्मा४
४४ "
२३ "
१४ "डिया
अतएव श्वेताम्बरों के मत से यही कहना होगा कि क्षत्रिय १७ वर्ष सुहस्तिन् ४६ वर्ष भद्रबाह की मृत्यु के साथ ही अर्थात् वीरात १७० वर्ष के बाद
गुणसुन्दर ४४ श्रतकेवली का लोप हो गया। उसके बाद संपूर्ण श्रुत का ज्ञाता नागसेन १८” कालक (प्रज्ञापनाकर्ता) ४१" कोई नहीं हुआ। दिगम्बरों ने श्रुतकेवली का लोप १६२ वर्ष सिद्धार्थ
स्कंदिल (सांडिल्य) ३८ बाद माना है। दोनों की मान्यताओं में सिर्फ ७ वर्ष का
घृतिषण
रेवती मित्र अंतर है। आचार्य भद्रबाहु तक की दोनों की परंपरा इस विजय
आर्य मंग प्रकार है
बुद्धिलिंग
आर्य धर्म दिगम्बर
श्वेताम्बर२३ देव
भद्रगुप्त केवली-गौतम १२ वर्ष ।
२० वर्ष - धर्मसेन
श्रीगुप्त सुधर्मा १२" जम्बू
आर्य वज्र जम्बू
१८३ वर्ष
४१४ वर्ष श्रुतकेवली-विष्णु १४" प्रभव
+१६२३४५ +१७०५८४ नन्दिमित्र १६ शय्यंभव
आर्य वज्र के बाद आर्य रक्षित हुए। वे १३ वर्ष पर्यन्त अपराजित २२ यशोभद्र
युग-प्रधान रहे। उन्होंने भविष्य में मति-मेधा-धारणादि से गोवर्धन
संभूतिविजय " रहित ऐसे शिष्यों को जान करके अनुयोगों का विभाग कर भद्रबाहु २६" भद्रबाहु
दिया। अभी तक किसी एक सूत्र की व्याख्या चारों प्रकार १६२ वर्ष
१०० वर्ष के अनुयोगों से होती थी। उसके स्थान में उन्होंने विभाग कर सारांश यह है कि गणधरग्रथित १२ अंगों में से प्रथम दिया कि अमुक सूत्र की व्याख्या सिर्फ एक ही अनुयोग-परक वाचन के समय चार पूर्व न्यून १२ अंग श्रमणसंघ के हाथ
की जायगी । जैसे, चरणकरणानुयोग में कालिक श्रुत ग्यारह लगे क्योंकि स्थूलभद्र यद्यपि सूत्रतः संपूर्णश्रुत के ज्ञाता थे अंग, महाकल्पश्रुत और छेद सूत्रों का समावेश किया: धर्मकिंतु उन्हें चार पूर्व की वाचना दूसरों के देने का अधिकार कथानुयोग में ऋषिभाषितों का; गणितानयोग में सर्यनहीं था। अतएव तब से संघ में श्रुतकेवली नहीं किंतु दशपर्वी प्रज्ञप्ति का, और दृष्टिवाद का द्रव्यानयोग में समावेश कर हए और अंगों में से इतने ही श्रुत की सुरक्षा का प्रश्न था। दिया।"
जब तक इस प्रकार के अनुयोगों का विभाग नहीं था तब अनुयोगपृथक्करण और पूर्वो का विच्छेद
तक आचार्यों के लिए प्रत्येक सूत्रों में विस्तार से नयावतार श्वेताम्बरों के मत से दशपूर्वीओं की परंपरा का अंत करना भी आवश्यक था किंतु जब से अनुयोगों का पार्थक्य आचार्य वज्र के साथ हुआ । आचार्य वज्र को मृत्यु विक्रम किया गया तब से नयावतार भी अनावश्यक हो गया।८ ११४ में हुई अर्थात् वीरात् ५८४। इसके विपरीत दिगम्बरों आर्यरक्षित के बाद श्रुत का पठन-पाठन पूर्ववत नहीं की मान्यता के अनुसार अंतिम दशपूर्वी धर्मसेन हुए और चला होगा और उसमें पर्याप्त मात्रा में शिथिलता हुई होगी वीरात् ३४५ के बाद दशपूर्वी का विच्छेद हुआ अर्थात् यह उक्त बात से स्पष्ट है । अतएव श्रुत में उत्तरोत्तर ह्रास श्रतकेवली का विच्छेद दिगम्बरों ने श्वेताम्बरों से आठ वर्ष होना भी स्वाभाविक है। स्वयं आर्य रक्षित के लिए भी कहा पर्व माना और दशपूर्वी का विच्छेद २३६ वर्ष पूर्व माना। गया है कि वे संपूर्ण नवपूर्व और दशम पूर्व के २४ यविक मात्र तात्पर्य यह है कि श्रुत-विच्छेद की गति दिगम्बरों के मत से के अभ्यासी थे। अधिक तेज है।
आर्य रहित भी अपने सभी शिष्यों को यावत् ज्ञात श्रुत श्वेताम्बरों और दिगम्बरों के मत से दशपूर्वधरों की देने में असमर्थ ही हुए। उनकी कथा में कहा गया है कि उनके सूची इस प्रकार है :
शिष्यों में से सिर्फ दुर्बलिका पुष्पमित्र ही संपूर्ण नवपूर्व पढ़ने में दिगंबर५
श्वेतांबर२६ समर्थ हुआ किन्तु वह भी उसके अभ्यास के न कर सकने के विशाखाचार्य १० वर्ष स्थूलभद्र ४५ वर्ष कारण नवम पूर्व को भूल गया। उत्तरोत्तर पूर्वो के विशेषप्रोष्ठिल
महागिरि ३०" पाठियों का ह्रास होकर एक समय ऐसा आया जब पूर्वो का
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