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शास्त्र प्रसिद्ध हैं, क्या वे जिनों का साक्षात् उपदेश हैं ? अर्थात् लिए हैं। इनका प्रामाण्य स्वतंत्रभाव से नहीं किन्तु गणधरक्या जिनों ने उनको ग्रंथबद्ध किया था ?
प्रणीत आगम के साथ अविसंवाद-प्रयुक्त है। इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले इतना स्पष्टीकरण संपूर्ण श्रतज्ञान जिसने हस्तगत किया हो उसका केवली आवश्यक है कि अभी उपलब्ध जो आगम हैं वे स्वयं गणधर- के वचन के साथ विरोध न होने में एक यह भी दलील दी ग्रथित आगमों की संकलना है। यहाँ जैनों की तात्त्विक जाती है कि सभी पदार्थ तो वचनगोचर होने की योग्यता मान्यता क्या है उसी को दिखाकर उपलब्ध जैनागम के विषय नहीं रखते । संपूर्ण ज्ञेय का कुछ अंश ही तीर्थंकर के वचन में आगे विशेष विचार किया जायगा।
का गोचर हो सकता है। उन वचन रूप द्रव्यागम श्रुतज्ञान जैन अनुश्रुति उक्त प्रश्नका उत्तर इस प्रकार देती है- को जो संपूर्ण हस्तगत कर लेता है वही तो 'श्रुतकेवली' होता जिन भगवान उपदेश देकर-तत्त्व और आचार के मूल ।
है अतएव जिस बात को तीर्थकर ने कही थी उसको श्रुतकेवली सिद्धान्त का निर्देश करके कृतकृत्य हो जाते हैं। उन उपदेश भी कह सकता है । इस दृष्टि से केवली और श्रतकेवली में को जैसा कि पूर्वोक्त रूपक में बताया गया है, गणधर या
कोई अन्तर न होने के कारण दोनों का प्रामाण्य समान रूप विशिष्ट प्रकार के साधक ग्रंथ रूप देते हैं। फलितार्थ यह है कि 'ग्रन्थबद्ध उपदेश का जो तात्पर्यार्थ है उसके प्रणेता जिन
कालक्रम से वीरनिर्वाण १७० वर्ष के बाद, मतान्तर से वीतराग-तीर्थकर हैं किन्तु जिस रूप में वह उपदेश ग्रन्थबद्ध
१६२ वर्ष के बाद, जैन संघ में उक्त श्रुतकेवली का भी अभाव या सूत्रबद्ध हुआ उस शब्द रूप के प्रणेता गणधर ही हैं।
हो गया और सिर्फ दशपूर्वधर ही रह गये तब उनकी विशेष जैनागम तीर्थंकर-प्रणीत" कहा जाता है इसका मतलब यह
योग्यता को ध्यान में रखकर जैन संघ ने दशपूर्वधर-ग्रथित
ग्रंथों को भी आगम में समाविष्ट कर लिया। इन ग्रंथों का भी कि ग्रन्थार्थ-प्रणेता वे थे, सूत्रकार नहीं।
प्रामाण्य स्वतंत्र भाव से नहीं किन्तु गणधर-प्रणीत आगम के पूर्वोक्त विवरण से स्पष्ट है कि सूत्र या ग्रंथ रूप में
साथ अविरोध प्रयुक्त है। उपस्थित गणधरप्रणीत जैनागम का प्रामाण्य गणधरकृत होने
जैनों की मान्यता है कि चतुर्दशपूर्वधर वे ही साधक हो मात्र से नहीं किन्तु उसके अर्थ के प्रणेता तीर्थकर की वीत
सकते हैं जिनमें नियमतः सम्यग्दर्शन होता है-(बृहत्-१३२) रागता और र्वार्थसाक्षात्कारिता के कारण ही हैं।
अतएव उनके ग्रंथों में आगम-विरोधी बातों की संभावना ही जैनथति के अनुसार तीर्थकर के समान अन्य प्रत्येक
नहीं। यही कारण है कि उनके ग्रंथ भी कालक्रम से आगमबुद्धोक्त आगम भी प्रमाण हैं।
अन्तर्गत कर लिए गये हैं। जैन परंपरा के अनुसार सिर्फ द्वादशांगी आगमान्तर्गत
आगे चलकर ऐसे कई आदेश जिनका समर्थन किसी नहीं क्योंकि गणधर-कृत द्वादशांगी के अतिरिक्त अंगबाह्य ।
त अगबाह्य शास्त्र से नहीं होता है किन्तु जो स्थविरों ने अपनी प्रतिभा रूप अन्यशास्त्र भी आगमरूप से मान्य हैं और वे गणधरकृत
के बल से किसी विषय में दी हुई सम्मति मात्र है-उनका नहीं क्योंकि गणधर सिर्फ द्वादशांगी की ही रचना करते हैं,
समावेश भी अंगबाह्य आगम में कर लिया गया है। इतना ही ऐसी अनुश्रुति है। अंगबाह्य रूप से प्रसिद्ध शास्त्र की रचना
- नहीं, कुछ मुक्तकों को भी उसी में स्थान प्राप्त है।६ अन्य स्थविर करते हैं।
___ आदेश और मुक्तक आगमान्तर्गत हैं कि नहीं ! इसके ऐसे स्थविर दो प्रकार के होते हैं-संपूर्ण श्रुतज्ञानी और विषय में दिगम्बर परम्परा मौन है किन्तु गणधर, प्रत्येकबुद्ध, दशपूर्वी संपूर्णश्रुतज्ञानी अर्थात् चतुर्दशपूर्वी या श्रुतकेवली चतुर्दशपूर्वी और दशपूर्वी-ग्रथित सभी शास्त्र आगमान्तर्गत गणधरप्रणीत संपूर्ण द्वादशांगी रूप जिनागम के सूत्र और हैं इस विषय में दोनों का ऐकमत्य है। अर्थ के विषय में विशेषतः निपुण होते हैं । अतएव उनकी ऐसी इस चर्चा से यह तो स्पष्ट ही है कि पारमार्थिक दष्टि योग्यता मान्य है कि वे जो कुछ कहेंगे या लिखेंगे, उनका से सत्य का आविर्भाव निर्जीव शब्द में नहीं किन्तु सजीव जिनागम के साथ कुछ भी विरोध नहीं हो सकता। जिनोक्त आत्मा में होता है अतएव किसी पुस्तक के पन्ने का महत्त्व विषयों का संक्षेप या विस्तार करके तत्कालीन समाज के तब तक ही है जब तक वह आत्मोन्नति का साधन बन सके। अनुकूल ग्रन्थ-रचना करना ही उनका प्रयोजन होता है। इस दृष्टि से संसार का समस्त साहित्य जैनों का उपादेय हो अतएव ऐसे ग्रंथों को सहज ही में संघ ने जिनागमान्तर्गत कर सकता है क्योंकि योग्य और विवेकी आत्मा के लिए अपने
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