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जैन-आगम
प्रो. दलसुख मालवणिया मानद निदेशक, श्री द० ला० भारतीय विद्या-मंदिर, अहमदाबाद
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पौरुषेयता-अपौरुषेयता
'जिन' होकर उपदेश देगा वह आचार का सनातन सत्य ब्राह्मण-धर्म में वेद-श्रति का और बौद्धधर्म में त्रिपिटक सामायिक-समभाव-विश्ववात्सल्य-विश्वमैत्री का तथा का जैसा महत्त्व है वैसा ही जैनधर्म में श्रुत-आगम-गणिपिटक विचार का सनातन सत्य-स्याद्वाद-अनेकान्तवाद-विभज्यका महत्व है। ब्राह्मण दार्शनिक मीमांसकों ने वेद-विद्या वाद काही उपदेश देगा । ऐसा कोई काल नहीं जब उक्त सत्य को सनातन मानकर अपौरुषेय बताया और नैयायिक- का अभाव हो। अतएव जैन आगम को इस दृष्टि से अनादि वैशेषिक आदि दार्शनिकों ने उसे ईश्वर-प्रणीत बताया किन्तु अनन्त कहा जाता है, वेद की तरह अपौरुषेय कहा जाता है। वस्ततः देखा जाय तो दोनों के मत से यही फलित होता है कि एक जगह कहा गया है कि वाटि # वेदरचना का समय अज्ञात ही है। इतिहास उसका पता नहीं ।
शरीर-सम्पत्ति और वर्धमान की शरीरसम्पत्ति में अत्यन्त लगा सकता। इसके विपरीत बौद्ध त्रिपिटक और जैन गणि- वैलक्षण्य होने पर भी इन सभी के धृति, संघयण और शरीरपिटक पौरुषेय हैं, ईश्वरप्रणीत नहीं हैं और उनकी रचना के रचना का विचार किया जाय तथा उनकी आन्तरिक काल का भी इतिहास को पता है।
योग्यता केवलज्ञान का विचार किया जाय तो उन सभी मनुष्य पुराणप्रिय है। यह भी एक कारण था कि वेद की योग्यता में कोई भेद न होने के कारण उनके उपदेश में अपौरुषेय माना गया है। जैनों के सामने भी यह आक्षेप हुआ कोई भेद नहीं हो सकता। और दूसरी बात यह भी है कि होगा कि तुम्हारे आगम तो नये हैं, उसका कोई प्राचीन मूल- संसार के प्रज्ञापनीय भाव तो अनादि अनन्त हैं । अतएव जब आधार नहीं। उत्तर दिया गया कि द्वादशांगभूत गणिपिटक कभी सम्यग्ज्ञाता उनका प्ररूपण करेगा तो कालभेद से प्ररूपणा कभी नहीं था ऐसा भी नहीं, और कभी नहीं है ऐसा भी नहीं, में भेद नहीं हो सकता । इसीलिए कहा जाता है कि द्वादशांगी और कभी नहीं होगा ऐसा भी नहीं। वह तो था और होगा। अनादि अनंत है। सभी तीर्थंकरों के उपदेश की एकता का वह ध्रव है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, उदाहरण शास्त्र में भी मिलता है । आचारांग सूत्र में कहा अवस्थित है और नित्य है।
. गया है कि "जो अरिहंत प्रथम हो गए । जो अभी वर्तमान में जब यह उत्तर दिया गया तो उसके पीछे यह तर्क था कि हैं और जो भविष्य में होंगे उन सभी का एक ही उपदेश है पारमार्थिक दृष्टि से देखा जाय तो सत्य एक ही है। सिद्धांत एक कि- 'किसी भी प्राण, जीव, भूत और सत्त्व की हत्या मत ही है। नाना देश, काल और पुरुष की दृष्टि से उस सत्य का करो, उनके ऊपर अपनी सत्ता मत जमाओ, उनको गुलाम मत आविर्भाव नाना प्रकार से होता है किन्तु उन' आविर्भावों में बनाओ और उनको मत सताओ, यही धर्म ध्र व है, नित्य है. - एक ही सनातन सत्य अनुस्यूत है। उस सनातन सत्य की ओर शाश्वत है और विवेकी पुरुषों ने बताया हआ है।' दष्टि दी जाय और आविर्भाव के प्रकारों की उपेक्षा की जाय किन्तु यदि व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाय कि सत्य तब यही कहना होगा कि जो भी रागद्वेष की जय करके- का आविर्भाव किस रूप में हुआ, किसने किया, कब किया
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