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वाली भूलों का पर्यालोचन और पश्चात्ताप करता है। इसके १४. कर्मवाद छह अंग हैं
न्याय अर्थात् पुरुषार्थ और फल में समता । जैनदर्शन का
कथन है कि अपने भविष्य को बनाना या बिगाड़ना स्वयं (क) सामायिक-समभाव धारण करना।
व्यक्ति के हाथ में हैं । आँखें बन्द करके गड्ढे की ओर चलने (ख) चतुर्विंशतिस्तव -चौबीस तीर्थकरों की स्तुति । वाला उसमें गिर पड़ेगा। इसके लिये वह स्वयं उत्तरदायी है,
इसके द्वारा वर्तमान युग के उन महापुरुषों का कोई बाह्य शक्ति नहीं गिराती । अजीर्ण होने पर भी भोजन स्मरण किया जाता है,जिन्होंने तपस्या द्वारा पूर्णता करने वाला रोगों से घिर जायगा । वह स्वयं अपने को रोगी
प्राप्त करके दूसरों का पथ-प्रदर्शन किया। बनाता है। राग-द्वेष आदि विकृतियाँ हमारी आत्मा पर (ग) वंदन-पाँच महाव्रत धारी मुनियों को नमस्कार । विविध प्रकार के कुसंस्कार डालती हैं, उसे मलिन कर डालती यह वर्तमान आदर्श का स्मरण है।
हैं । यह मालिन्य उसके ज्ञान, सुख और वीर्य को ढक देता है। (घ) प्रतिक्रमण-आलोचना
फलस्वरूप वह अनंत ज्ञानी होने पर भी अल्पज्ञ, अनंत सुखी
होने पर भी दु:खी और अनंत शक्ति संपन्न होने पर भी दुर्बल (च) कायोत्सर्ग---इसका शब्दार्थ है-शरीर का परि
- बन जाता है। जैन परिभाषा में इस बाह्य प्रभाव को 'कर्म' त्याग । जैन साधना त्याग-लक्ष्यी है । साधक धन,
कहा गया है। संपत्ति, परिवार, पूजा, प्रतिष्ठा आदि का त्याग करता हुआ आगे बढ़ता है । कायोत्सर्ग अथवा १५. सामाजिक समताव्युत्सर्ग अन्तिम तप है। इससे शरीर अथवा जीवन
जैन संघ-रचना में जाति, लिंग आदि के आधार पर के परित्याग का अभ्यास किया जाता है । साधक
कोई वैषम्य नहीं रखा गया। स्त्री हो या पुरुष, ब्राह्मण हो अन्य वस्तुओं के साथ शरीर को भी छोड़कर आत्म
या शूद्र, प्रत्येक व्यक्ति साधना द्वारा उच्चतम स्थान प्राप्त चितन में लीन होता है। दूसरे शब्दों में यह जीवन
कर सकता है। परस्पर वंदन एवं शिष्टाचार में भी चरित्र की के मोह पर विजय प्राप्त करने का अभ्यास है।
उच्चता का ध्यान रखा जाता है। आयु, जाति अथवा लिंग (छ) प्रत्याख्यान-इसका शब्दार्थ है छोड़ना । साधक
का नहीं। प्रतिदिन कुछ-न-कुछ छोड़ने का अभ्यास करता है। कभी सूर्योदयके पश्चात अमुक समय तक निराहार रहने का निश्चय जैनधम और व्यक्तित्व करता है। कभी भोजन अथवा दैनंदिन जीवन में काम आने
जीवन-निर्माण की दृष्टि से जैनधर्म में वे सभी तत्व वाली वस्तुओं की मर्यादा करता है। छोटे-छोटे त्याग जीवन
मिलते हैं जो पूर्णतया विकसित एवं शक्तिशाली व्यक्तित्व में म अनुशासन और दृढ़ता लाते हैं।
होने चाहिए। हमारा व्यक्तित्व कितना दुर्बल या सबल है
इसकी कसौटी प्रतिकूल परिस्थिति है। जो मनुष्य प्रतिकूल १३. मैत्री की घोषणा
परिस्थितियों में घबरा जाता है, उसका व्यक्तित्व उतना ही प्रतिक्रमण के अंत में मैत्री की घोषणा की जाती है। दुर्बल समझना चाहिए । प्रतिकूल परिस्थिति को हम नीचे साधक पहले अपनी ओर से समस्त प्राणियों को क्षमा प्रदान लिखे तीन भागों में बाँट सकते हैंकरता है और उसके पश्चात् उनसे क्षमा माँगता है। इस (१) प्रतिकूल व्यक्ति--जो व्यक्ति हमारा शत्र है, हानि प्रकार शत्रुता समाप्त करके सबके साथ मित्रता की घोषणा पहुँचाना चाहता है या हमारी रुचि के अनुकूल नहीं है उसके करता है। जो व्यक्ति वर्ष में एक बार सच्चे हृदय से यह सम्पर्क में आने पर यदि हम घबरा जाते हैं या मन-ही-मन घोषणा नहीं करता, समस्त मनोमालिन्य एवं वैर-विरोध का कष्ट अनुभव करते हैं, तो यह व्यक्तित्व की पहली दुर्बलता अन्त नहीं करता उसे अपने को 'जैन' कहने का अधिकार है।जैन-दृष्टि से इसका अर्थ होगा हमने अहिंसा को जीवन में नहीं है। जैन धर्म का सबसे बड़ा सांवत्सरिक पर्व मित्रता की नहीं उतारा । सर्वमैत्री का पाठ नहीं सीखा। घोषणा का पर्व है।
(२) प्रतिकूल विचार-जमे हुए विश्वासों के विपरीत
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