________________
व्यक्तियों को विक्षिप्त या उन्मुक्त कहा जायेगा। उनकी विवेक शक्ति लुप्त हो जाती है। दूसरे को हानि तो दूर रही, वे अपनी हानि भी नहीं देखते।
(२) दूसरी कोटि उन व्यक्तियों की है जो प्रयोजन न होने पर भी दूसरे को हानि पहुँचाना चाहते हैं किन्तु उसके लिये स्वयं हानि उठाने को तैयार नहीं हैं। ऐसे व्यक्तियों में क्रूर वृत्ति होने पर भी चेतना का सर्वथा लोप नहीं होता। दूसरे को कष्ट देकर उनका मनोरंजन होता है । किन्तु इसके लिये स्वयं कष्ट नहीं उठाना चाहते।
(३) तीसरी कोटि उन व्यक्तियों की है जो दूसरे को बिना स्वार्थ के हानि नहीं पहुँचाते किंतु स्वार्थ के लिये निरपराध होने पर भी हानि पहुँचाने में नहीं हिचकते । ऐसे व्यक्ति प्रायः अर्थलोलुप होते हैं। उनकी चेतना पर लोभ वृत्ति छाई रहती है। प्रत्येक प्रवृत्ति में उसी की प्रेरणा रहती है ।
चौथी कोटि उन व्यक्तियों की है जो स्वार्थ का प्रयोजन होने पर भी निरपराध को हानि नहीं पहुँचाते, किंतु अपराध का बदला लेना अपना कर्तव्य समझते हैं। यह भूमिका धावक की है । जो सभ्य नागरिक होता है ।
(५) पाँचवीं कोटि उन व्यक्तियों की है जो अपराधी को भी क्षमा कर देते हैं ।
(६) छठी कोटि उनकी है जो अपराधी के कल्याण की कामना करते हैं, किंतु उसके लिये स्वयं हानि उठाने या अपना स्वार्थ छोड़ने को तैयार नहीं होते ।
(७) सातवीं कोटि उनकी है जो स्वयं हानि उठाकर भी दूसरे का कल्याण करना चाहते हैं ।
जैन दृष्टि से प्रथम तीन भूमिकाएँ मिथ्यात्वी की हैं। चौथी और पांचवी गृहस्थ की और अन्तिम दो त्यागी की है। ७. स्वावलम्बन
आचारांग सूत्र में भगवान महावीर कहते हैं-"अरे मानव ! तू ही तेरा मित्र है। बाहर किसे खोज रहा है ?" जैनधर्म उद्धारक के रूप में ईश्वर या किसी अतीन्द्रिय शक्ति को नहीं मानता। प्रत्येक अपने ही पुरुषार्थं द्वारा ऊँचा उठता है और अपने ही कार्यों द्वारा नीचे गिरता है। यहाँ महापुरुषों । का वंदन एवं कीर्तन केवल आदर्श के रूप में किया जाता है, कृपा प्राप्त करने के लिये नहीं।
८. साधकों की श्रेणियाँ
कषाय अर्थात् मनोविकारों की तरतमता के आधार पर
-
Jain Education International
साधकों की चार श्रेणियाँ हैं । प्रथम श्रेणी अर्थात् सम्यग् दृष्टि के लिये आवश्यक है कि किसी प्रकार का मनोमालिन्य एक वर्ष से अधिक न रखे। द्वितीय श्रेणी धावक की है, उसके लिये यह अवधि चार महीनों की है। तृतीय श्रेणी साधु के लिये १५ दिन की। अंतिम अर्थात् केवली में वे सर्वथा समाप्त हो जाते हैं । इन्हीं का विभाजन १४ गुणस्थानों में किया गया है।
१. उपास्य (देव-गुरु )
जैनधर्म किसी उद्धारक को नहीं मानता उपास्य केवल आदर्श का काम करते हैं। उनकी दो श्रेणियाँ हैं जिन्होंने राग-द्वेष आदि दुर्बलताओं को पूर्णतया जीत लिया है वे 'देव' कहे जाते हैं । जो उस पर चल रहे हैं वे 'गुरु' । नमस्कारमंत्र में इन्हीं की वंदना की जाती है, व्यक्ति विशेष की नहीं। प्रत्येक युग में नये व्यक्ति त्याग और तपस्या का आदर्श लेकर आते हैं और प्रकाश देकर मोक्ष में चले जाते हैं, वे वापिस नहीं लौटते। युग परिवर्तन के साथ व्यक्ति भी बदल जाते हैं।
१०. सामायिक - समभाव धारण करना ।
जीवन में समता उतारने का अभ्यास 'सामायिक' है। यह जैन साधना का केन्द्रबिंदु है। मुनि इसे समस्त जीवन के लिये अपनाता है और गृहस्थ यथाशक्ति कुछ समय के लिये इसका अर्थ है कि स्व और पर में समता और मन, वाणी और क्रिया में समता। वाह्य और अभ्यंतर में समता प्रत्येक आत्मा अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख और अनंत वीर्य स्वरूप है । बाह्य विकार इस स्वरूप को ढक देते हैं और जीवन में वैषम्य आने लगता है । सामायिक स्वरूप को पुनः प्राप्त करने का अभ्यास है । चरित्र की समस्त श्रेणियाँ इसी में आ जाती है। इसी का दूसरा नाम 'संयम' है।
१९. तपस्या
सामायिक द्वारा नवीन विकारों को रोका जाता है और तपस्या द्वारा संचित विकारों को दूर किया जाता है । सामायिक को संवर भी कहा जाता है और तपस्या को निर्जरा । दोनों मिलकर जैन-साधना को परिपूर्ण बनाते हैं ।
१२. प्रतिक्रमण
दैनंदिन अनुष्ठान के रूप में प्रतिक्रमण का विधान है। । इसका अर्थ है पीछे मुड़ना साधक दैनंदिन जीवन में होने
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org