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इनके कारण होने वाली आत्मा की अशुद्धि एवं दुर्बलता में रुकावट डालना भी हिंसा है। व्यावहारिक जीवन को को 'बंधतत्व' से बताया गया है। शुद्धि के दो उपाय हैं। दृष्टि में रखकर इसमें एक परिष्कार किया गया है। यदि नवीन कुप्रवृत्तियों को रोकना और लगे हुए कुसंस्कारों को कल्याणबुद्धि से कोई कार्य किया जाता है और उससे किसी दूर करना । ये ही क्रमशः संवर और निर्जरा तत्त्व हैं। आत्मा को कष्ट पहुँचता है तो यह हिंसा नहीं है। उसे हिंसा तभी का पूर्णतया शुद्ध होना अंतिम मोक्षतत्व है।
कहा जायगा जब मनमें स्वार्थ या दुर्भावना हो। ५. अनेकांत- अर्थात् 'दृष्टि में समता'।
अहिंसा की भूमिकाएँप्रत्येक वस्तु को समझने के अनेक दृष्टिकोण होते हैं। भर्तहरि ने पर-हित की दृष्टि से मानवता की चार एक ही व्यक्ति किसी का पिता है, किसी का भाई और किसी भमिका बताई हैंका पुत्र वह अपनी अपेक्षा को सामने रखकर व्यवहार करता (१) सत्पुरुष-स्वार्थ का परित्याग करके भी दूसरे का है किन्तु यदि अन्य अपेक्षाओं का अपलाप करने लगे तो सत्य
हित करने वाले। से दूर चला जायेगा। सापेक्ष-दृष्टि को ही जैन परिभाषा में
(२) सामान्य पुरुष-स्वार्थ को बिना छोड़े, दूसरे का 'अनेकान्त' कहा गया है। इसके लिये स्थूल रूप में चार
हित करने वाले। अपेक्षाएँ बताई गई हैं (१) द्रव्य-वस्तु का निजी रूप (२) क्षेत्र
(३) मानवराक्षस-स्वार्थ के लिये दूसरे को हानि (३) काल और (४) भाव अर्थात् अवस्था।
___ पहुँचाने वाले। विभिन्न दृष्टियों को जैनपरिभाषा में 'नय' कहा गया है
(४) पशुराक्षस-स्वार्थ न होने पर भी दूसरे को हानि और सर्वग्राही दृष्टि को 'प्रमाण' । स्याद्वाद जैनतर्क-शास्त्र
पहुँचाने वाले। का मुख्य तत्व है। स्यात् का अर्थ है कथंचित्-किसी अपेक्षा
भर्तृहरि ने चतुर्थ कोटि के लिये कोई नाम नहीं दिया। से । प्रत्येक वाक्य, वह विधिरूप हो या निषेधरूप, किसी
उन्हें 'ते के न जानीमहे' कहकर छोड़ दिया। इनके साथ पंचम अपेक्षा को लेकर चलता है। भाषण में सापेक्षता का ध्यान
कोटि उन व्यक्तियों को जोड़ी जा सकती है जो स्वयं हानि रखना ही 'स्याद्वाद' है। अनेकांत जैनदर्शनकी आधार
उठाकर भी दूसरे को हानि पहुँचाना चाहते हैं, हम उन्हें शिला है।
'पिशाच' कह सकते हैं।
परहित के समान अहिंसा और हिंसा के आधार पर भी ६. अहिंसा
कई श्रेणियाँ हो सकती हैं। इनके तीन आधार हैं :___ अहिंसा-'व्यवहार में समता' । हम अपने जीवन तथा (क) स्वार्थ वृत्ति-किसी स्वार्थ से प्रेरित होकर दूसरे आवश्यकताओं को जितना महत्व देते हैं, प्रायः दूसरों को
को हानि पहुँचाना । नहीं देते । यहीं से व्यवहार में 'वैषम्य' प्रारम्भ हो जाता है। (ख) क्रूरता-स्वार्थ न होने पर भी दूसरे को हानि भगवान महावीर का कथन है कि 'जब तुम दूसरे को मारने
पहँचाना। ये दोनों तत्व हिंसा से सम्बन्ध या सताने जाते हो तो उसकी जगह अपने को रखकर सोचो।
रखते हैं। यदि यह व्यवहार तुम्हें अप्रिय है और चाहते हो कि दूसरा (ग) अपराध-हिंसा का अपराधी या निरपराध तुम्हारे साथ ऐसा न करे तो तुम भी वह व्यवहार दूसरे के
होना। साथ मत करो।'
(१) हिंसा की दृष्टि से निम्नतम भूमिका उन व्यक्तियों प्राण दस हैं—पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, मानसिक, वाचिक तथा की है जो स्वयं हानि उठाकर भी दूसरे को हानि पहुँचाना कायिक शक्तियाँ, श्वासोच्छ्वास और आयु। इनमें से किसी चाहते हैं। उनकी वत्तियाँ इतनी क्रूर होती हैं कि दूसरे को को नष्ट करना, क्षति पहुँचाना या उसकी स्वतन्त्रता में कष्ट में देखकर आनन्द आता है। अतः निजी स्वार्थ के न बाधा डालना हिंसा है। भाषण की शक्ति को आघात होने पर भी दूसरे को हानि पहुँचाना चाहते हैं। इतना ही पहुँचाना तो हिंसा है ही, उस पर प्रतिबंध लगाना भी हिंसा नहीं, उसके लिये हानि उठाने को भी तैयार रहते हैं । क्रोध, है। इसी प्रकार स्वतंत्र चिंतन, आवागमन, देखने-सुनने आदि या द्वेष-बुद्धि उनकी चेतना को अभिभूत कर लेती है। ऐसे
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