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हों, वे ही स्वत्व हैं । स्वत्वों अर्थात सामाजिक जीवनके अनुकल चारित्र-निर्माण अवस्थाओं का उपभोग सभी करते हैं। उनका उपभोग संयुक्त मानव-स्वभाव न तो अच्छा होता है, न बुरा । वह तो रूप में किया जाता है । स्वत्व पूर्णतया वैयक्तिक नहीं हो कच्ची गीली मिट्टी के समान है, जिससे चाहे जिस रूप में सकते, वे सामाजिक होते हैं। उनका प्रादुर्भाव सहकारिता से चारित्र-निर्माण कर लो। वातावरण से पूर्ण समन्वय स्थापित होता है, और सहकारिता पर ही वे टिके रहते हैं। यदि सभी करने की दृष्टि से समस्थिति की लब्धि ही 'विकास' है । इसका के लिये उत्तम जीवन की अवस्थायें बनाये रखना है तो सिर्फ मंतव्य यह है कि सभी प्रवृत्तियों को कम या अधिक मात्रा में अपने ही लिये उनकी आशा नहीं करनी चाहिये, परंतु प्रत्येक एक ही उद्देश्य से, अर्थात् बुद्धि तथा हृदय के मेल से निर्मित व्यक्ति को इस प्रकार कर्म करना चाहिये कि दूसरे के उप- नैतिक भावना से एकाग्र करना चाहिये । इसका एक दूसरा भोग में बाधा न पड़े। इतना ही नहीं, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति मंतव्य यह है कि सभी प्रवृत्तियों में सामंजस्य रहना चाहिये । को इस प्रकार कर्म करना चाहिये कि दूसरे को इस दिशा इसप्रकार समस्थिति तथा प्रवृत्तियों को एकाग्र करने से में प्रेरणा मिले । जो अपने लिए स्वत्व है, वही दूसरे के प्रति निश्चित दिशा में उद्यम करने की रुझान पैदा होती है, जिसे कर्तव्य है। इस प्रकार स्वत्व और कर्तव्य परस्पर सापेक्ष हैं। 'इच्छा' कह सकते हैं। विविध इच्छाओं के संयोग को ही इच्छावे एक ही वस्तु के दो रूप हैं। यदि अपनी दृष्टि से उन पर शक्ति' कहते हैं। अबतक चारित्र की सर्वोत्तम परिभाषा संपूर्ण विचार करें तो वे स्वत्व हैं। परंतु यदि उन्हें ही दूसरे की सुसंस्कृत इच्छाशक्ति' ही ठहरी है। चारित्र का मूलाधार दृष्टि से देखें तो वे कर्त्तव्य हैं। दोनों ही सामाजिक हैं और आत्माभिव्यक्ति नहीं है, जैसाकि कुछ तथाकथित मनोवैज्ञासार रूप में उत्तम जीवन बिताने की अवस्थायें हैं जो सभी के निकों ने रूढ़िगत दमन की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप कहा है। लिये हैं। यह विवाद निष्फल है कि 'स्वत्व' कर्त्तव्य से पहले आत्माभिव्यक्ति अशासन के निकट भी पहुँच सकती है, जो आते हैं या बाद में। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वत्वों के सभी सामाजिक मानों तथा सुखों का अंत करने वाला है। लिये आग्रह करने लगे और दूसरे के प्रति कर्तव्यों की अव- व्यक्तित्व के लाभ के लिए आत्माभिव्यक्ति सोद्देश्य, समन्वयहेलना करने लगे तो 'स्वत्व' रह ही नहीं जायेंगे। यह सामा- शील तथा सहिष्णुता पर आधारित होनी चाहिये, जिसे जिक जीवन की मल शिक्षा है, जिसे सबको नये सिरे से ग्रहण परोपकारिता, त्याग, सेवा आदि विभिन्न नामों से पूकारा करना चाहिये।
गया है, और जो समाज एव व्यक्ति का चरम विकास है । इस यह कहने की आवश्यकता नहीं कि दूसरे के अधिकारों लिए कहते हैं कि संयम की, आत्मसंयम की आवश्यकता है, जो का सम्मान करना भी अहिंसा का ही सक्रिय रूप है। बाहरी दबाव से बिलकुल भिन्न वस्तु है । बाहरी दबाव दमन
तथा नैराशय को जन्म देता है । संयम आत्मा को सौन्दर्यशील ब्रह्मचर्य
तथा विकासोन्मुख बनाता है, जिस प्रकार पौधे को कांटते
छांटते रहने से वह अधिक सुन्दर रूप में पल्लवित-पुष्पित दसरे के अधिकारों का सम्मान और कर्तव्यों का पालन होता है। अधिक समय तक ऊपर से दबाव डालकर नहीं कराया जा सकता। वास्तव में नैतिक आचरण का बलपूर्वक पालन परिष्करण करवाना ही एक विरोधसंगत बात है। नैतिक आचरण के यदि मनुष्य अपनी नाना प्रवृत्तियों तथा बाह्य उत्तेलिये अनुकूल अवस्थाओं का संयोजन करके अपरोक्ष रीति जनाओं के प्रवाह में अपने को निर्बध छोड़ दे तो वह जीवन से नैतिकता का पालन कराना सम्भव है। हम अभी देख चुके की परस्पर विरोधी, क्षुद्र तथा निरर्थक बातों में, अपने को हैं कि अहिंसा का पालन ऐसे ही वातावरण में हो सकता है, फंसा देगा। यह जीवन के मूल स्रोत को स्पर्श भी न कर जो हिंसा की गंध से मुक्त हो। परंतु आचार-नीति का पालन सकेगा, और शीघ्र ही एक व्यर्थता की भावना उसमें घर कर ऊपरी दबाव से नहीं कराया जा सकता। वह भीतर की ही लेगी। उसे अन्य दिशाओं के साथ आत्म-संयम की दिशा में प्रेरणा से हो सकता है। विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है भी अपना विकास करना चाहिये । उसे अनिष्टकारी विषयों कि सामाजिक जीवन अंततोगत्वा आत्मसंयम पर निर्भर है। का त्याग तथा इष्ट विषयों का चुनाव करना चाहिये, यही चौथे अणुव्रत, ब्रह्मचर्य का मर्म है।
तथा चुनाव करने की आदत डालनी चाहिये। उसे अपनी
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