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युद्ध-वर्तमान समाज-व्यवस्था का एक अङ्ग
करने पर प्रकट होता है कि हमारी जाति-व्यवस्था तथा वर्ग___अत: इस समय यह निर्देश कर देना आवश्यक जान पड़ता व्यवस्था कुछ तो बल-प्रयोग और कुछ परम्परा तथा प्रकृति है कि युद्ध, शस्त्रीकरण तथा कुटिल कूटनीति-ये सब पर निर्भर करती है। प्राचीन समय में वस्तुओं की कमी के विच्छिन्न व्यापार नहीं हैं। इनके तात्कालीन कारणों पर दृष्टि- कारण इस व्यवस्थाके पक्ष में जो भी तर्क किये जा सकते थे, वे . पात न करें तो भी कहना पड़ेगा कि ये अपने दावों को स्वी- आधुनिक युग में वस्तुओं की बहुलता की सम्भावना हो जाने से कार करवाने तथा झगड़ों का निपटारा करने के उपाय बन खंडित हो जाते हैं । अब नये सूत्रों पर मानवीय सम्बन्धों की गये हैं; संक्षेप में ये ऐसी समाज-व्यवस्था में सर्वथा स्वाभाविक रचना करनेका मार्ग प्रशस्त हो गया है। अहिंसा के सिद्धांत हैं, जिसमें हिंसा उपादेय मानी जाती है तथा एक वर्ग दूसरे वर्ग का वस्तुतः यही अर्थ है कि प्रत्येक नर-नारी के हित-साधन पर बल-प्रयोग कर के उसका शोषण करता है। झगड़ों का निप- का समान विचार रखा जाय तथा अधिक से अधिक मात्रा में टारा बल-प्रयोग द्वारा इसी कारण किया जाता है कि हमारा आत्मानुभूति के अवसर प्रदान किये जाय । सामाजिक जीवन भी घृणा, नैराश्य तथा शोषण से ओतप्रोत है। ये भावनायें अंतर्राष्ट्रीय सम्बंधों में, आंतरिक संगठन में अहिंसा का विधेयात्मक रूप तथा जीवन-दृष्टिकोण में व्याप्त हैं। सामाजिक जीवन में भी इस प्रकार यह स्पष्ट हो गया होगा कि अहिंसा का अभी बलप्रयोग तथा छल-कपट का बोलबाला है, अतः सुधार सिद्धांत, जैसा कि नाम से इंगित होता है, कोई निषेधात्मक मूल से आरंभ होना चाहिये । संसार को यह समझाने के लिये सिद्धांत नहीं है, बल्कि एक क्रान्तिकारी विधेयात्मक सिद्धांत बहुत अधिक बौद्धिक तथा नैतिक प्रयत्न की आवश्यकता है। है। यह राष्ट्रों की आंतरिक शासन-प्रणाली में आमूल परिवर्तमान संघर्षों का अंत करने तथा विश्व शांति की स्थापना वर्तन तथा सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्थाओं में संशोधन करने का एकमात्र उपाय यह है कि हिंसा (बलप्रयोग) के की ओर संकेत करता है । इस सिद्धांत की दृष्टि से संस्थाओं बजाय अहिंसा की नींव पर सामाजिक संबंधों का संशोधन हो। का पुनर्गठन जितना महत्वपूर्ण है, उतना ही महत्वपूर्ण
दृष्टिकोण में परिवर्तन है। संक्षेप में संपूर्ण जीवन-दृष्टिकोण अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र के अनुभव
में परिवर्तन की आवश्यकता है । जैसा कि अफलातून और १६१६ में स्थापित राष्ट्र संघ तथा निरस्त्रीकरण कमी- अरस्तु का कहना है, 'प्रत्येक प्रकार की संस्था के तदनुकूल शनों तथा सम्मेलनों के अनुभव से, जो १६३४ तक होते आचार-नीति का होना आवश्यक है।' यदि अनुकूल आचाररहे, विदित होता है कि युद्ध का निराकरण, जो रोग का नीति का प्रादुर्भाव नहीं होता है तो संस्थाओं का पुनर्गठन लक्षण है, मूलगत कारण, हिंसा के निराकरण से ही हो सकता शक्तिहीन हो जाता है, वे यंत्रवत् बन जाती हैं, और कुछ है, जो सारे वर्गों में व्याप्त है । अहिंसा के ऊँचे तल पर आने । समय पश्चात् या तो प्रभावहीन या विकृत हो जाती हैं । अत का अर्थ होगा कि राजनैतिक तथा आर्थिक क्षेत्र में एक वर्ग एव अहिंसा का सिद्धांत जीवन-पथ के रूप में स्वीकार किया पर दूसरे वर्ग के प्रभुत्व के विचार को तिलांजलि देनी होगी, जाना चाहिये । यहाँ पर एक भ्रम से सावधान कर देना तथा युरोप अथवा अमेरिका, एशिया अथवा अफ्रीका की सभी उचित होगा। जातियों की अबाध उन्नति तथा उन्हें समान अवसर प्रदान
उपरोक्त कथनों का यह अर्थ नहीं है कि मानव-संबन्ध करने के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप में स्वीकार करना एक मात्र बल-प्रयोग (हिंसा) पर आधारित है। इस प्रकार होगा।
का वातावरण समाज में सह्य नहीं हो सकता। पारिवारिक,
कौटुम्बिक और जातीय जीवन के निर्माण में बहत मात्रा में आंतरिक व्यवस्था में अहिंसा
सहानुभूति, परस्पर सहायता, स्नेह, त्याग और एकनिष्ठा की इस प्रकार न केवल अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में, बल्कि आंत- भावनाओं का भी हाथ रहता है। कहने का तात्पर्य यही है कि ये रिक व्यवस्था में भी एक नये अध्याय का सूत्रपात होगा। यह भावनाएँ पर्याप्त मात्रा में विद्यमान नहीं हैं, हिंसा का प्राबल्य बात किसी स्थूलद्रष्टा को भी प्रकट होगी कि अधिकांश देशों है, और उसका पूर्णरूपेण निराकरण कर देने पर ही सामाकी आंतरिक आर्थिक व्यवस्था, अधिकांश जन-वर्ग को समान जिक गुणों के अंकुर पनप सकते हैं। दूसरी बात यह भी समझ रूप से सुविधायें न प्रदान करने पर अवलम्बित है। विश्लेषण लेनी चाहिये कि वैयक्तिक जीवन की आचार-नीति और
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