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सामाजिक वातावरण का निकट सम्बन्ध है। व्यक्तित्व का अतः यही कहना पड़ता है कि सत्य का मार्ग उतना ही निर्माण समाज में होता है, दूसरे शब्दों में व्यक्तित्व समाज पना है, जितना अहिंसा का। कहावत है 'सत्यमेव जयते'। की उपज है। उसका सामाजिक व्यवस्था से घनिष्ठ सम्बन्ध यदि इनका यह अर्थ लगाया जाय कि सत्य की अंत में विजय है। अनुभवों से प्रकट होता है कि जातीय जीवन में नैतिकता होती है तो ठीक है। परंतु यह कहना भ्रमकारी होगा कि लाने के लिए केवल उपदेश और विनति काफी नहीं होती। सफलता का सरल मार्ग मन, वचन, कर्म से सत्य का पालन बीज के पनपने के लिए अनुकूल खाद तथा मौसम अर्थात् करना है। आज सत्य का मार्ग कांटों से घिरा है । वह विरोध, वातावरण की आवश्यकता पड़ती है। इसी प्रकार समस्त उत्पीड़न तथा कष्ट-सहन से परिपूर्ण है। इस पथ पर चलने संसार में जीवन में वास्तविक रूप से अहिंसा का समावेश में साहस, धैर्य तथा सहनशीलता की आवश्यकता पड़ती है । तभी हो सकता है, जब सामाजिक संगठन तथा व्यवहार वस्तुतः मिथ्या का बलप्रयोग (हिंसा) से घनिष्ठ सम्बन्ध है, अहिंसा पर आधारित होगा। अत: अहिंसा के सिद्धांत का और उसके साथ ही इसका भी अंत किया जा सकेगा। आज वस्तुतः अर्थ यह है कि समस्त जीवन, बलप्रयोग (हिंसा) के मनुष्य के लिए निजी जीवन में सदा सत्य बोलना चाहे संभव स्तर से ऊँचा उठाकर विवेक, अनुनय, सहनशीलता तथा हो, परंतु समस्या इतने से ही तो हल नहीं हो सकती। इस पारस्परिक सेवा के स्तर पर प्रतिष्ठित किया जाय । समस्या के वस्तुतः दो रूप हैं। एक तो, कैसे औसत व्यक्ति के
लिये सत्यवादिता सम्भव बनाई जाय; तथा दूसरे, कैसे संघों, सत्य
राजनीतिक दलों और सरकारों के लिये भी सम्भव बनाया यह तो सभी को प्रकट होगा कि अहिंसा का सत्य से जाय कि वे भी सत्य का उतनी ही मात्रा में पालन कर सकें, निकट सम्बन्ध है। ऊपर संकेत किया जा चुका है कि जितनी मात्रा में निजी जीवन में किया जा सकता है। सामाअधिकारियों द्वारा बलप्रयोग किये जाने पर पराधीन लोग जिक हित की दृष्टि से ऐसे वातावरण का निर्माण आवश्यक छल-कपट का आश्रय लेते हैं । हम यह भी कह चुके हैं कि है, जिसमें सत्य अंततोगत्वा ही नहीं, बल्कि तात्कालिक रूप मात्र बलप्रयोग से बहुधा उद्देश्य की सिद्धि नहीं होती, और में भी लाभदायी सिद्ध हो । यहाँ हमें फिर कहना पड़ता है कि छल-कपट अथवा धूर्तता से सहायता लेने की भी आवश्यकता जीवन अखंड है, उसके विविध अंग परस्पर निर्भर हैं, और हम पड़ती है। इसी कारण कहा गया है कि युद्ध में सभी बातें न्याय- घूम-फिर कर फिर एक ही बात पर आते हैं। जीवन के दुश्चक्र संगत होती हैं । वस्तुतः युद्ध में सभी प्रकार की धूर्तता चलती को तोड़ने के लिये, उस पर सभी ओर से प्रहार आवश्यक है। है । आधुनिक काल में युद्ध समग्र शक्तियों से चलाया जाता यह सब मानते हैं कि राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय मामलों में है, अर्थात् सम्पूर्ण बौद्धिक, नैतिक तथा भौतिक साधनों से समान रूप से सत्य का ऊँचा आदर्श स्थापित करने की आवचलाया जाता है। आपाततः मालूम पड़ता है कि शस्त्रास्त्रों श्यकता है। सत्य का आदर्श जितना ही ऊँचा होगा उतना ही के बल के सामने जनमत दब जाता है, परंतु आधुनिक काल समाज को वर्तमान दुश्चक्र से निकालकर, विवेक तथा में सरकारें मनोवैज्ञानिक प्रचार (प्रोपेगैन्डा) द्वारा जनमत नैतिकता के ऊँचे स्तर पर स्थापित किया जा सकेगा। की स्वीकृति प्राप्त करने के लिए इतना विशाल संगठन करती है । अतः यह ठीक ही कहा जाता है कि युद्ध में सबसे पहले अ सत्य की हत्या होती है । १६वीं शताब्दी की तब से ठोस देन यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इस प्रकार के अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा मानी जाती है। परंतु प्रोपेगैंडा ने सामाजिक पुनर्गठन में प्रत्येक व्यक्ति दूसरे के अधिकारों का इसका महत्त्व शून्य कर दिया है, जो आज सम्पूर्ण वातावरण समूचित आदर करेगा। तीसरे अणुव्रत, अचौर्य अथवा अस्तेय में व्याप्त है, तथा जल, थल या आकाश में रेडियो का बटन कार्य ही मूलाधार है। इसका शब्दार्थ तो इतना ही है कि दबाकर सुना जा सकता है । राष्ट्रों की घरेलू राजनीति का चोरी नहीं करनी चाहिये, परंतु इसका मार्मिक अर्थ यह है कि वातावरण भी कुछ विशेष अच्छा नहीं रहता। यह सर्वविदित प्रत्येक व्यक्ति को दूसरे के अधिकारों पर आघात नहीं करना है कि चुनावों में सत्य की विशेष परवा नहीं की जाती है, चाहिये । यहाँ पर 'स्वत्व' की तात्त्विक चर्चा आवश्यक है, और कचहरियों तथा नौकरियों में तो सत्य की सबसे अधिक इतना ही संकेत कर देना पर्याप्त होगा कि व्यक्तित्व के विकास हत्या होती है।
के लिये जो भी सामाजिक परिस्थितियाँ अनिवार्य या अनुकूल
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