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रति त्याज्य विषयों से हटाकर, स्वीकृत विषयों में लगानी स्थापित करता है। विरोधी प्रवतियों के निराकरण अथवा चाहिये। इस प्रकार विविध प्रलोभनों को अस्वीकार करते रूप-परिवर्तन से व्यक्तित्व अखंड बना रहता है, और हुए उसमें जो कर्मशक्ति अनुप्रेरित होती है, वह ग्राह्य उसका अबाध तथा सुचारू रीति से विकास होता रहता विषयों की ओर प्रवाहित होती है। उसके भीतर जो है। परिष्करण के फलस्वरूप व्यक्तित्व ऊँचे नैतिक स्तर पर नाना प्रकार की लालसाय तरंगित होती रहती हैं, जिनका ऊठ जाता है तथा बाहर और भीतरमें संघर्ष नहीं होने पाता। वह अनुसरण नहीं करता, वे रूप बदलकर उसकी इष्ट मन:- वह सुख-प्राप्ति का साधन है, क्योंकि वह विविध दिशाओं में कामनाओं से एकाकार हो जाती हैं, और संतोष-लाभ करती सामंजस्य रखते हए व्यक्तित्व का विकास सम्भव बनाता है। हैं। यह परिष्करण बालक जैसे ही सामाजिक आचारनीति को दःख. परस्पर विरोधी प्रवत्तियों तथा भावनाओं के संघर्ष का हृदयंगम कर लेता है, आरम्भ हो जाता है । शक्तिबुद्धि तथा ही परिणाम है। लालसाओं की वृद्धि और उसीकी तुलना में नैतिक भावना तथा आत्मसंयम की वद्धि के साथ-साथ परिष्करण की वत्ति भी बढ़ती जाती है। परिष्करण दमन की ठीक उल्टी वृति है। यदि परिष्करण संयम की कोटि की प्रक्रिया है, जिससे वासनाओं तथा लालसाओं का नियंत्रण न किया जाय तो वे शक्तियाँ संगठित होती हैं तथा सामाजिक लक्ष्यों की ओर मनुष्य की शक्ति को विविध दिशाओं में बिखेर देती हैं, उसका प्रवाहित होती हैं। हम यह देख चुके हैं कि संयम का पालन विकास रुक जाता है, और उसका स्वास्थ्य चौपट हो जाता है। अंतर से होता है, वह बाहरी दबाव की वस्तु नहीं है । संयम यदि वे शासित की जाती हैं तो भीतर गुत्थियाँ पैदा करती हैं, का पाठ पढ़ाया नहीं जाता, बल्कि वह जब मनुष्य अपना मानसिक संघर्ष को जन्म देती हैं, स्वप्न, चिन्ता तथा विकृ- तथा समाज का लाभ समझ जाता है तथा उसका अनुसरण तियों के रूप में प्रकट होती हैं। परिष्करण, व्यक्ति को अखंड करने लगता है तो अन्दर से उत्पन्न होता है। संयम एक रखते हुए, आत्मसंयम का राजमार्ग है। सभी व्यक्ति न्यूना- विधेयात्मक शक्ति है, निषेधात्मक नियंत्रण नहीं है। इससे धिक मात्रा में अपना परिष्करण करते हैं, परंतु उच्च विचारों अंतर की शक्तियाँ सुनिश्चित मार्गों में प्रवाहित होती हैं, तथा आदर्शों के बल के बिना, अथवा ऊँचे लक्ष्य तथा जीवन जीवन व्यवस्थित बनता है और उत्तरदायित्व की भावना की प्रेरणा के बिना वह अपूर्ण रहता है। परिष्करण, शक्ति, पैदा होती है। यह मन को समाजोन्मुख करता है तथा बुद्धि तथा नैतिक भावनाओं और महत्त्वाकांक्षाओं की वृद्धि को व्यक्तित्व को विशेषत्व भी प्रदान करता है। संयम में विवेक संतुलित रखता है, वह व्यक्तित्व के समग्र विकास का मार्ग का भी समावेश है । वह सूचित करता है कि मनुष्य प्रशस्त करता है। वह भीतर तनाव नहीं आने देता, और भले अपने विविध कार्यों का अर्थ, अपनी नाना प्रवत्तियों में चनाव तथा बरे के विवेक के सुचारु विकास में भी सहायता देता तथा इष्ट लक्ष्य और प्राप्य साधनों में सामंजस्य करना भलीहै। वह आदर्शों को समुज्ज्वल बनाता है तथा जातीय जीवन भाँति जानता है। संयम, बुद्धि तथा नीति के सम्मिश्रण का में उत्सहापूर्वक भाग लेने को प्रेरित करता है। वह व्यक्तित्व सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। सामाजिक लक्ष्यों, संगठनों तथा के सर्वतोमुखी निर्माण में सहायता देता है, जिस पर समस्त अवस्थाओं का मर्म इस प्रकार हृदयंगम होना चाहिए कि सामाजिक आचार-नीति निर्भर करती है। इसके बिना वह अपनी जीवनचर्या में प्रतिबिम्बित हो। संयमी पुरुष जिस मनुष्य ज्ञान, साधना तथा पवित्र आदर्शों की उस ऊँची भूमिका ऊंचे स्तर पर पहुँच चुका होता है, उससे वह स्वयं उदाहरण पर कभी न पहुँच पाता, जिस पर वह पहुँचने की क्षमता बनकर दूसरों को भी उस स्तर पर पहुँचने की सतत प्रेरणा रखता है। परिष्करण आंतरिक विकास की एक सीढ़ी है,
दिया करता है, तथा समाज के नैतिक जीवन में निरंतर योग क्योंकि वह जीवन का नैतिक मान ऊंचा करता है, और अर्द्ध- समाचार चेतन तथा अचेतन मन की अधोमुखी प्रवृत्तियों पर अंकुश रखता है। (जैसा कि कहा जाता है, यद्यपि यह पूर्णतः सत्य आत्मसयम नहीं है ) वह मन के चेतन तथा सषप्त भागों में सहयोग सामाजिक व्यवहार में इस प्रकार के संयम को आत्मबनाये रखता है, जीवन की एकता स्थिर रखता है, तथा संयम कहना ठीक होगा। आत्मसंयम सामाजिक, आर्थिक विविध प्रवतियाँ, भावनाओं तथा पवित्र आदर्शों में सामंजस्य और राजनैतिक जीवन के ऊंचे नैतिक स्तर का शिलाधार
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