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कोई पूजा, कोई भक्ति श्रेष्ठ हो नहीं सकती। जिन ब्राह्मणों स्पष्ट ही कहा है कि सुबह-शाम स्नान करने से ही यदि मोक्ष को तुम मध्यस्थ बनाकर देवों को पुकारते हो वे तो अर्थशून्य मिलता है तो जलचर को शीघ्र ही मोक्ष मिलना चाहिए । वेद का पाठ मात्र जानते हैं। सच्चा ब्राह्मण कैसा होता है उसे मैं तुम्हें बताता हूँ
'सुख' की नई कल्पना
असली बात यह है कि यज्ञ-याग, पूजा-पाठ आदि सब सच्चा ब्राह्मण
धार्मिक कहे जाने वाले अनुष्ठानों का प्रयोजन सांसारिक जो अपनी संपत्ति में आसक्त नहीं, किसी इष्ट वियोग में वैभव की वृद्धि करना लोग समझते थे। कामजन्य सुख के शोकाकुल नहीं, तप्त सुवर्ण की भाँति निर्मल है, राग-द्वेष और अतिरिक्त किसी सुख के अस्तित्वकी और उसकी उपादेयता भय से रहित है, तपस्वी और त्यागी है, सब जीवों में सम- की कल्पना आरण्यक ऋषियों में प्रचलित थी। किन्तु उन भाव को धारण करता है-अतएव उनकी हिंसा से विरत है, आरण्यकों की आवाज़ आम जनता तक पहुँच पाई न थी। वह क्रोध-लोभ, हास्य और भय के कारण असत्य-भाषी नहीं है, कल्पना एक धार्मिक गूढ़ रहस्य था। उसके अधिकारी चुने हुए चोरी नहीं करता, मन वचन और काय से संयत है—ब्रह्म- तपस्वी लोग थे। किन्तु बुद्ध और महावीरने उस धार्मिक गूढ़ चारी है, अकिंचन है-वही सच्चा ब्राह्मण है। ऐसे ब्राह्मण रहस्य को जनता में ले जाना अच्छा समझा। उस धर्म-तत्त्व के सान्निध्य में रहकर अपनी आत्मा का चिन्तन, मनन और को गुहा के भीतर बंध न करके उसका प्रचार किया। निदिध्यासन करके उसका साक्षात्कार करो। यही भक्ति है-- भगवान महावीर ने स्पष्ट ही कहा है कि-सांसारिक सुख यही पजा है और यही स्तुति है।
या कामभोगजन्य सुख, सुख नहीं किन्तु दुःख है। जिसका
पर्यवसान दुःख में हो वह सुख कैसा? काम से विरक्ति में जो सच्चा यज्ञ
सुख मिलता है वह स्थायी है। वही उपादेय है। सब काम सच्चे यज्ञ का भी स्वरूप भगवान् ने बताया है- विषरूप हैं, शल्यरूप हैं । इच्छा अनन्त आकाश की तरह है,
जीव-हिंसा का त्याग, चोरी, झूठ और असंयमका जिसकी पूर्ति होना संभव नहीं। लोभी मनुष्य को कितना भी त्याग, स्त्री, मान और माया का त्याग, इस जीवन की मिले, सारा संसार भी उसके अधीन हो जाय, तब भी उसकी आकांक्षा का त्याग, शरीर के ममत्व का भी त्याग; इस प्रकार तृष्णा का कोई अन्त नहीं। अतएव अकिंचनता में जो सुख सभी बुराइयों को जो त्याग देता है वही महायाजी है। यज्ञ में है, वह कामों की प्राप्ति में नहीं। सभी जीवका भक्षण करनेवाली अग्नि का कोई प्रयोजन नहीं, जब सुख की यह नई कल्पना ही महावीर ने दी तो किन्तु तपस्यारूपी अग्नि को जलाओ। पृथ्वीको खोदकर कुण्ड क्षणिक सुख-साधनों को जुटा देने वाले उन यज्ञ-यागों का, बनाने की कोई आवश्यकता नहीं, जीवात्मा ही अग्निकुण्ड उन पूजा-पाठोंका धार्मिक अनुष्ठान के रूप में कोई स्थान न है। लकड़ी से बनी कुडछी की कोई जरूरत नहीं, मन, वचन, रहा। उसके स्थान में ध्यान, स्वाध्याय, अनशन, रसपरिकाय की प्रवृत्ति ही उसका काम दे देगी। ईंधन जलाकर क्या त्याग, विनय, सेवा इन नाना प्रकार की तपस्याओं का ही होगा? अपने कर्मों को, अपने पापकर्मों को ही, जला दो। धार्मिक अनुष्ठानों के रूप में प्रचार होना स्वाभाविक है। यही यज्ञ है जो संयम रूप है, शान्तिदाता है, सुखदायी है और ऋषियों ने भी इसकी प्रशंसा की है।
वैश्य-धर्म
वैश्यों को या व्यापारियों को उन्होंने उपदेश दिया कि शौच
यह अच्छा नहीं कि तुम अपना वैभव किसी भी प्रकार से बाह्य शौच का और उसके साधन तीर्थ-जल का इतना बढ़ाओ। वैभव न्यायसंपन्न होना चाहिए इतना ही पर्याप्त महत्त्व बढ़ गया था कि किसी तीर्थ के जल में स्नान करने से नहीं, किन्तु उसका परिमाण-मर्यादा नियत करनी चाहिए। लोग यह समझते थे कि हम पवित्र हो गये । वस्तुतः शौच क्या और प्रत्येक दिन यह भावना करनी चाहिए कि वह दिन धन्य है, उसका स्पष्टीकरण भी भगवान् ने कर दिया है-धर्म ही होगा जब मैं सर्वस्व का त्याग कर दूंगा। यह दलील कि मैं जलाशय है और ब्रह्मचर्य ही शांतिदायक तीर्थ है। उसमें ज्यादह कमाऊँगा तो ज्यादह दान दूँगा इसलिये किसी भी स्नान करने से आत्मा निर्मल और शान्त होती है। उन्होंने जायज या ना-जायज तरीके का अवलम्बन करके धन-दौलत
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