Book Title: Shantilal Vanmali Sheth Amrut Mahotsav Smarika
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Sohanlal Jain Vidya Prasarak Samiti

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Page 66
________________ आचार का नियम दूसरों के लिए उन्होंने नहीं बताया। प्रतिभा और प्रज्ञा का दर्शन किया। जैन शास्त्रोंमें या जैन गृहत्याग के बाद उन्होंने कभी वस्त्र स्वीकार नहीं धर्म में वेद का प्रामाणिक पुस्तक के रूप में कोई स्थान नहीं। किया। अतएव कठोर शीत, गरमी, डांस-मच्छर और नाना- धार्मिक पुरुषों की आध्यात्मिक भूख मिटाने का साधन वेदक्षुद्र-जन्तु-जन्य परिताप को उन्होंने समभावपूर्वक सहा। वेदांग नहीं, किन्तु भगवान महावीर के द्वारा दिये गये उपदेशों किसी घर को अपना नहीं बनाया । स्मशान और अरण्य, का जो संकलन गणधर कहलाने वाले उन बाह्मण पण्डितों खण्डहर और वृक्षछाया-ये ही इनके आश्रयस्थान थे। नग्न ने किया, वही है। यह संकलन 'जैन-आगम' नाम से प्रसिद्ध होने के कारण भगवान् को चपल बालकों ने अपने खेल का है। वेद को जैन धर्म में एकान्त मिथ्या नहीं बताया किन्तु साधन बनाया. पत्थर और कंकड़ फेंके। रात को निद्रा का सम्यग्दष्टि पुरुष अर्थात् जैन-धर्म के रहस्य का जिसने पान त्याग कर ध्यानस्थ रहे। और निद्रा से सताये जाने पर किया है, और जो उसमें तन्मय हो गया है ऐसे पुरुष के लिए थोडा चंक्रमण किया। कभी-कभी चौकीदारों ने उन्हें काफी वह सम्यक् श्रुत ही है। वेद-वेदांग उन मोघ पुरुषों के लिये तकलीफ दी। गरम पानी और भिक्षाचर्या से जैसा मिल गया मिथ्या सिद्ध होता है जिसने धर्म का असली स्वरूप नहीं उससे अपना काम चला लिया। किन्तु कभी भी अपने निमित्त पहचाना है। बना अन्न-पान स्वीकार नहीं किया। बारह वर्ष की कठोर तपश्चर्या में, परम्परा कहती है कि, उन्होंने सब मिलाकर समभाव का उपदेश ३५० से अधिक दिन भोजन नहीं किया। मान-अपमान को जिन ब्राह्मणों को अपनी जाति का, अपनी संस्कृत उस जितेन्द्रिय महापुरुष ने समभाव से सहा । उन्हें साधक भाषा का, अपनी विद्वत्ता का अभिमान था उनका वह जीवन में कभी औषध के प्रयोग की आवश्यकता ही प्रतीत अभिमान भगवान् के सामने चूर हो गया। वे भगवान् के नहीं हुई, इतने वे संयमी और मात्राज्ञ थे। अनार्य देश में समभाव के संदेश का लोकभाषा प्राकृत में प्रचार करने उन्होंने विहार किया तब वहाँ के अज्ञानी जीवों ने उनकी लगे। जिन शूद्रों को धार्मिक अधिकारों से वे पहले वंचित ओर कुत्ते छोड़े किन्तु वे दुःखों की कुछ भी परवाह न करके समझते थे उनको भी दीक्षा देकर श्रमण-संघ में स्थान देकर अपने ध्यान में अटल रहे। उन्होंने गुरुपद का अधिकारी बनाया। इतना ही नहीं, किन्तु ____ इस प्रकार अपने कषायों पर विजय पाने के लिये, हरिकेशी जैसे चाण्डाल मुनि को इतनी उन्नत भूमिका पर अपने दोषों को निर्मल करने के लिये साढ़े बारह वर्ष दीर्घ पहँचने में वे सहायक हए कि वह चाण्डाल मुनि भी ब्राह्मणों तपस्या का अनुष्ठान करके उन्होंने ४२ वर्ष की उम्र में का गुरु हो गया। एक समय की बात है कि वह चाण्डाल वीतरागता पाई और 'जिन' हुए, तत्त्व का साक्षात्कार किया मुनि यज्ञवाटिका में भिक्षा के लिये चला गया। तिरस्कार और 'केवली' हुए । तथा लोगों को हित का उपदेश देकर और अपमान, दण्डों की मार और धुत्कार को सम-भाव पूर्वक 'तीर्थकर' बने। सहन करके भी उसने जब उन यज्ञ करने वाले ब्राह्मणों को अहिंसक यज्ञ का रहस्य बतलाया तब उन ब्राह्मणों ने उपदेश चाण्डाल ऋषि से क्षमा मांगी और उनकी तपस्या की प्रशंसा तीर्थकर होने के बाद सर्वप्रथम उन्होंने ब्राह्मण पंडितों की और जाति-वाद का तिरस्कार करके उनके अनुयायी बन को शिष्य बनाया। वेद के लौकिक अर्थ में तथा उसके गये। स्वाध्याय में ये निपुण थे। किन्तु उसका नया आध्यात्मिक भगवान् महावीर ने तीर्थकर होकर भी अपना अनियत अर्थ जब भगवान महावीर ने बताया तो उनको पारमाथिक वाम कायम रखा। वे और उनके शिष्य भारत में चारों ओर धर्म का स्वरूप ज्ञात हो गया। यज्ञ क्या है, यज्ञ-कुण्ड क्या पाद-विहार करके अहिंसा के सन्देश को फैलाने लगे। उनका है, समिध किसे कहते हैं, आहूति किसकी दी जाय, स्नान आदेश था कि लोगों को शांति, वैराग्य, उपशम, निर्वाण, कैसे किया जाय, इन बातों का अभूतपूर्व ही स्पष्टीकरण जब शौच, ऋजुता, निरभिमानता, अपरिग्रह और अहिंसा का भगवान् ने किया, वेद में आपाततः दिखने वाले कुछ विरोधों उपदेश द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से दिया जाए। को तथा उसमें होने वाली शंकाओं को भगवान् ने जब दूर यही कल्याणकारी धर्म है। लोगों को शान्ति और सुख, किया, तब वेद-निष्णात इन ब्राह्मणों ने भगवान् में एक नई विज्ञान और शक्ति इसी धर्म पर चल कर मिल सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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