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और वैराग्य की ओर झुकाया। उन्होंने सच्ची शांति, सुख और वैभवों के भोग में नहीं किन्तु त्याग में देखी। आखिरकार ३० वर्ष की युवावस्था में सब कुछ छोड़ कर त्यागी बन गये । ३० वर्ष तक भी जो उन्होंने गृहवास स्वीकार किया, उसका कारण भी अपने माता-पिता और बड़े भाई की इच्छा का अनुसरण है। संसार में रहते हुए भी उनका मन सांसारिक पदार्थों में लिप्त नहीं था, अंतिम एक वर्ष में तो उन्होंने अपना सब कुछ दीन-हीन लोगों को दे दिया था और अकिंचन हो करके अन्त में घर छोड़ करके निकल गये ।
तपस्या का रहस्य
भगवान पार्श्वनाथ ने समकालीन तामसी तपस्याओं का विरोध करके आत्मशोधन का सरल मार्ग बताया थाअहिंसा, सत्य, अस्तेय, और अपरिग्रह। उन्होंने वृक्ष पर लटकना, पंचाग्नि-तप, लोहे के कांटों पर सोना इत्यादि तामसी तपस्याओं के स्थान पर ध्यान, धारण, समाधि और उपवास अनशन आदि सात्विक तपस्या का प्रचार किया था। वर्धमान ने भी आत्मशुद्धि के लिये इन्हीं सात्त्विक उपायों का आश्रय लिया और अपनी उत्कट तथा सतत अप्रमत्त साधना के बल से आत्मशोधन करके कैवल्य' प्राप्त किया। भगवान् बुद्ध ने तपस्या को कायक्लेश बताकर आत्मशुद्धि में अनुपयोग बताया है। उन्होंने खुद दीर्घकाल पर्यन्त उत्कट तपस्याएँ कीं, किन्तु बोधिलाभ करने में असफल रहे । इसका कारण यह नहीं है कि तपस्या से आत्मशुद्धि होती नहीं, या तपस्या एक सदुपाय नहीं है ।
बात यह है कि तपस्याकी एक मर्यादा है और वह यह कि जब तक आत्मिक शांति बनी रहे- समाधि में बाधा न पड़े- तब तक ही तपस्या धेयस्कर है। ऐसी तपस्यायें, अमर्याद तपस्यायें निष्फल हैं जिनसे समाधि में भी बाधा आये । भगवान् बुद्ध ने अपनी शक्ति का ख्याल न करके ऐसी उत्कट तपस्या की जिसमें उनकी समाधि भंग ही हो गई। अतएव उनको तपस्या निष्फल दिखे इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। किन्तु भगवान् महावीर ने दीर्घ तपस्या करके भी सदा अपनी शान्ति का पूरा ख्याल रखा । अपनी शक्ति के बाहर अनयद तपस्या उन्होंने नहीं की यही अमर्याद । कारण है कि जिस तपस्या को बुद्ध ने निष्फल बताया उसी तपस्या के बलसे महावीर ने 'बोधिलाभ' किया। भगवान बुद्ध ने भी अपने उपदेशों में कुछ एक तपस्या का विधान किया है।
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संयममार्ग
भगवान् महावीर की तपस्या की सफलता का रहस्य संयम में है । उनकी प्रतिज्ञा थी कि 'किसी प्राणी को पीड़ा न देना । सर्व सत्त्वों से मैत्री रखना । अपने जीवन में जितनी भी बाधाएँ उपस्थित हों उन्हें बिना किसी दूसरे की सहायता के समभाव पूर्वक सहन करना।' इस प्रतिज्ञा को एक बीर पुरुष की तरह उन्होंने निभाया, इसीलिए 'महावीर' कहलाये । संयम की इस साधना के लिये यह आवश्यक है कि अपनी प्रवृत्ति संकुचित की जाय, क्योंकि मनुष्य, चाहे तब भी, सभी जीवों के सुख के लिए चेष्टा अकेला नहीं कर सकता । अपने आस-पास के जीवों को भी वह बड़ी मुश्किल से सुखी कर सकता है। तब संसार के सभी जीवों के सुख की जिम्मे दारी अकेला कैसे ले सकता है ? किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि उसे कुछ न करना चाहिए। उसे अपनी मैत्रीभावना का विस्तार करना चाहिए। तथा अपने शारीरिक व्यवहार को अपनी आवश्यकताओं को इतना कम करना चाहिए कि उससे दूसरों को जरा भी कष्ट न हो वही व्यवहार किया जाय, उसी प्रवृत्ति और उसी चीज को स्वीकार किया जाय, जो अनिवार्य हो अपनी प्रवृत्ति को, अनिवार्य प्रवृत्ति को भी अप्रमाद-पूर्वक किया जाय। यही । संयम है और यही निवृत्ति-मार्ग है । भगवान की साधना
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इस संयम मार्ग का अवलंबन भगवान् महावीर ने अप्रमत्त भाव से किया है । आत्मा को शुद्ध करने के लिये, विज्ञान, सुख और शक्ति से परिपूर्ण करने के लिये और दोषावरणों को हटाने के लिये उन्होंने जो पराक्रम किया है। उसकी गाथा आचारांग के अतिप्राचीन अंश - प्रथम श्रुतस्कंध में ग्रथित है। उसे पढ़ कर एक दीर्घ तपस्वी की साधना का साक्षात्कार होता है । उस चरित्र में ऐसी कोई दिव्य बात नहीं, ऐसा कोई चमत्कार वर्णित नहीं है जो अप्रतीतिकर हो या अंशत: भी असत्य या असंभव मालूम हो । वहाँ उनका शुद्ध मानवीय चरित्र वर्णित है अपूर्णता से पूर्णता की ओर प्रस्थित एक अप्रमत्त संयमी का चरित्र वर्णित है। उस चरित्र को और जैन धर्म के आचरण के विधिनिषेधों को मिलाने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवानने जिस प्रकार की साधना खुद की है उसी मार्ग पर दूसरों को ले जाने के लिये उनका उपदेश रहा है । जिसका उन्होंने अपने जीवन में पालन नहीं किया ऐसी कोई कठिन तपस्या या ऐसा कोई
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