Book Title: Shantilal Vanmali Sheth Amrut Mahotsav Smarika
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Sohanlal Jain Vidya Prasarak Samiti

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Page 35
________________ पाकर पार्श्वनाथ विद्याश्रम बनारस में संचालक के रूप में नियुक्ति । संस्था विद्यार्थियों से गूंज उठी। पार्श्वनाथ विद्याश्रम बनारस की मेरी शिक्षण-यात्रा-वास्तव में यहीं से जीवन-यात्रा प्रारम्भ होती है। श्री सोहनलाल जैन विद्या प्रसारक समिति, अमृतसर के कर्मठ मंत्री ला० हरजसराय जी, प्रो० मस्तराम जी आदि विद्या-बीज लेकर पं० सुखलालजी, पं० दलसुखभाई के पास बनारस आये। पंडितजी के साथ गंभीरतापूर्वक विचार-विमर्श हुआ और पंडितजी ने अन्तःचक्षु से देखा और परखा कि यह ज्ञानबीज सजीव और सफल हैं। यह ज्ञानबीज बनारस की विद्याभूमि में अच्छी तरह पनप सकता है-ऐसी अनुकूल भूमि और जलवायु हैं। श्री पार्श्वनाथ की जन्मभूमि में इस ज्ञानबीज का सन् १९३७ में आरोपण हुआ और जल-सिंचन एवं पोषण-धारण और रक्षण बराबर होने से आज यह ज्ञानबीज अंकुरित-पुष्पित और फलान्वित होकर सघन छायायुक्त विद्या का वटवृक्ष बन गया है। पं.सुखलालजी, श्री दलसुखभाई डा. बूलचंद आदि का सान्निध्य। जैन कल्चरल रिसर्च सोसायटी एवं गरीबों के लिए जयहिन्द को-ओपरेटीव सोसायटी की स्थापना । बड़े-बड़े प्रोफेसरों का परिचय । पू० मालवीयजो, पू० आनंदशंकर बापूभाई ध्र व, प्रो० पाठकजी, डा० राधाकृष्णन के दर्शन-परिचय । अखिल भारतीय समाचार पत्र, प्रदशिनी का श्री जयप्रकाशजी द्वारा उद्घाटन। डा० भगवानदासजी द्वारा 'महावीरवाणी' की प्रस्तावना । पं० सुंदरलालजी, महात्मा भगवानदीनजी, श्री जैनेन्द्रकुमारजी के निकट परिचय में आना। जैन-पत्रिकाओं का संपादन । १६४८ में स्वतंत्रता-प्राप्ति। बनारस में महोत्सव । कार्यवशान् बंबई जाना हुआ और वहीं महात्मा गांधीजी के हत्या की दर्दनाक समाचार मिले। व्यापार-यात्रा-१९५१-१९५३ बनारस की शिक्षणयात्रा पूर्ण करके बंबई में व्यापार-यात्रा का प्रारंभ। जीवनकी सबसे बड़ी भयंकर भूल । इंजिनीयरिंग लाईन में शुभारंभ कहाँ लोहे का यंत्र और कहाँ विद्यालय-तंत्र ! विषम-संगम । बोरीवली में निवास । बंबई के यंत्रवत् जीवन में यंत्रणा और यातना का प्रारंभ । अर्थतंत्र और विद्यातंत्र का द्वन्द्वयुद्ध । हताश और पूर्णतः पराजित । बंबई के विषम वातावरण से रोगग्रस्त ! क्या करना ! विकट समस्या। बच्चों की पढ़ाई, गहव्यवस्था और आर्थिक चिता से मृतप्रायः । धर्मपत्नी का धैर्यधारण और नैतिक बल का परिचय। 'स्वर्ग में से नरक में क्यों आये !' यह उपालंभ सुनकर भी शून्यमनस्क हो गया संसार जीवन-यात्रा-१६५४-१६५७ इतने में अचानक ही ब्यावर से वहाँ प्रेस का काम करने का आमंत्रण मिला-और बिना सोचेसमझे 'बभक्षितः किं किं न करोति'-कहावत चरीतार्थ हुई और बोरी-बस्ता बाँधकर बड़ी मुश्किल से बंबई का पीछा छोड़ा और-ऊल में से निकलकर चूल में-व्यावर में आ धमका । जीवन-मरण की मज़धार में मेरी जीवन नौका कभी कातिल धैर्य की भँवर में तो कभी जालिम-जुल्मों की झंझावात में डगमगाने लगी।भव-कूप में डूब जानेकी भी नौबत आई लेकिन सुराणाजीनाविक बनकर सत्साहस और धैर्य से नौका को पार लगा दी । यह महदुपकार । व्यावर प्रेस-हिसाब वे सम्हालते थे और मैं काम लेकिन आर्थिक आंटीघंटी के निष्णात के चंगुल में ऐसा फँसा कि जीवन जीना भी दूभर हो गया। निकट के स्नेही-संबंधी भी कैसे स्वार्थी होते हैं- इसका भी कटु अनुभव हो गया ! बच्चों की पढ़ाई छुड़ानी पड़ी और अश्रुपूर्ण नेत्रों से, हृदय को थामकर, बड़े पुत्र को विदाई दी। बच्ची की शादी कैसे की, कितनी आफ़तों का सामना करना पड़ा इसकी भी एक करुण-कथा है। ज्ञान के स्थान पर अज्ञान-अंधकार चारों ओर छा गया।धर्मपत्नी ने अपने सबकुछ-हितसाधन दे दिये और जैसे तैसे सबका हिसाब साफ कर दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। परिश्रम पानी में गया और मैं धूलि-धूसरित हो गया। ऐसी दर्दनाक दशा दुश्मन को भी प्राप्त न हो ऐसी प्रार्थना । यह व्यथा की वीतक-कथा ही वास्तव में मेरे जीवन की विकास-कथा है अतः मैं उन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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