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सभी धैर्य बंधाने वाले और जुल्म करनेवाले---सभी को वंदना करता है और मनोयोगपूर्वक हार्दिक धन्यवाद देता हूँ। यह मेरे निष्फल जीवन द्वारा सफल जीवन की ओर बढ़ने का एक कदम ही समझना चाहिए।
ब्यावर में गुजराती-समाज की स्थापना । श्री सिद्धराजजी ढड्ढा की अध्यक्षता में जैनयुवकसम्मेलन, श्री मधुकरजी का मधुर-मिलन एवं साहेबचंदजी सुराणा, पं० शोभाचंद्रजी, श्री नंदलालभाई, श्री लक्ष्मीचंद मुणोत और श्री मोतीलाल रांका,आदि मित्रों की सहानुभूति, आत्मीयता और मित्रताये सुखद स्मृतियाँ सभी दुःखों को विस्मत कराने के लिए पर्याप्त हैं। शान्ति-यात्रा
'असदो मा सद्गमय। मृत्योर्माऽमृतं गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय' इन जीवनमन्त्रों के उच्चारण मात्र से जीवन में प्रेरणा ही नहीं, शान्ति भी प्राप्त होती है तो आचरण से जीवन शान्त और दान्त हो जाय तो उसमें क्या आश्चर्य ! खास कर कष्टमय जीवन-यात्रा के समय तो यह 'पाथेय' बन जाता है। यह दिवा-स्वप्न दिल्ली में आकर सफल सिद्ध हआ।
आनंदमूर्ति सुराणाजी वास्तव में प्राणिमित्र थे। मैं तो उनका छाटे भाई से भी विशेष स्नेहभाजन बन गया । डूबते व्यक्ति के लिए तो आश्वासन-सान्त्वन भी 'तरणोपाय' बन जाता है।
ब्यावर में तो बावरा बन गया था लेकिन दिल्ली आकर पुनः समन्वयसेवी आदमी बन गया। इसका श्रेय लक्ष्मी को , या सरस्वती को! दिल्ली में कॉन्फरन्स के मुखपत्र 'जैनप्रकाश' साप्ताहिक हिंदी पत्र का संपादन कार्य, सुराणाजी की अभीदृष्टि और समन्वय के स्वप्नदृष्टा काकासाहेब की कृपादृष्टि से राष्ट्र, समाज और धर्म के क्षेत्र में प्रतिष्ठा चरम सीमा पर पहुँच गई। गांधी स्मारक निधि गांधी, अध्ययन केन्द्र एवं काकासाहेब की संस्थाओं के संचालन से जीवन में नया ही मोड़ आया । काकासाहेब की स्वतंत्र समन्वय-विचारधारा, पू० बापूजी और विनोबाजी की सर्वोदय-धारा और मानवता के महर्षि से जैनेन्द्रजी की आत्मीयता-अमृतधारा की पवित्र त्रिवेणी में स्नान कर वास्तव में मैं 'स्नातक' बन गया। मेरा धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन एवं सर्वधर्म समभाव को जीवन में उतारने का यहाँ 'स्वर्णावसर' भी मिला। पू० काकासाहेब की और समन्वय की साक्षात् मूर्ति रैहाना बहिनजी की जीवनस्पर्शी 'पारसमणि' ने मुझ जैसे 'लोहे के पुतले' को स्वर्णिम बना दिया। यह सुवर्ण ताप-कष-छेद् की परीक्षा में खरा भी उतरा।
बापू-बुनियादी शिक्षा निकेतन, श्रम-साधना केन्द्र एवं कॉन्फरन्स के मंत्री, जैनप्रकाश के तंत्री, भ० महावीर २५वीं निर्वाण शताब्दी राष्ट्रीय समिति के एक मंत्री, मोस्को में विश्व-शान्ति परिषद् में जैन प्रतिनिधित्व, अपने सुपुत्रों की व्यावसायिक सफलता आदि राष्ट्रीय, सामाजिक एवं धार्मिक सेवाकार्यों का समुच्चय ही मुझे इस सन्मान के योग्य बना दिया। इस तरह मेरी वर्तमान जीवन-यात्रा वास्तव में शान्ति यात्रा बन गई यही मेरे जीवन की सार्थकता समझता हूँ।
जिस संस्था ने मेरे जीवन में 'जैनत्व' के संस्कारों का सिंचन किया, ऐसी कोई जैन प्रशिक्षण देने वाली 'प्राकृत-विद्यापीठ' की स्थापना हो और सर्वहितंकर सर्वोपयोगी सन्मति साहित्य का संपादन एवं प्रकाश हो यह भी मेरी अन्तर्भावना है।
'उट्ठिए, नो पमायए। सुत्तेसु यावि पडिबुद्धजीवी'-उठो, प्रमाद न करो और सुषुप्ति में भी सदा जागृत रहो-यह भ. महावीर की प्रबुद्ध-वाणी का ध्येयमंत्र और 'उत्तिष्ठत जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत' यह स्वामी विवेकानंद के प्रेरणा-मंत्र का निरंतर जाप करते हए जीवन में निम्नलिखित तीन 'मनोरथों को सिद्ध करूँ यह मेरी अंतिम इच्छा रहती है :
१.मैं सच्चा मानव-सच्चा जैन बने । २. मैं सांसारिक आधि, व्याधि, उपाधि की ग्रन्थियों से मुक्त बन और
३. अंत में 'परम सखा'-मत्यु-मित्र को शान्ति-समाधिपूर्वक साथ ही मेरे जीवन की-सच्ची शान्ति-यात्रा की-पूर्णता होगी। ॐ शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः।।
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