Book Title: Shantilal Vanmali Sheth Amrut Mahotsav Smarika
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Sohanlal Jain Vidya Prasarak Samiti

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Page 57
________________ उसका निर्मल नाश करना न शक्य और न इष्ट । प्रवर्तक- अन्त में तो यहाँ तक प्रवर्तक धर्मानुयायी ब्राह्मणों ने विधान धर्म के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के लिए गृहस्थाश्रम जरूरी है। मान लिया कि गहस्थाश्रम के बाद जैसे संन्यास न्यायप्राप्त है उसे लाँघ कर कोई विकास कर नहीं सकता। वैसे ही अगर तीव्र वैराग्य हो तो गहस्थाश्रम बिना किए भी व्यक्तिगामी निवर्तक धर्म सीधे ही ब्रह्मचर्याश्रम से प्रव्रज्यामार्ग न्याय-प्राप्त है। इस तरह जो प्रवर्तक-धर्म का जीवन में समन्वय स्थिर हुआ निवर्तक-धर्म व्यक्तिगामी है। वह आत्मसाक्षात्कार की उसका फल हम दर्शनिक साहित्य और प्रजाजीवन में आज भी उत्कृष्ट वृत्ति में से उत्पन्न होने के कारण जिज्ञासु को आत्म । देखते हैं। तत्त्व है या नहीं, है तो वह कैसा है, उसका अन्य के साथ कैसा संबंध है, उसका साक्षात्कार संभव है तो किन-किन समन्वय और संघर्षणउपायों से संभव है, इत्यादि प्रश्नों की ओर प्रेरित करता है। जो तत्त्वज्ञ ऋषि प्रवर्तक-धर्म के अनुयायी ब्राह्मणों के ये प्रश्न ऐसे नहीं हैं कि जो एकान्त-चिन्तन, ध्यान, तप और वंशज होकर भी निवर्तक-धर्म को पूरे तौर से अपना चुके थे असंगतापूर्ण जीवन के सिवाय सुलझ सकें। ऐसा सच्चा जीवन उन्होंने चिन्तन और जीवन में निवर्तक-धर्म का महत्त्व व्यक्त खास व्यक्तियों के लिए ही संभव हो सकता है। उसका समाज- किया। फिर भी उन्होंने अपनी पैत्रिक संपत्ति रूप प्रवर्तक-धर्म गामी होना संभव नहीं। इस कारण कर्तव्य-धर्म की अपेक्षा और उसके आधारभत वेदों का प्रामाण्य मान्य रखा । न्यायनिवर्तक-धर्म का क्षेत्र शुरू में बहत परिमित रहा। निवर्तक- वैशेषिक दर्शन के और औपनिषद दर्शन के आद्य द्रष्टा ऐसे ही धर्म के लिए गृहस्थाश्रम का बन्धन था ही नहीं। वह गृहस्था- तत्त्वज्ञ ऋषि थे। निवर्तक-धर्म के कोई-कोई पुरस्कर्ता ऐसे भी श्रम बिना किए भी व्यक्ति को सर्वत्याग की अनुमति देता है। हए कि जिन्होंने तप, ध्यान और आत्मसाक्षात्कार के बाधक क्योंकि उसका आधार इच्छा का संशोधन नहीं, पर उसका क्रियाकांड का तो आत्यंतिक विरोध किया पर उस क्रियाकाण्ड निरोध है। अतएव निवर्तक-धर्म समस्त सामाजिक और की आधारभूत श्रुति का सर्वथा विरोध नहीं किया। ऐसे धार्मिक कर्तव्यों से बद्ध होने की बात नहीं मानता। उसके व्यक्तियों में सांख्य दर्शन के आदि पुरुष कपिल आदि ऋषि थे। अनुसार व्यक्ति के लिए मुख्य कर्तव्य एक ही है और वह यह कारण है कि मूल में सांख्य-योगदर्शन, प्रवर्तक धर्म का विरोधी कि जिस तरह हो आत्मसाक्षात्कार का और उसमें रुकावट होने पर भी अन्त में वैदिक दर्शनों में समा गया। डालने वाली इच्छा के नाश का प्रयत्न करे। समन्वय की ऐसी प्रक्रिया इस देश में शताब्दियों तक चली। फिर कुछ ऐसे आत्यन्तिकवादी दोनों धर्मों में होते रहे निवर्तक-धर्म का प्रभाव व विकास कि वे अपने-अपने प्रवर्तक या निवर्तक धर्म के अलावा दूसरे जान पड़ता है इस देश में जब प्रवर्तक-धर्मानुयायी वैदिक पक्ष को न मानते थे, और न युक्त बतलाते थे। भगवान् आर्य पहले-पहल आए तब भी कहीं इस देश में निवर्तक-धर्म महावीर और बुद्ध के पहले भी ऐसे अनेक निवर्तक-धर्म के एक या दूसरे रूप में प्रचलित था । शुरू-शुरू में इन दो धर्म पुरस्कर्ता हुए हैं। फिर भी महावीर और बुद्ध के समय में तो संस्थाओं के विचारों में पर्याप्त संघर्ष रहा। पर निवर्तक-धर्म । इस देश में निवर्तक-धर्म की पोषक ऐसी अनेक संस्थाएँ थीं के इने-गिने सच्चे अनुगामियों की तपस्या, ध्यान-प्रणाली और और दसरी अनेक ऐसी नई दादोबी कि जोक. असंगचर्या का साधारण जनता पर जो प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ धर्म का उग्रता से विरोध करती थीं। अब तक नीच से ऊँच रहा था उसने प्रवर्तक-धर्म के कुछ अनुगामियों को भी अपनी तक के वर्गों में निवर्तक-धर्म की छाया में विकास पानेवाले ओर खींचा और निवर्तक-धर्म की संस्थाओं का अनेक रूप में विविध तपोनुष्ठान, विविध ध्यान-मार्ग और नानाविध त्यागविकास होना शुरू हआ । इसका प्रभावकारी फल अन्त में यह मय आचारों का इतना अधिक प्रभाव फैलने लगा था कि फिर हआ कि प्रवर्तक-धर्म के आधार रूप जो ब्रह्मचर्य और गृहस्थ एक बार महावीर और बुद्ध के समय में प्रवर्तक और निवर्तक दो आश्रम माने जाते थे उनके स्थान में प्रवर्तक-धर्म के पुरस्- धर्म के बीच प्रबल विरोध की लहर उठी जिसका सबूत हम कर्ताओं ने पहले तो वानप्रस्थ सहित तीन और पीछे संन्यास जैन-बौद्ध वाङ्मय तथा समकालीन ब्राह्मण वाङ्मय में पाते सहित चार आश्रमों को जीवन में स्थान दिया । निवर्तक-धर्म हैं। तथागत बुद्ध ऐसे पक्व विचारक और दृढ़ थे कि जिन्होंने की अनेक संस्थाओं के बढ़ते हुए जनव्यापी प्रभाव के कारण किसी भी तरह से अपने निवर्तक-धर्म में प्रवर्तक-धर्म के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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