________________
निवृत्तिलक्षी प्रवृत्ति
जैन-वर्ग का कर्तव्यऋषभ से लेकर आज तक निवृत्तिगामी कहलाने वाली १—देश में निरक्षरता, बहम और आलस्य व्याप्त है। जैन-संस्कृति भी जो किसी न किसी प्रकार जीवित रही है जहाँ देखो वहाँ फुट-ही-फुट है। शराब और दूसरी नशीली वह एक मात्र निवृत्ति बल पर नहीं किन्तु कल्याणकारी प्रवृत्ति चीजें जड़पकड़ बैठी हैं। दुष्काल, अतिवृष्टि और युद्ध के कारण , के सहारे पर । यदि प्रवर्तक-धर्मी ब्राह्मणों ने निवृत्ति-मार्ग के मानव-जीवन का एक मात्र आधार पशुधन नामशेष हो रहा सुन्दर तत्वों को अपनाकर एक व्यापक कल्याणकारी संस्कृति है। अतएव इस सम्बन्ध में विधायक प्रवृत्तियों की ओर सारे का ऐसा निर्माण किया है जो गीता में उज्जीवित होकर आज त्यागी वर्ग का ध्यान जाना चाहिये, जो वर्ग कुटुम्ब के बन्धनों नये उपयोगी स्वरूप में गांधीजी के द्वारा पुनः अपना संस्करण से बरी है, महावीर का आत्मौपम्य का उद्देश्य लेकर घर से कर रही है तो निवृत्तिलक्षी जैन-संस्कृति को भी कल्याणाभि- अलग हआ है, और ऋषभदेव तथा नेमिनाथ के आदर्शों को मुख आवश्यक प्रवृत्तियों का सहारा लेकर ही आज की बदली जीवित रखना चाहता है। हई परिस्थिति में जीना होगा। जैन-संस्कृति में तत्त्वज्ञान और २–देश में गरीबी और बेकारी की कोई सीमा नहीं है। आचार के जो मूल नियम हैं और वह जिन आदर्शों को आज खेती-बाड़ी और उद्योग-धंधे अपने अस्तित्व के लिए बुद्धि, तक पूंजी मानती आई है उनके आधार पर वह प्रवृत्ति का ऐसा धन, परिश्रम और साहस की अपेक्षा कर रहे हैं । अतएव मंगलमय योग साध सकती है, जो सबके लिये क्षेमंकर हो। गृहस्थों का यह धर्म हो जाता है कि वे संपत्ति का उपयोग
जैन-परंपरा में प्रथम स्थान है त्यागियों का, दूसरा स्थान तथा विनियोग राष्ट्र के लिए करें। वह गांधीजी के ट्रस्टी शिप है गहस्थों का । त्यागियों को जो पाँच महाव्रत धारण करने के सिद्धान्त को अमल में लावें। बुद्धिसंपन्न और साहसिकों का की आज्ञा है वह अधिकाधिक सद्गुणों में प्रवृत्ति करने की धर्म है कि वे नम्र बनकर ऐसे ही कार्यों में लग जायँ जो राष्ट्र सदगुण-पोषक-प्रवृत्ति के लिये बल पैदा करने की प्राथमिक के लिए विधायक हैं। यह विधायक कार्यक्रम उपेक्षणीय नहीं शर्त मात्र है। हिंसा, असत्य, चोरी, परिग्रह आदि दोषों से है। असल में वह कार्यक्रम जैन-संस्कृति का जीवन्त अंग है। बिना बचे सदगुणों में प्रवृत्ति हो ही नहीं सकती, और सद्गुण दलितों और अस्पृश्यों को भाई की तरह बिना अपनाए कौन पोषक प्रवत्ति को बिना जीवन में स्थान दिये हिंसा आदि से यह कह सकेगा कि मैं जैन हैं ? खादी और ऐसे दसरे उद्योग जो बचे रहना भी सर्वथा असम्भव है। इस देश में जो दूसरे अधिक से अधिक अहिंसा के नजदीक हैं और एकमात्र निवत्ति-पंथों की तरह जैन पंथ में भी एक मात्र निवृत्ति की आत्मौपम्य एवं अपरिग्रह धर्म के पोषक हैं उनको उत्तेजना ऐकान्तिक साधना की बात करते हैं वे उक्त सत्य भूल जाते दिये बिना कौन कह सकेगा कि मैं अहिंसा का उपासक हँ ? हैं। जो व्यक्ति सार्वभौम महाव्रतों को धारण करने की शक्ति अतएव उपसंहार में इतना ही कहना चाहता हूँ कि जैन लोग, नहीं रखता उसके लिये जैन-परंपरा में अणुव्रतों की सृष्टि निरर्थक आडम्बरों और शक्ति के अपव्ययकारी प्रसंगों में करके धीरे-धीरे निवत्ति की ओर बढ़ने का मार्ग भी रखा है। अपनी संस्कृति सुरक्षित है, यह भ्रम छोड़कर जैन संस्कृति के ऐसे गहस्थों के लिये हिंसा आदि दोषों से अंशतः बचने का हृदय की रक्षा का प्रयत्न करें। विधान किया है। उसका मतलब यही है कि गृहस्थ पहले दोषों से बचने का अभ्यास करे। पर साथ ही यह आदेश है सस्कृति का सकतकि जिस-जिस दोष को वे दूर करें उस-उस दोष के विरोधी संस्कृति-मात्र का संकेत लोभ और मोह को घटाने व सदगुणों को जीवन में स्थान देते जाय । हिंसा को दूर करना निर्मूल करने का है, न कि प्रवृत्ति को निर्मल करने का। हो तो प्रेम और आत्मौपम्य के सद्गुण को जीवन में व्यक्त वही प्रवृत्ति त्याज्य है जो आसक्ति के बिना कभी संभव ही करना होगा। सत्य बिना बोले और सत्य बोलने का बल बिना नहीं जैसे कामाचार व वैयक्तिक परिग्रह आदि ।जो प्रवृतियाँ पाये, असत्य से निवत्ति कैसे होगी? परिग्रह और लोभ से समाज का धारण, पोषण, विकसन करने वाली हैं वे आसक्तिबचनाहो तोसन्तोष और त्याग जैसी पोषक प्रवृत्तियों में अपने पूर्वक और आसक्ति के सिवाय भी सम्भव हैं। अतएव आपको खपाना ही होगा। इस बात को ध्यान में रखकर जैन- संस्कृति आसक्ति के त्यागमात्र का संकेत करती है। जैनसंस्कृति पर यदि आज विचार किया जाय तो आजकल संस्कृति यदि संस्कृति-सामान्य का अपवाद बने तो वह विकृत की कसौटी के काल में नीचे लिखी बातें फलित होती हैं :- बनकर अन्त में मिट जा सकती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org