Book Title: Shantilal Vanmali Sheth Amrut Mahotsav Smarika
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Sohanlal Jain Vidya Prasarak Samiti

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Page 61
________________ बाहुबल को क्रोध और अभिमान पर ही जमाया और अवर से वैर के प्रतिकार का जीवन दृष्टान्त स्थापित किया। फल यह हुआ कि अन्त में भरत का भी लोभ तथा गर्व खर्व हुआ। एक समय था जब कि केवल क्षत्रियों में ही नहीं पर सभी वर्गों में मांस खाने की प्रथा थी । नित्य प्रति के भोजन, सामाजिक उत्सव, धार्मिक अनुष्ठानों के अवसर पर पशु-पक्षियों का वध ऐसा ही प्रचलित और प्रतिष्ठित था जैसा आज नारियलों और फलों का चढ़ाना। उस युग में यदुनन्दन नेमिकुमार ने एक अजीब कदम उठाया। उन्होंने अपनी शादी पर भोजन के वास्ते कतल किए जाने वाले निर्दोष पशु-पक्षियों की आतं मूक वाणी से सहसा पिपलकर निश्चय किया कि वे ऐसी शादी न करेंगे जिसमें अनावश्यक और निर्दोष पशु-पक्षियों का वध होता हो । उस गम्भीर निश्चय के साथ वे सबकी सुनी अनसुनी करके बारात से शीघ्र वापिस लौट आये। द्वारका से सीधे गिरनार पर्वत पर जाकर उन्होंने तपस्या की । कौमारवय में राजपूती का त्याग और ध्यान तपस्या का मार्ग अपनाकर उन्होंने उस चिरप्रचलित पशु-पक्षी-वध की प्रथा पर आत्मदृष्टान्त से इतना सख्त प्रहार किया कि जिससे गुजरात भर में और गुजरात के प्रभाव वाले दूसरे प्रान्तों में भी वह प्रथा नाम शेष हो गई और जगह-जगह आज तक चली आनेवाली 'पिंजरापोलों' की लोकप्रिय संस्थाओं में परिवर्तित हो गई । पार्श्वनाथ का जीवन आदर्श कुछ और ही रहा है। उन्होंने एक बार दुर्वासा जैसे सहजकोपी तापस तथा उनके अनुयायियों की नाराजगी का ख़तरा उठा कर भी एक जलते साँप की गीली लकड़ी से बचाने का प्रयत्न किया। फल यह हुआ कि आज भी जैन प्रभाव वाले क्षेत्रों में कोई सांप तक को नहीं मारता । दीर्घ तपस्वी महावीर ने भी एक बार अपनी अहिंसावृत्ति की पूरी साधना का ऐसा ही परिचय दिया। जब जंगल में वे ध्यानस्थ खड़े थे एक प्रचण्ड विषधर ने उन्हें डस लिया, उस समय वे न केवल ध्यान में अचल ही रहे बल्कि उन्होंने मैत्री भावना का उस विषधर पर प्रयोग किया जिससे वह 'अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्संनिधौ वैरत्यागः ' इस योगसूत्र का जीवित उदाहरण बन गया अनेक प्रसंगों पर यज्ञयागादि धार्मिक कार्यों में होने वाली हिंसा को तो रोकने का भरसक - प्रयत्न वे आजन्म करते ही रहे। ऐसे ही आदशों से जनसंस्कृति उत्प्राणित होती आई है और अनेक कठिनाइयों के बीच भी उसने अपने आदर्शों के हृदय को किसी न किसी तरह संभालने Jain Education International का प्रयत्न किया है, जो भारत के धार्मिक, सामाजिक और राजकीय इतिहास में जीवित है । जब कभी सुयोग मिला तभी त्यागी तथा राजा, मन्त्री तथा व्यापारी आदि गृहस्थों ने जैन संस्कृति के अहिंसा, तप और संयम के आदर्शों का अपने ढंग से प्रचार किया है। संस्कृति मात्र का उद्देश्य है मानवता की भलाई की ओर आगे बढ़ना । यह उद्देश्य तभी वह साध सकती है जब वह अपने जनक और पोषक राष्ट्र की भलाई में योग देने की ओर सदा अग्रसर रहे। किसी भी संस्कृति के बाह्य अंग केवल अभ्युदय के समय ही पनपते हैं और ऐसे ही समय वे आकर्षक लगते हैं पर संस्कृति के हृदय की बात जुदी है। समय आफत का हो या अभ्युदय का अनिवार्य आवश्यकता सदा एक-सी बनी रहती है । कोई भी संस्कृति केवल अपने इतिहास और पुरानी यशोगाथाओं के सहारे न जीवित रह सकती है और प्रतिष्ठा पा सकती है जब तक वह भावी निर्माण में योग न दे। इस दृष्टान्त से भी जैन-संस्कृति पर विचार करना संगत है हम ऊपर बतला आए हैं कि यह संस्कृति मूलतः प्रवृत्ति अर्थात् पुनर्जन्म से छुटकारा पाने की दृष्टि से आविर्भूत हुई। इसके आचार-विचार का सारा ढाँचा उसी लक्ष्य के अनुकूल बना है । पर हम यह भी देखते हैं कि आखिर में वह संस्कृति व्यक्ति तक सीमित न रही । उसने विशिष्ट समाज का रूप धारण किया । निवृति और प्रवृत्ति समाज कोई भी हो वह एक मात्र निवृत्ति की भूलभुलैयों पर न जीवित रह सकता है और न वास्तविक निवृत्ति ही साध सकता है। यदि किसी तरह निवृत्ति को न मानने वाले और सिर्फ़ प्रवृत्तिचक्र का ही महत्त्व मानने वाले आखीर में उस प्रवृत्ति के तूफान और आँधी में ही फँसकर मर सकते हैं तो वह भी उतना ही सच है कि प्रवृत्ति का आश्रय लिये बिना निवृत्ति हवा का किला ही बन जाता है। ऐतिहासिक और दार्शनिक सत्य यह है कि प्रवृत्ति और निवृत्ति एक ही मानवकल्याण के सिक्के के दो पहलू हैं । कोई भी बीमार केवल अपथ्य और कुपथ्य से निवृत्त होकर जीवित नहीं रह सकता। उसे साथ-ही-साथ पथ्यसेवन करना भी चाहिये। शरीर से दूषित रक्त को निकाल डालना जीवन के लिये अगर ज़रूरी है तो उतना ही जरूरी उसमें नये रुधिर का संचार करना भी है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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